Thursday, March 28, 2024

राज ठाकरे का वैसा ही इस्तेमाल हो रहा है जैसा कभी बाल ठाकरे का हुआ था!

भारत की राजनीति में यह महारत भारतीय जनता पार्टी को ही हासिल है कि वह जिस राज्य में जब चाहे, वहां की किसी भी स्थानीय पार्टी या नेता का राजनीतिक इस्तेमाल कर सकती है। जैसे बिहार विधानसभा के चुनाव में चिराग पासवान और उनकी लोक जनशक्ति पार्टी का किया था। चिराग की वजह से ही बिहार में नीतीश कुमार का जनता दल (यू) तीसरे नंबर पर पहुंच गया। भाजपा अब वहां सबसे बड़ी पार्टी हो गई है और अपना मुख्यमंत्री बनाने का सपना देख रही है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में हाल के विधानसभा चुनाव में उसने मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी का इस्तेमाल किया। विभिन्न राज्यों में असदुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी का इस्तेमाल करने का आरोप तो भाजपा पर लगता ही रहता है। फिलहाल वह महाराष्ट्र में राज ठाकरे का इस्तेमाल कर रही है।

लगभग डेढ़ दशक से राजनीतिक तौर पर हाशिए पर पड़े महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे पिछले कुछ दिनों से फिर मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे हैं। ढाई साल पहले शिव सेना और भाजपा का तीन दशक पुराना गठबंधन टूटने के बाद से ही भाजपा के नेता राज ठाकरे को अपने साथ लाने की कोशिश में लगे थे, जिसमें अब उन्हें कामयाबी मिल गई है।

दरअसल शिव सेना और उसकी अगुवाई में चल रही महाविकास अघाड़ी की सरकार के खिलाफ भाजपा राज ठाकरे का वैसा ही इस्तेमाल कर रही है, जैसा 1960 के दशक में कांग्रेस ने बाल ठाकरे और उनकी शिव सेना का इस्तेमाल समाजवादी मजदूर नेता जॉर्ज फर्नांडीज के खिलाफ किया था। यानी महाराष्ट्र की राजनीति में इतिहास को दोहराए जाने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन इस इतिहास में भाजपा के लिए सबक भी है।

भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस शिव सेना को कांग्रेस ने अपने औजार की तरह इस्तेमाल किया था, वही औजार बाद में बूमरैंग होकर उसके लिए ही चुनौती बन गया। जिस कांग्रेस का महाराष्ट्र के हर इलाके में जनाधार था, वह धीरे-धीरे इतना सिकुड़ गया कि आज शिवसेना सरकार का नेतृत्व कर रही है और कांग्रेस उस सरकार में जूनियर पार्टनर के तौर पर शामिल है।

बाल ठाकरे ने शिव सेना की स्थापना 1960 के दशक के मध्य में की थी। यह वह दौर था जब फायरब्रांड जॉर्ज फर्नांडीज को मुंबई का बेताज बादशाह माना जाता था। वे महानगर की तमाम छोटी-बड़ी ट्रेड यूनियनों के नेता हुआ करते थे और उनके एक आह्वान पर पूरा महानगर बंद हो जाता था, थम जाता था। उसी दौर में 1967 के लोकसभा चुनाव में 35 वर्षीय जॉर्ज ने मुंबई में कांग्रेस के अजेय माने जाने वाले दिग्गज नेता एसके पाटिल को हराकर उनकी राजनीतिक पारी समाप्त कर दी थी।

चूंकि मुंबई तब भी देश की आर्थिक राजधानी और महाराष्ट्र एक औद्योगिक राज्य था और पूरे राज्य में समाजवादी तथा वामपंथी मजदूर संगठन बहुत मजबूत हुआ करते थे। औद्योगिक राज्य होने की वजह से सरकार को नियमित रूप से मजदूर संगठनों से जूझना होता था।

जिस समय बाल ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना की उस वक्त महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक हुआ करते थे और बाल ठाकरे से उनकी काफी नजदीकी थी। कहा जाता है कि मुंबई के कामगार वर्ग में जॉर्ज के दबदबे को तोड़ने के लिए वसंत राव नाईक ने शिव सेना को खाद-पानी देते हुए बाल ठाकरे का भरपूर इस्तेमाल किया। इसी वजह से उस दौर में शिव सेना को कई लोग मजाक में ‘वसंत सेना’ भी कहा करते थे।

आपातकाल के बाद जॉर्ज जब पूरी तरह राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गए तो उन्होंने मुंबई में समय देना कम कर दिया। उसी दौर में मुंबई में मजदूर नेता के तौर दत्ता सामंत का उदय हुआ। वे भी टेक्सटाइल मिलों में हड़ताल और मजदूरों के प्रदर्शन के जरिए जब महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार के लिए सिरदर्द बनने लगे तो कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने उनका भी ‘इलाज’ बाल ठाकरे की मदद से ही किया था।

ऐसा नहीं कि सिर्फ बाल ठाकरे ही कांग्रेस की मदद करते थे। वे भी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से बाकायदा अपनी मदद की राजनीतिक कीमत वसूल करते थे। यह कीमत होती थी विधानसभा और विधान परिषद में अपने उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित कराने के रूप में और इससे इतर दूसरे स्तरों पर भी। उस पूरे दौर में बाल ठाकरे पर उनके भड़काऊ बयानों और भाषणों को लेकर कई मुकदमे भी दर्ज हुए, लेकिन पुलिस उन्हें कभी छू भी नहीं पाई। ऐसा सिर्फ कांग्रेस से उनके दोस्ताना रिश्तों के चलते ही हुआ। 1980 के दशक के अंत में भाजपा के साथ गठबंधन होने से पहले तक शिवसेना और कांग्रेस के दोस्ताना रिश्ते जारी रहे।

बहरहाल महाराष्ट्र में करीब साढ़े पांच दशक पुराना इतिहास दोहराया जा रहा है। शिव सेना को घेरने के लिए भाजपा राज ठाकरे के जरिए कट्टर हिंदुत्व के मुद्दे को तूल दे रही है। भाजपा और राज ठाकरे दोनों को मालूम है कि शिव सेना हिंदुत्व की चाहे जितनी बात करे लेकिन हकीकत यह है कि कांग्रेस और एनसीपी यानी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ रहने से उसका हिंदुत्व का एजेंडा कमजोर हुआ है।

भाजपा इस बात को खूब जोर-शोर से उछाल भी रही है कि कांग्रेस और एनसीपी के साथ सत्ता में आने के बाद शिव सेना ने हिंदुत्व की अपनी पारंपरिक राजनीति को छोड़ दिया है। इस मुद्दे को लेकर राज ठाकरे ने भी उद्धव ठाकरे और उनकी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है। वे अजान बनाम हनुमान चालीसा के मुद्दे को हवा देते हुए रैलियां कर रहे हैं। उनकी इन रैलियों के आयोजन में भाजपा पूरी तरह मदद कर रही है।

बीते रविवार को राज ठाकरे की औरंगाबाद में रैली थी। इस रैली के लिए भाजपा के लिए ढिंढोरची की भूमिका निभाने वाले तमाम टीवी चैनलों ने पूरे दिन भर माहौल बनाया। फिर देर शाम जब उनकी रैली शुरू हुई तो सभी चैनलों ने उसका सीधा प्रसारण कर उसे मेगा इवेंट का रूप दिया। यही नहीं, राज ठाकरे के मराठी में दिए गए भाषण का रियल टाइम हिंदी में अनुवाद भी सुनाया गया। ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि राज ठाकरे महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने वाले थे या किसी बड़े आंदोलन का ऐलान करने वाले थे।

ऐसा इसलिए हुआ कि वे यह ऐलान करने वाले थे कि अगर तीन मई तक मस्जिदों पर से लाउड स्पीकर नहीं उतारे गए तो अजान के समय दोगुनी ऊंची आवाज में हनुमान चालीसा का पाठ किया जाएगा। यानी इतनी सी बात देश भर को सुनाने याकि देश भर में इस मुद्दे पर उत्तेजना का माहौल बनाने के लिए दिन भर उनकी रैली का प्रचार किया और एक विधायक वाली पार्टी के नेता का भाषण लाइव दिखाया गया।

सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ कि भाजपा ऐसा चाहती थी। राज ठाकरे की रैली भाजपा के एजेंडा के हिसाब से प्लान की गई थी। जिस तरह अण्णा हजारे के आंदोलन में भीड़ और अन्य संसाधनों का इंतजाम आरएसएस-भाजपा की ओर से किया जाता था, उसी तरह राज ठाकरे की रैली में भी भीड़ जुटाने का इंतजाम भाजपा की ओर से किया गया। भाजपा ने ही अपने ढिंढोरची टीवी चैनलों से रैली का सीधा प्रसारण कराया। मकसद साफ था कि अजान बनाम हनुमान चालीसा का मुद्दा देश भर में चर्चा में बना रहे, महाराष्ट्र की राजनीति में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तेज हो और कांग्रेस व एनसीपी से गठबंधन होने के कारण शिव सेना बैकफुट पर रहे। इस स्थिति से राज ठाकरे के लिए सूबे की राजनीति में कोई जगह बने या न बने, मगर भाजपा को फायदा होना ही है।

वैसे राज ठाकरे को फिलहाल माथे पर बैठाए घूम रही भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि राज ठाकरे ने शिव सेना से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई है और शिव सेना का विरोध ही उनकी राजनीति का मूल आधार है। जब तक शिव सेना का भाजपा के साथ गठबंधन रहा, तब तक भाजपा भी राज ठाकरे के निशाने पर रही थी।

भाजपा नेता भले ही भूल जाएं लेकिन लोग नहीं भूल सकते कि 2019 के लोकसभा चुनाव तक राज ठाकरे भाजपा के मुखर विरोधी थे उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में सभाएं करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पुराने भाषणों के वीडियो दिखा-दिखाकर उन पर तीखे हमले किए थे। आज शिव सेना कांग्रेस और एनसीपी के साथ है तो भाजपा ने राज ठाकरे को अपनी आंखों का तारा बना रखा है। अगर कल को शिव सेना फिर से भाजपा के साथ आ जाती है तो राज ठाकरे के लिए भाजपा फिर वैसी ही दुश्मन हो जाएगी, जैसी 2019 के लोकसभा और महाराष्ट्र विधासभा के चुनाव तक थी।

राज ठाकरे ने 2006 में शिव सेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) का गठन बिल्कुल शिव सेना की तर्ज पर ही किया था। शुरुआती दौर में उनके कार्यकर्ताओं ने ‘मराठी मानुष’ के नाम पर उग्र तेवर अपनाते हुए महाराष्ट्र में कई जगहों पर उत्तर भारतीयों पर हिंसक हमले किए थे। अपने चाचा बाल ठाकरे के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए शुरू की गई इस राजनीति का राज ठाकरे को 2009 के विधानसभा चुनाव में फायदा भी हुआ। उनकी पार्टी 13 सीटें जीतने में सफल रही, जबकि कई सीटों पर उसने शिव सेना को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिसके चलते कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हो गया।

लेकिन 2014 का चुनाव आते-आते राज ठाकरे के रुतबे में गिरावट आ गई और उनकी पार्टी सिर्फ एक ही सीट जीत सकी। 2019 के चुनाव में भी उनकी यही स्थिति रही। लेकिन अब पिछले कुछ दिनों से उन्होंने सक्रिय होते हुए आक्रामक हिंदुत्ववादी तेवरों के साथ उद्धव ठाकरे और उनकी सरकार को चुनौती देना शुरू कर दिया है। अब वे पहले की तरह मराठी अस्मिता या मराठी मानुष की बात नहीं कर रहे हैं। कहा जा सकता है कि वे यहां भी अपने चाचा बाल ठाकरे के रास्ते पर चल रहे हैं। बाल ठाकरे ने भी मराठी मानुष को केंद्र में रख कर अपनी राजनीति की शुरुआत की थी और फिर बाद में हिंदुत्व को अपना लिया था।

फिलहाल राज ठाकरे अपने नए राजनीतिक एजेंडा के तहत मस्जिदों के बाहर लाउड स्पीकर लगा कर हनुमान चालीसा का पाठ करने के अभियान में जुटेंगे और 5 जून को अयोध्या जाएंगे, जहां वे रामलला के दर्शन करेंगे और लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात करेंगे। अब तक उद्धव ठाकरे अयोध्या जाते थे और 30 साल पहले हुए बाबरी मस्जिद के विध्वंस में शिव सैनिकों की भूमिका का श्रेय लेते थे।

लेकिन अब यही श्रेय राज ठाकरे लेने की कोशिश करेंगे, क्योंकि उस समय वे भी शिव सेना में ही थे और तब उनको बाल ठाकरे का स्वाभाविक राजनीतिक वारिस माना जाता था। अगर राज ठाकरे का भाजपा से आधिकारिक तौर पर तालमेल होता है तो इससे शिव सेना की परेशानी बढ़ेगी। वह कट्टर हिंदू वोट शिव सेना से छिटक सकता है, जो कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन की वजह से नाराज चल रहा है। देखने वाली बात होगी कि शिव सेना इस चुनौती से कैसे निबटती है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles