Thursday, March 28, 2024

फूलमणि! कौन सुनेगा तुम्हारी दलील और अपील

विवाह के बाद पति को अपनी बालिग़ पत्नी से ‘रेप’ करने का अधिकार तो सदा से है ही। क्या अब नाबालिग़ से ‘रेप’ के बाद, विवाह करके सज़ा से बचने का अधिकार भी (दोगे) मिलेगा? अदालतें अक्सर जमानत देने या सज़ा कम करते समय, बलात्कार के आरोपी से पूछती हैं- क्या तुम पीड़िता से विवाह करने को राज़ी हो? इस सुलगते सवाल का अर्थ तो समझना ही पड़ेगा।

फूलमणि नाम था उस लड़की का और उम्र  थी सिर्फ दस साल। उम्र तो गुड्डों-गुड़ियों संग खेलने और स्कूल में पढ़ने-लिखने की थी। मगर दस साल की होते ही, फूलमणि के हाथ पीले कर दिए गए। उन दिनों दस साल की लड़की की शादी, कोई अनहोनी बात नहीं थी। हिन्दू धर्मशास्त्र, परम्परा और रीति-रिवाज़ यानी सब लड़की के रजस्वला होने से पहले ही, ‘कन्यादान’ के पक्ष में थे।

कानून दस साल की लड़की को विवाह योग्य भी मानता था और सहमति से सहवास योग्य भी। सो किसी को भी कोई बाधा या अड़चन की आशंका तक नहीं थी। दूल्हे हरि मोहन मिठी की उम्र थी तीस साल। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में ऐसी बेमेल शादियाँ होना आम बात तब थी।

‘सप्तपदी’ होने के बाद सुहागरात को फूलमणि की माँ ने चीखों और सिसकियों में कई बार सुना ‘बाप रे’, ‘मर गई रे’। फूलमणि की मां इन चीखों को सुन कर डर गईं और जब उसने कमरे में जा कर देखा तो कमरे में चारों तरफ खून-ही-खून था। फर्श के एक तरफ फूलमणि की लाश पड़ी थी। उसके पति हरि मोहन से जब उसने पूछा तो वो गूंगा बन चुका था।

पुलिस जाँच-पड़ताल और ‘पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट’ आने के बाद मामला कोर्ट-कचहरी तक पहुँचा। चश्मदीद गवाहों की गवाही, डॉक्टरों के बयान और अभियुक्त हरि का पक्ष सुनने के बाद सरकारी वकील और बचाव पक्ष की बहस शुरू हुई। उन दिनों ‘जूरी सिस्टम’ से फैसले होते थे। ‘जूरी’ में समाज के विभन्न वर्गों के सम्मानित व्यक्ति शामिल किए जाते थे। न्यायाधीश ‘जूरी’ को तथ्यों और कानून से अवगत करता और बहुमत के आधार पर फैसला सुनाया जाता था। इस केस में भी वैसा ही हुआ।

कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश विल्सन ने ‘जूरी’ के सामने सब तथ्य, गवाहियाँ, रिपोर्ट और कानूनी स्थिति स्पष्ट की और अपनी राय भी सामने रखी। न्यायाधीश विल्सन ने बताया कि इस केस में हत्या का इरादा, संबंधी कोई सबूत नहीं है। दस वर्ष से बड़ी उम्र की पत्नी से सहवास करना, कोई अपराध नहीं है। इसे ‘बलात्कार’ नहीं माना जा सकता, क्योंकि दोनों पति-पत्नी हैं।

न्यायाधीश विल्सन ने कहा, “हालाँकि पति को अपनी पत्नी से सहवास का कानूनन अधिकार है और यह कोई अपराध नहीं, लेकिन पति को कुछ भी ऐसा करने की छूट नहीं है, जिससे पत्नी की जान का ख़तरा हो या गंभीर चोट पहुँचने की संभावना हो। पत्नी अपने पति की संपत्ति या कोई वस्तु नहीं है, जिसका मनमाना उपयोग और दुरुपयोग किया जा सके। यह जानते हुए कि खतरनाक और लापरवाही से किये गए कार्य से मृत्यु हो सकती है या गहरी चोट लग सकती है-आपराधिक कृत्य है। हो सकता है। भले ही आपने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया या आपका ऐसा करने की कोई नीयत भी नहीं थी।”

बचाव पक्ष के वकील का तर्क है कि हरि मोहन ने शादी से पहले भी कई बार फूलमणि से सहवास किया था और कभी भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। डॉक्टरों ने इस पर कहा कि यह बताना बेहद कठिन काम है कि दोनों ने शादी से पहले भी सहवास किया था। हाँ! यह संभव है कि पहले इतना जोशपूर्वक ना किया हो। और भी कारण हो सकते हैं।

न्यायाधीश विल्सन ने ‘जूरी’ को आगाह किया कि वे अपने विवेक से फैसला लें और दोनों की उम्र, डीलडौल, सेहत और अन्य स्थितियों को भी ध्यान में रखें। फूलमणि अभी रजस्वला नहीं हुई थी। शारीरिक रूप से गर्भाशय आदि भी पूर्णरूप से विकसित नहीं हुए हैं। हालांकि स्तन थोड़े बढ़े हुए हैं,  लेकिन कुल मिला कर वह एक दुबली-पतली लड़की ही थी। अभियुक्त पूर्णरूप से विकसित पुरुष है। लगता है कि उसने सहवास के समय कोई सावधानी नहीं बरती और बेहद लापरवाही से आगे बढ़ता गया। परिणामस्वरूप भीतर-बाहर इतनी गंभीर चोटें आई कि फूलमणि खून में नहा गई।

अभियुक्त पर चार संगीन आरोप हैं। गैर-इरादतन हत्या, जानबूझ कर ख़तरनाक और लापरवाही से गंभीर चोट पहुंचाना जिससे मृत्यु तक संभव हो, लापरवाही में गंभीर रूप से क्षति पहुंचाना और गंभीर चोट पहुँचाना।

‘जूरी’ ने हरि मोहन को सिर्फ गंभीर चोट पहुँचाने का दोषी पाया और एक साल कारावास की सज़ा सुनाई।

उल्लेखनीय है कि फूलमणि केस के बाद, देश भर में ‘बाल विवाह’ की कुरीतियों और भयावह परिणामों पर बहस तेज़ हो गई। 40 नर्सों ने मिलकर एक ज्ञापन सरकार को दिया, जिसमें साक्ष्य सहित बताया गया कि कैसे सैंकड़ों कम उम्र की लड़कियाँ सहवास के दौरान मर जाती हैं या गंभीर रूप से शारीरिक यातना झेलती हैं।

सरकार ने सहमति की उम्र पर आयोग गठित किया। 1891 में रिपोर्ट आने के बाद, सहमति से सहवास और विवाह की उम्र (लड़कियों के लिए) दस साल से बढ़ा कर बारह साल कर दी। पति-पत्नी के बीच वैवाहिक संबंधों को ‘बलात्कार’ की परिभाषा से बाहर ही रखा गया।

कट्टर रूढ़िवादी हिंदू नेताओं ने इसे ब्रिटिश सरकार द्वारा, हिन्दू संस्कृति में हस्ताक्षेप और ईसाई षड़यंत्र कह कर भारी विरोध किया। क्रांतिकारी नेता बाल गंगाधर तिलक तक ने कहा कि यह हिन्दू परंपरा के ख़िलाफ़ है, क्योंकि धर्मशास्त्रों के अनुसार विवाह रजस्वला होने से पहले होना चाहिए।

1925 में सहमति से सहवास की उम्र बारह साल से बढ़ा कर चौदह साल की गई। दो साल बाद (1927) में बाल विवाह रोकने या कम करने के लिए विद्वान् विधिवेता हरबिलास सारदा ने केन्द्रीय असेंबली में प्रस्ताव पेश किया, जो 18 सितम्बर, 1929 को पंडित मदन मोहन मालवीय के विरोध और काफी बहस के बाद पास हो पाया। इस प्रस्ताव के विरोध में (1929) पंडित मदन मोहन मालवीय, लगभग दो घंटे से अधिक बोले। सदन को हिन्दू समाज की परंपरा, संस्कृति, रीति-रिवाज के अलावा, दुनिया भर के देशों में विवाह की उम्र के प्रमाण/आँकड़े बताए। बहस करते रहे कि लड़की की विवाह योग्य उम्र 12 से बढ़ा कर 14 साल करना, हिन्दू समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा। पंडित जी ने विद्वतापूर्ण भाषण दिया, मगर सदन में बैठे अधिकांश सदस्यों ने उनकी एक न मानी। संशोधन के सुझाव भारी मतों से गिर गए।

इस अधिनियम को 1 अप्रैल,1930 से लागू किया गया, जिसे ‘सारदा एक्ट’ के नाम से जाना जाता है। शादी के समय दुल्हन की उम्र 14 साल और दुल्हे की उम्र 18 साल निर्धारित की गई। इसमें इतने कानूनी लूपहोल (छेद) थे कि अंततः कानून ‘अर्थहीन’ सिद्ध हुआ। बाल विवाह दंडनीय अपराध घोषित किया गया, मगर विवाह को ‘वैध’ बनाये रखा। हाँ! लड़की को यह अधिकार अवश्य दिया गया कि वह चाहे तो पंद्रह साल कि होने के बाद और अठारह साल की होने से पहले, विवाह को अदालत में याचिका दायर कर रद्द करवा सकती है।

देश आज़ाद होने के बाद, 1949 में बलात्कार कानून में फिर संशोधन द्वारा सहमति से सहवास की उम्र बढ़ा कर 16 साल की गई। बाल विवाह कानून में शादी के समय दुल्हन कि उम्र (14 साल की जगह) 15 साल कर दी गई थी, लेकिन यह अपवाद बना रहा कि पंद्रह साल से बड़ी उम्र की पत्नी से संभोग को बलात्कार नहीं माना-समझा जाएगा। पत्नी कि उम्र बारह साल से अधिक और पंद्रह साल से कम होने कि स्थिति में, पति को सज़ा में ‘विशेष छूट’ प्रदान की गई। न्यूनतम सात साल के बजाए, सिर्फ दो साल कैद या जुर्माना या दोनों। यानी पति के लिए अपराध असंगेय और जमानत योग्य। यही नहीं, यह भी व्यवस्था की गई है कि ‘वैवाहिक बलात्कार’ के मामले में पुलिस कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं कर सकती और पत्नी द्वारा ‘शिकायत’ करने पर कोई भी अदालत ‘संज्ञान’ ही नहीं ले सकती।

1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम पारित हुआ तो शादी के समय दुल्हन कि उम्र 15 साल और दुल्हे की उम्र 18 साल निर्धारित की गई। विवाह कानून में पहले से ही लड़की की विवाह योग्य उम्र 15 साल और लड़के की उम्र 18 साल तय की गई थी, लेकिन दूल्हा-दुल्हन की उम्र निर्धारित उम्र से कम होने की स्थिति में भी, ऐसे बाल विवाह को न तो ‘अवैध’ घोषित किया गया और न ‘अवैध होने योग्य’। सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में स्पष्ट कहा कि अगर विवाह ‘अवैध’ या ‘अवैध होने योग्य’ नहीं है, तो उसे वैध माना–समझा जायेगा। सुप्रीम कोर्ट का कहा हर शब्द ‘कानून’ है, सो सभी अदालतों के लिए मानना अनिवार्य है।  

एक साल बाद हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 (सी) में आज भी यह हास्यास्पद प्रावधान मौजूद है कि ‘विवाहित नाबालिग लड़की का संरक्षक उसका पति होता है’ भले ही पति और पत्नी दोनों ही नाबालिग हों। 

1978 में जनता पार्टी की सरकार ने हिन्दू विवाह कानून और बाल विवाह कानून में संशोधन करके दुल्हन कि उम्र 15 साल से बढ़ा कर 18 साल और दुल्हे की उम्र 18 साल से बढ़ा कर 21 साल कर दी, मगर दूसरे संबंधित कानूनों में कोई बदलाव नहीं किया गया।

यहाँ से कानून की ‘कॉमेडी’ (1978-2012) शुरू होती है- विवाह के लिए लड़की की उम्र 18 साल होनी चाहिए, मगर सहमति से संभोग के लिए 16 साल काफी हैं और पति को 15 साल से बड़ी उम्र कि पत्नी से ‘बलात्कार’ का कानूनी लाइसेंस है ही। बाल विवाह हर हालत में वैध माना-समझा जायेगा। पत्नी की न कोई दलील सुनेगा न अपील।

2006 में नया बाल विवाह कानून बनाया गया, लेकिन यहाँ भी कुछ विशेष स्थितियों (अपहरण आदि) को छोड़ कर, विवाह वैध माना जायेगा। दिल्ली हाई कोर्ट की पूर्णपीठ का फैसला पढ़ लें। (इस लेख का लेखक भी, इस मामले में चार साल बहस करता रहा।) लड़का-लड़की दोनों को बालिग़ होने पर, अदालत से विवाह निरस्त करने का अधिकार दे दिया गया है। इस बीच ‘अवैध’ विवाह से हुई संतान, ‘वैध’ मानी जाएगी। 18 साल से बड़ा लड़का अगर नाबालिग लड़की से शादी करे, तो सज़ा और जुर्माना होगा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अनुसार अगर कोई नाबालिग लड़का, बालिग या नाबालिग लड़की से शादी करे तो कोई अपराध नहीं, सो कोई सज़ा भी नहीं। यानी नाबालिग लड़के-लड़कियों को विवाह की खुली छूट!

यौन अपराधों से 18 साल से कम उम्र के बच्चों (लड़के-लड़की) की सुरक्षा के लिए, अलग से कानून और नियम बनाये गए, जो 19 जून, 2012 से लागू हैं। हालाँकि बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए आयोग 2005 में ही बना दिया गया था, जो 20 जनवरी, 2006 से अस्तित्व में आया। इस कानून को बने छह महीने भी नहीं बीते थे कि ‘निर्भया बलात्कार काण्ड’ (16 दिसम्बर, 2012) की ख़बर आ गई। निर्भया केस के बाद, देश भर में उग्र आन्दोलन हुए। अध्यादेश जारी हुआ और न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की रिपोर्ट भी आई। ‘फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट’ बनाई गई और अंतत: अपराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 (‘संशोधन 2013’) 3 फरवरी, 2013  से लागू माना जाता है।

इसमें बलात्कार को अब ‘यौन हिंसा’ माना गया है और सहमति से संभोग की उम्र 16 साल से बढ़ा कर 18 साल कर दी गई। लेकिन धारा 375 के अपवाद में पत्नी की उम्र 15 साल ही है। संशोधन से पहले पति को अपनी पत्नी के साथ जहाँ सिर्फ संभोग कि ही छूट थी, संशोधन के बाद ‘अन्य यौन क्रीडाओं’ (किसी भी तरह की यौन क्रीड़ा) की भी छूट दे दी गई।

यानी पूर्ण यौन स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई। हां! 15 साल से कम उम्र की पत्नी से बलात्कार के मामले में, अब सज़ा में कोई ‘विशेष छूट’ नहीं मिलेगी। ‘संशोधन 2013’ पारित करते समय, सरकार ने ‘वैवाहिक बलात्कार’ संबंधी न तो विधि आयोग की 205वीं रिपोर्ट की सिफारिश को माना और न ही वर्मा आयोग के सुझाव। भारतीय विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए।

शुक्र है कि चार साल बाद (अक्टूबर 2017) सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता ने अपने 127 पृष्ठों के निर्णय में कहा कि पन्द्रह से अठारह साल के बीच की उम्र की पत्नी से यौन संबंध को बलात्कार का अपराध माना जाएगा, लेकिन माननीय न्यायमूर्तियों ने अठारह साल से बड़ी उम्र की पत्नी के बारे में चुप्पी साध ली। सो बालिग़ विवाहिता अभी भी पति के लिए घरेलू ‘यौन दासी’ बनी हुई है और संशोधन होने तक बनी रहेगी। कोई नहीं कह सकता कि वैवाहिक बलात्कार से पति को कानूनी छूट पर विचार विमर्श कब शुरू होगा?

फूलमणि की मृत्यु (हत्या) के बाद पिछले 130 सालों में बहुत से कानून बने, संशोधन हुए, न्याय का नजरिया बदला, नई भाषा-परिभाषा गढ़ी गई और ‘स्त्री सशक्तिकरण’ के तमाम प्रयासों के बावजूद, आज तक न बाल-विवाह की वैधता पर कोई आँच आई और न विवाह संस्था में पति द्वारा पत्नी से बलात्कार करने का ‘कानूनी लाइसेंस’ रद्द हुआ।

कह सकते हैं कि मर्ज़ बढ़ता ही गया, ज्यूँ-ज्यूँ दवा की। अर्थ, धर्म, सत्ता, न्यायपालिका और व्यवस्था पर, पूर्ण पुरुष वर्चस्व बना-बचा रहा। उत्पीड़न के विरुद्ध महिलाओं का जितना विरोध-प्रतिरोध बढ़ा, उतना ही दमन भी बढ़ता गया। परिणाम स्वरूप स्त्रियाँ इंसाफ और समान अधिकारों के लिए, अभी भी संघर्ष कर रही हैं। निस्संदेह समानता कि यह लड़ाई लम्बी ही नहीं, बेहद पेचीदा और जटिल भी है।

(अरविंद जैन सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं। और महिला सवालों पर लिखते रहते हैं।)

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