रणबीर की न्यूड तस्वीर पर आखिर इतना हंगामा क्यों है बरपा?

औरत पर तरह-तरह के मॉरल कोड लगाते-लगाते पुरुष कभी अपने प्रति भी काफी क्रूर हो जाता है। एक अनकहा डर उसे घेर लेता है और वह दूसरे पुरुष को भी उसकी मनमर्जी से रहने नहीं देता। ऐसे मामले गाहे-बेगाहे उठते ही रहे हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी पुरुष की नग्न या अर्ध नग्न तस्वीर सामने आई हो और हंगामा न मचा हो।

आज फिर एक ताजा सवाल हमारे सामने है जब फिल्म अभिनेता रनबीर सिंह एक ऐसी तस्वीर में नजर आए जहां वह पूरी तरह से नग्न हैं। तस्वीर के सामने आते ही देश में एक बार फिर बहस खड़ी हो गई। उन्हें ट्रोल किया जाने लगा, मॉरल पुलिसिंग करने वाले जामे से बाहर निकल आए। उनकी फोटो को एक कपड़े से भी ढंका गया। मामला ताजा लेकिन बहस पुरानी है।

आप थोड़ा जोर डालेंगे अपने जेहन पर तो फौरन याद आ जाएगा कि कब-कब आप ने पुरुष नग्नता पर पुरुष समाज का खून खौलते देखा है, जी जरूर देखा होगा।

आप को मॉडल और अभिनेता मिलिंद सोमेन की तकरीबन 15 साल पुरानी एक तस्वीर याद होगी जब उन्होंने नग्न शरीर पर सांप लपेट कर तस्वीर खिंचवाई थी और उसके वायरल होते ही जो बहसम-बहसा हुई मानो इस देश की संस्कृति लुट सी गई। देश की नाक ही कट गई। उसके बाद आप ने नील नितिन मुकेश की भी एक नग्न तस्वीर देखी होगी, ऐसी कई तस्वीरें आती रहीं लेकिन हाल के दौर की तीसरी बड़ी तस्वीर आई वो थी आमिर खान की। जिसमें वह एक रेडियो के सहारे से अपने प्राइवेट पार्ट को ढकते हुए न्यूड़ तस्वीर में सामने आए। उस तस्वीर ने तो काफी हंगामा मचाया था। बात आमिर खान की थी तो हंगामा थोड़ा ज्यादा ही हुआ था। नाराज आवाम कह रही थी कि सामाजिक सरोकारों से जुड़ा इंसान ऐसे कैसे कर सकता है। ये महज़ बानगी भर हैं।

यह मामला वैसे खालिस हिंदुस्तान तक महदूद नहीं है अनेकों देशों में ऐसा हो चुका है। एक बार मैंने शिकागो की एक आर्ट गैलरी में एक पुरुष की नग्न तस्वीर देखी, उस तरफ लोगों की एक दूसरी किस्म की तवज्जो देखी, फिक्र देखी, उसे लोग देखते और बिना कुछ प्रतिक्रिया दिए आगे बढ़ जाते, जबकि उसी आर्ट गैलरी में नग्न महिला की अनेकों तस्वीरें थीं, उसे लोग खीझते हुए नहीं रीझते हुए कला की बारीकियां तलाशते हुए निहार रहे थे। खुश हो रहे थे। कई एंगल से उसकी तस्वीरें अपने कैमरों में कैद कर रहे थे। दोनों तस्वीरों को देखने का नजरिया जुदा था।

इसी तरह न्यूयार्क की एक आर्ट गैलरी में भी हाल के वर्षों में एक नग्न पुरुष की तस्वीर पर तल्ख टिप्पणी ये आई कि इससे बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा। ऐसा ही एक मामला कई वर्षों पहले भी आया था जब आस्ट्रिया के वियना शहर में एक प्रदर्शनी के दौरान वहां के कलाकारों ने कुछ नग्न पुरुषों की तस्वीरें बनाई और उन्हें प्रदर्शनी में लगाया।

अब सवाल ये उठता है कि जब औरत की नग्न तस्वीर पर्दे पर दिखाई जाती है या उसकी तस्वीर शाया होती है तो देखने वाले कयामत की नजर रखते हैं और उसमें कला की बारीकियां तलाशते हैं, उस पर बहसें होती हैं, मुसव्विर कला की बारीकियों पर घंटों बातें करते हैं। उन पर कितनी रकम लुटा दी जाती है।

मध्यप्रदेश के खजुराहो के गुफाओं की कलाकृतियों को देखने के लिए लोगों का हुजूम पहुंचता है, उसमें आनंद ढूंढता है, लेकिन एक पुरुष की न्यूडिटी पुरुष समाज में ज्यादा खलबली क्यों मचा देती है। गैर बराबरी और पितृसत्ता को कोसने वाले और औरत की आजादी का दम भरने वाले पुरुष भी पुरुष की स्वतंत्रता या यूं कहूं कि उसके देह की स्वतन्त्रता से इतना परेशान क्यों हो जाता है? जब हम स्त्री देह की स्वतंत्रता की बात करते हैं तो फिर पुरुष देह की स्वतंत्रता क्यों नहीं?

ऐसा भी देखा जाता है कि महिला की नग्नता को केवल धर्म संस्कृति के तथाकथित रक्षक कहे जाने वाले वर्ग से ही विरोध मिलता है बाकी उसकी आजादी और च्वाइस का समर्थन ही करता है। लेकिन पुरुष नग्नता को पढ़ा लिखा मर्दाना समाज भी कबूल नहीं कर पाता। क्या पुरुष को अपने तन की सुंदरता को प्रकट करने का हक नहीं है? उस पर इतनी आपत्ति क्यों ? अगर स्त्री का जिस्म दिखाना कला है तो पुरुष का जिस्म दिखाना अश्लील कैसे हो गया?

इसके मूल में जाने पर हमें यह मिलता है कि औरत के जिस्म को घर, वैश्विक बाजार, विज्ञापनों के संसार, कला की दुनिया तक में उसे कलाकृति, आकर्षण, या कहें कि प्रोडक्ट जैसा ही बनाए रखा गया। जबकि मर्द के जिस्म को इस तरह से नहीं देखा गया।

आप देख सकते हैं कि एक रेजर से लेकर मर्दाना परफ्यूम, कांडोम और मर्दाना अंतः वस्त्र तक के विज्ञापन तब तक नहीं मुकम्मल होते जब तक उसमें एक नंगे बदन औरत न हो। इस सोच के पीछे का बड़ा सवाल ये है कि बाजार पर 90 फीसद कब्जा किसका है? कौन कारोबारी है? किसके हाथ में ज्यादातर नौकरियां है? पूंजी पर किसका कब्जा है? ज्यादा फैसले कौन लेता है? कौन पितृसत्ता को नियंत्रित करता है? बाजार में ज्यादा सर किसके नजर आते है? कौन औरतों की जिंदगियों पर नियंत्रण रखता है? औरत को घर से लेकर बाजार तक सिर्फ एक वस्तु के रूप में बनाए रखने में किसका हाथ है? सब का जवाब है पुरुष।

उसकी नजर अपना नजरिया भी साथ लाती है। उसी ने औरत को प्रोडक्ट बनाकर बेचा, जैसा चाहा वैसा बेचा, ये अलग बात है कि औरत उस चमक-धमक और नजरिए की गिरफ्त में आती चली गई। उसे अपनी कामयाबी समझने लगी। इस पर अलग से बहस भी हो सकती है। इसलिए इस बाजार में मर्द का जिस्म उतना बिकाऊ नहीं रहा, उसकी मार्केट वैल्यू इतनी नहीं रही। वो सत्ताधारी रहा है उसने जिस्म खरीदें हैं, बेचे नहीं हैं, लिहाजा उसे नंगे जिस्म मर्द नहीं भाते। कहीं उसके भीतर भी एक डर होगा कि कहीं मर्द का जिस्म भी इसी तरह बिकने लगा तो उसकी हैसियत भी उसी तरह कामॅडिटी न बन जाए। उनको देख कर वह बौखला जाता है।

हालांकि आज जिस्म बेचने वाले मर्दों का बाजार भी कई गुना बढ़ गया है। जिगोलो, मेल स्टीपर भी मैदान में उतर आए हैं। भारत में हर दिन 2000 लाख रुपये का देह व्यापार होता है उसमें जिगोलो की हिस्सा भी बढ़ता जा रहा है। एक अध्ययन बताता है कि दिल्ली में कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के एक रात का 1 से 3 हजार रूपया तक लेते हैं। दिल्ली में करीब 20 एजेंसियां है जो जिगोलो सप्लाई करती हैं।

हर क्षेत्र में महिलाओं की बराबरी कर रहे पुरुष कहीं इस क्षेत्र में भी तो बराबरी नहीं करना चाहते, एक विचार ये भी सामने आ ही जाता है क्योंकि सुंदर दिखने के लिए मर्द ब्यूटी पार्लर की अब छोटे बडे़ शहर में कमी नहीं रह गई।  

आज के तरक्कीपसंद दौर में जहां आज हर बात पर सोशल मीडिया पर क्रान्ति हो रही है, लगता है देश फौरन ही बदल जाएगा, वो चिंगारी नजर आती है लेकिन जैसे ही रनबीर की तस्वीर हमारे सामने से गुजरती है, सारा क्रांतिकारी नजरिया धरा का धरा रह जाता है।

रनबीर सिंह के इस कदम से कई सवाल पैदा होते हैं जो समाज में मर्दवादी मानसिकता के सामने एक नया डिसकोर्स खड़ा करते हैं। रनबीर का जेंडर स्टीरियोटाइप इमेज को तोड़ना इतना बुरा क्यों लगा समाज को? क्या हिंदुस्तानी लोगों ने कुएं के चबूतरे पर रूमाल बराबर कच्छी पहने नहाते हुए मर्दों को नहीं देखा? क्या हमने सड़कों पर पुरुषों को पेशाब करते नहीं देखा? बिना बनियान खाली एक छोटी वी कट अंडरवियर में घरों में टहलते मर्द को नहीं देखा? क्या खेत खलिहानों में शौच करते अर्धनग्न पुरुष नहीं देखे? क्या नागा साधुओं के आगे सिर झुकाते लोगों को नहीं देखा ? क्या जैन धर्म गुरुओं के लिंग को पूजते नहीं देखा? लेकिन वो पोस्टर में आ गया तो अश्लीलता है!

जेंड़र न्यूट्रैलिटी, फेमिनिज़्म, जेंडर फ्लूइड़िटी, मेल ऑब्जेक्टीफिकेशन जैसे लफ्जों का इस्तेमाल करना तो आसान होता है पर जिंदगी में उसे उतारना कठिन होता है। ये दोहरापन है, जुबानी क्रान्ति है, आखिर हमने ऐसा क्या नया देख लिया? जो हमने आज तक नहीं देखा, क्यों घबरा गया समाज? लोग इसे कल्चरल शॉक क्यों मान रहे हैं? तौबा-तौबा क्यों कर रहे हैं? जमाने को क्यों कोस रहे हैं? उसे उसकी मर्जी पर क्यों न छोड़ दिया जाए। इसे और बातों के साथ ही स्टीरियोटाइप तोड़ना ही मान लीजिए बस।

फीमेल न्यूडिटी पर चुप्पी एक अनकही स्वीकृति है, आनंद है, जिस पर कभी बेबाक होकर मल्लिका शेरावत ने एक पत्रकार के सवाल का जवाब देते हुए कहा था कि सामने चाहे जितना कल्चर की पहरेदारी कर लो लेकिन नींद तो मेरे वीडियो देख कर ही आती होगी! अवाक रह गए थे सवाल पूछने वाले। वक्त आ गया है कि अब हमें इस सब से ऊपर उठ कर दुनिया को देखना होगा और औरतों के साथ मर्द की भी मॉरल पुलिसिंग करना बंद करना होगा।

(नाइश हसन लेखिका और पत्रकार हैं। आप आजकल लखनऊ में रहती हैं।)

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