Saturday, April 27, 2024

कश्मीर वार्ता की आड़ में परवान चढ़ेगा संघ का एजेंडा

चौबीस जून को जम्मू-कश्मीर के नेताओं के साथ हुई बातचीत से अगर सबसे ज़्यादा कोई खुश होगा तो वह हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। उन्हें वह सब कुछ मिल गया जो वे चाहते रहे होंगे। उन्हें एक ऐसा मेगा इवेंट मिल गया था, जिस पर देश ही नहीं, दुनिया भर की निगाहें लगी थीं और जो टीवी चैनलों तथा अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनने वाला था। 

इवेंट भी शानदार ढंग से संपन्न हो गया। सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में बातचीत, सभी नेताओं के साथ ग्रुप फोटो और इवेंट के बाद मोटे तौर पर अच्छी-अच्छी प्रतिक्रियाएं भी। भारतीय मीडिया गदगद था, कोई भी वार्ता के संबंध में कोई सवाल या संदेह खड़ा करने के मूड में नहीं था। 

फिर कोरोना महामारी से निपटने में असाधारण असफलताओं और विश्व स्तर पर छीछालेदर के बाद ये सुकून देने वाली घटना थी। कुछ समय के लिए लोगों का ध्यान बँटाने में ये सफल रही। इसे एक बड़ी पहल और उपलब्धि के तौर पर भी प्रस्तुत किया जा सकता है, चुनाव में तो इसका इस्तेमाल किया जाना तय ही है। सबसे अच्छी बात तो ये रही कि सब कुछ वैसे ही हुआ जैसा प्रधानमंत्री और उनके सलाहकारों ने सोचा होगा। कश्मीर के उन नेताओं को वार्ता में हिस्सा लेने आना ही था। वे अगर इनकार करते तो सरकार और संघ परिवार उन्हें अलगाववादी एवं पाकिस्तानपरस्त घोषित कर देते। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में उन्हें खलनायक की तरह पेश किया जाता, कहा जाता कि वे बातचीत से समस्या का समाधान ढूँढ़ने में दिलचस्पी नहीं रखते। 

धारा 370 पर चुप्पी

कश्मीरी नेताओं को ये भी पता ही था कि वे धारा 370 वगैरह की बात तो कर सकते हैं, मगर उसका कुछ होना-जाना नहीं है, क्योंकि ये सरकार पीछे नहीं हटने वाली, बल्कि उसके इरादे तो अभी कश्मीर में अपने एजेंडे के हिसाब से और भी बदलाव करने के हैं। इसीलिए वे रक्षात्मक मुद्रा में थे। कहने वाले कह सकते हैं कि सरकार उन लोगों से बात करने को मजबूर हो गई जिन्हें उसने गुपकार गैंग कहकर गालियाँ दी थीं। मगर ये एक मुग़ालता है जो किसी को नहीं पालना चाहिए। 

सरकार ने बस मुखौटा बदला है। वह कुछ समय के लिए लोकतांत्रिक और उदार दिखना चाहती है। प्रधानमंत्री के इस जुमले को कि वे दिलों और दिल्ली की दूरी को ख़त्म करना चाहते हैं, उनके पुराने जुमलों की पृष्ठभूमि के साथ ही देखा जाना चाहिए।

जुमलों की भरमार 

वास्तव में कश्मीरी नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातचीत से किसी तरह की खुशफ़हमी पालना खुद को धोखा देना होगा। हमें शांति, संवाद, समाधान जैसे चालू मुहावरों से निकलकर देखना होगा और ‘स्काई इज़ द लिमिट’ या ‘जम्हूरियत, कश्मीरियत तथा इंसानियत’ वाले जुमलों में फँसने से भी बचना होगा। 

परिसीमन पर जोर क्यों?

सच्चाई ये है कि मोदी सरकार वार्ताओं की आड़ में अपना एजेंडा ही आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है। बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि वे पहले परिसीमन चाहते हैं। इसके बाद चुनाव और फिर पूर्ण राज्य के दर्ज़े के बारे में सोचा जाएगा। सवाल उठता है कि परिसीमन पर उनका ज़ोर क्यों है क्या इसलिए नहीं कि इससे जम्मू की सात सीटें बढ़ जाएंगी और तब बीजेपी के लिए राज्य में अपनी सरकार बनाना थोड़ा और आसान हो जाएगा?

प्रधानमंत्री ने ये भी साफ कर दिया है कि वे फ़िलहाल पूर्ण राज्य का दर्ज़ा भी देने नहीं जा रहे हैं। अपनी प्रतिबद्धता ज़रूर उन्होंने ज़ाहिर की है मगर उसके लिए कोई समय सीमा तो बताई नहीं है, लिहाज़ा उसे वे अपनी राजनीतिक सुविधा के हिसाब से आगे बढ़ा सकते हैं। उन्होंने इसे सौदेबाज़ी के एक अस्त्र के तौर पर भी बचाकर रखा है।

आगे नहीं बढ़े मोदी?

ग़ौर से देखा जाए तो प्रधानमंत्री मेल-मिलाप के लिए एक क़दम भी आगे नहीं बढ़े हैं। अगर बातचीत को एक क़दम माना जा रहा है तो ये नासमझी होगी, क्योंकि ये उसी तरह की वार्ता थी जो उनकी सरकार किसानों के साथ करती रही है। यानी बातचीत के लिए बातचीत, ताकि सरकार पर आरोप न लगे कि वह अड़ियल है, बात भी नहीं करना चाहती।  

ये मान लेना एक बड़ी भूल होगी कि धारा 370 हटाने और 35 ए को निरस्त करने से मोदी सरकार और संघ परिवार का एजेंडा पूरा हो गया है और अब सरकार मेल-मिलाप की राह पर चलेगी। वास्तव में अब वह कश्मीर को लेकर अपने हिंदुत्ववादी एजेंडे का अगला हिस्सा लागू करने की दिशा में बढ़ रहे हैं।

संघ के कश्मीर एजेंडे में अगला क़दम है राज्य को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में लेना और वहाँ की आबादी में इस तरह से फ़ेरबदल करना ताकि मुसलमानों का बहुमत न रहे और उनके हाथ से राजनीतिक प्रभुत्व जाता रहे। इसे इस सिलसिले के रूप में देखा जा सकता है- परिसीमन के बाद केंद्र शासित राज्य के रूप में चुनाव, पाकिस्तान नियंत्रित कश्मीर के लिए रखी गई सीटों का मनोनयन के तौर पर इस्तेमाल करके बहुमत कायम करना आदि। 

फंस गए कश्मीरी नेता?

हालाँकि कश्मीर के नेता मोदी और उनके संघ परिवार के इस एजेंडे से वाकिफ़ हैं, मगर वे जानते-बूझते उनके जाल में फँसते जा रहे हैं। अगर वे केंद्र की योजना की तहत परिसीमन को मंज़ूरी देते हैं और चुनाव में हिस्सा लेते हैं तो एक तरह से विशेष दर्जा छीने जाने को वैधता प्रदान करेंगे। अगर वे इस प्रक्रिया का बहिष्कार करेंगे तो बीजेपी के लिए पूरा मैदान खुला छोड़ देंगे। 

खुशनुमा माहौल में बातचीत का होना इस लिहाज़ से कोई अच्छी बात नहीं कही जा सकती क्योंकि जो बातें कही जानी चाहिए, वे नहीं कही गईं और जो शर्तें रखी जानी चाहिए, वे नहीं रखी गईं। बुरा बनने या बुरा दिखने का जोखिम किसी ने नहीं उठाया और ये उनकी कमज़ोरी को प्रकट करता है। इसलिए संभावना ये है कि वे अपनी अवाम का भरोसा और भी खो सकते हैं। बहुत जल्द उन पर दिल्ली का एजेंट होने के आरोप लगेंगे और वे न इधर के रहेंगे, न उधर के। 

भरोसा जीतने की इच्छा नहीं?

जहाँ तक मोदी सरकार के कश्मीरियों का भरोसा जीतने की बात है तो न तो उसकी ऐसी कोई इच्छा है और न ही वह इसके लिए कुछ करने जा रही है। भरोसा कायम करना और सच्ची राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करना उसके स्वभाव के विपरीत है। कश्मीर तो छोड़िए दूसरे राज्यों में उसने क्या किया है, उसी के आधार पर आप अनुमान लगा सकते हैं कि वह क्या करेगी और क्या नहीं। 

इसलिए, लब्बोलुआब ये है कि संघ वार्ता की आड़ में अपना एजेंडा आगे बढ़ाने की फ़िराक़ में है और वह इसमें कामयाब भी होगा, क्योंकि कश्मीर के राजनीतिक दलों में रीढ़ की हड्डी नहीं है। उन्हें बहुत सारे मामलों में फँसाया जा चुका है और कभी भी जेल में ठूँसे जाने का ख़तरा तो हर समय उनके सिर पर मँडराता ही रहेगा। 

(मुकेश कुमार सत्य हिंदी में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं आप कई चैनलों के हेड के तौर पर काम कर चुके हैं।)

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