Saturday, April 20, 2024

फिर वही सपनों की सौदागरी!

अकारण नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भीतर का सपनों का सौदागर एक बार फिर जाग उठा है। 2014 में उनके भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने के बाद से ही यह परम्परा-सी बन गई है कि जब भी चुनाव आते हैं, वे लोकसभा के हों या किसी राज्य की विधानसभा के, मोदी विकास व कट्टरता के नये काकटेल के साथ नये-नये सपने बेचने लग जाते हैं। 

याद कीजिए, 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने किस तरह बहुप्रचारित गुजरात मॉडल में अपने महानायकत्व की छौंक लगाई और उसे पूरे देश में लागू करने का सपना बेचा था। फिर किस तरह उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव में श्मशान और कब्रिस्तान तक जा पहुंचे थे। अब जब पिछले सात सालों में खुद उनके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार की ही कारस्तानियों से गुजरात मॉडल का ढोल फूट गया है, उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को हाइवे व हवाई अड्डों के सपने बेचते हुए यह भी याद नहीं रख रहे कि उनकी सालाना औसत आय सरकारी आंकड़ों के हिसाब से भी एक लाख रुपये से कई हजार कम है और वे हाइवे व हवाई अड्डों के बगैर इतने भर से खुश होने को तैयार हैं कि उनके जीने और रहने की स्थितियां थोड़ी बेहतर कर दी जायें। 

इस बार प्रधानमंत्री की सुविधा यह है कि विकास के उनके सपनों में कट्टरता का तड़का देने के लिए उनके पास योगी आदित्यनाथ जैसा धुरंधर मुख्यमंत्री है। इसीलिए वे पूरे आत्मविश्वास से ऐसा जता रहे हैं, जैसे उत्तर प्रदेश के उच्चवर्ग के साथ रोजी-रोटी के लिए संघर्षरत दलितों-वचितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों वगैरह के उज्ज्वल भविष्य का रास्ता भी इन हाइवेज और हवाई अड़्डों से होकर ही गुजरता है। गौरतलब है कि इससे पहले उन्होंने इस राज्य के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ही साल भर से राजधानी दिल्ली की सड़कों पर बैठे किसानों के प्रति ‘दरियादिली’ दिखाते हुए उन पर जबरन थोपे गये तीनों कृषि कानून वापस ले लिये। हालांकि गुरुवार को जेवर में अंतरराष्ट्रीय विमानतल की आधारशिला रखते हुए उसकी टाइमिंग के सिलसिले में उनके द्वारा इस्तेमाल किये गये शब्दों की ही तर्ज पर कहें तो वे चाहते तो उन्हें अन्नदाता मानने से इनकार करते हुए और एक साल सड़कों पर बैठाये रखते। 

लेकिन कैसे चाहते, अभी तो जैसे भी बने, उन्हें उनसे वोट लेने हैं। इसीलिए तो वे जेवर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के शिलान्यास के वक्त अपने सम्बोधन में उसको उत्तर भारत का लॉजिस्टिक गेट-वे बताकर ही नहीं रह गये। इस बात को, जो इधर उनका तकिया कलाम सी बन गई है, दोहराकर भी संतुष्ट नहीं ही हुए कि अपने स्वार्थों में डूबी पिछली सरकारों ने पिछले सत्तर सालों में उत्तर प्रदेश को उसका हक नहीं दिया और अब ‘परमार्थी’ योगी सरकार ने उसे देना शुरू किया है। यह कहकर भी नहीं रह गये कि यह हवाई अड्डा अलीगढ़, मथुरा, मेरठ, आगरा, बिजनौर, मुरादाबाद, बरेली जैसे अनेक औद्योगिक क्षेत्रों के लिए खासा मददगार साबित होगा। उन्होंने यह सपना भी दिखाया कि इस हवाईअड्डे के चालू हो जाने के बाद किसान अपनी जल्दी खराब हो जाने वाली सारी फसलें, मसलन सब्जियां, फल व मछलियां आदि सुभीते से निर्यात कर पाएंगे। 

सोचिये जरा, जिस देश में अपनी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पाने के लिए किसान अभी भी संघर्षरत हैं और प्रधानमंत्री की ‘दरियादिली’ भी उन्हें उसे देने में आगा पीछा कर रही है, उसमें यह सपना कितना लुभावना है कि अब वे अपनी फसलें निर्यात भी कर पायेंगे। यानी उन्हें देश में उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए जूझने, संघर्ष करने, लाठी खाने या पानी की तोपें झेलने की जरूरत नहीं रह जायेगी। लेकिन दूसरे पहलू पर जायें तो गुजरात मॉडल की ही तरह इस सपने की पोल खुलते भी देर नहीं लगती। 

आज के हालात में कौन कह सकता है कि इस हवाई अड्डे तक किसानों की पहुंच और वहां से अपनी उपजों को बाहर भेजने की सुविधा इतनी ‘क्रांतिकारी’ सिद्ध होगी कि उसके हासिल होते ही देश की पूंजीवाद प्रेरित सरकारी नीतियां किसानों के आड़े आना और उनकी जिन्दगी की गाड़ी के आगे रोड़े अटकाना छोड़ देंगी? इस बात को भला कैसे भूला जा सकता है कि यह पूंजीपतियों की हितसाधक सरकारी नीतियों का ही कुफल था कि मोदी सरकार ने कोरोना की आपदा को अपने अवसर में बदलकर किसानों से उनकी उपज और जमीन का मालिकाना हक छीन लेने वाले तीन कृषि कानून बना डाले थे। अब बेबसी में उनको वापस लिये जाने के बावजूद सत्तारूढ़ भाजपा के कई नेता कहते घूम रहे हैं कि आगे फिर ऐसे कानून बनाये जा सकते हैं। 

प्रसंगवश, भारत ही नहीं एशिया के इस सबसे बड़े हवाई अड्डे को बनाने के लिए आसपास के छः गांवों के किसानों की 5,845 हेक्टेयर भूमि ली गई है। योगी आदित्यनाथ की मानें तो ये किसान इतने सदाशयी हैं कि उन्होंने खुद लखनऊ जाकर इस नेक कार्य के लिए खुशी-खुशी अपनी भूमि न्यौछावर करने का प्रस्ताव दिया। लेकिन योगी सरकार ने उनकी इस ‘सदाशयता’ से अब तक जैसा सलूक किया है, वह उनके प्रति उसकी कदाशयता की ही गवाही देती है। 

इन किसानों में से अनेक अब भी तम्बुओं में रहकर अपनी भूमि के सही मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं। हालांकि उनसे वादा किया गया था कि उनके घर गिराये जायेंगे तो रहने के लिए नये दिये जायेंगे। दूसरी ओर रिपोर्टें हैं कि जिन किसानों को मुआवजा मिल गया है, उनकी जिन्दगी में चार दिन की चांदनी आ गई है। उनमें किसी ने कार व बाइक वगैरह खरीद ली है, तो किसी ने कोई ऐसा काम धंधा शुरू कर दिया है, जिसका उसे कोई अनुभव नहीं है। सवाल स्वाभाविक है कि इस सबसे उनका भविष्य सुरक्षित होगा या चार दिन की चांदनी के बाद उनकी जिन्दगी में कभी न खत्म होने वाली अंधेरी रात आ जायेगी? 

अगर सरकार द्वारा उनको उस अंधेरी रात से बचाने का कोई जतन नहीं किया जा रहा तो उसकी इस बात पर कैसे एतबार किया जा सकता है कि पहले पूर्वांचल एक्सप्रेस वे, फिर कुशीनगर एयरपोर्ट और अब जेवर एयरपोर्ट जैसी परियोजनाओं का फोकस उनकी तकदीर बदलने पर ही है? खासकर जब केन्द्र सरकार की रीति-नीति ऐसी है कि विपक्षी दलों के नेताओं का यह तंज उसकी हवाई अड्डा परियोजनाओं पर स्वतः चस्पा हुआ जा रहा है कि वह देश की अन्य सार्वजनिक संपत्तियों और हवाई अड्डों की तरह यह हवाई अड्डा भी देर-सबेर अपने किसी उद्योगपति मित्र के हवाले कर देगी। फिर, और तो और, उसके लिए अपनी जमीन देने वाले सदाशयी किसानों के हाथ भी भला क्या आएगा? 

इस सवाल से जुड़े कई और सवाल भी उत्तर की मांग कर रहे हैं। मसलन, आज ऐन चुनाव के वक्त जिन परियोजनाओं को चकाचौंध भरे सरकारी विज्ञापनों के साथ पेश किया जा रहा है और उनकी मार्फत लाखों रोजगार पैदा होने व करोड़ों के निवेश के सपने दिखाए जा रहे हैं, उनकी दिशा में सत्ता संभालते ही सक्रियता प्रदर्शित की गई होती तो क्या उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी और गरीबी का यह हाल होता? फिर प्रधानमंत्री का यह कहना सही है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर उनके लिए राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति का हिस्सा है तो उनके द्वारा उससे जुड़ी परियोजनाओं को चुनाव से जोड़कर भाजपा के प्रतिद्वंद्वी दलों को कोसने का हथियार बनाने का भला क्या तुक है? इन सवालों का जवाब केन्द्र और उत्तर प्रदेश की सरकारें नहीं तो भला और कौन देगा? कोई नहीं तो क्या हवाहवाई विकास की उनकी काठ की हांडी दोबारा चढ़ पायेगी? 

(कृष्ण प्रताप सिंह दैनिक अखबार जनमोर्चा के संपादक हैं।)

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