Thursday, March 28, 2024

कोरोना काल में उतर गया संघ के सेवा का मुखौटा

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। इसके करीब 50 लाख कार्यकर्ता 55 हजार शाखाओं में रोजाना सुबह सबेरे खाकी नेकर, काली टोपी और सफेद शर्ट में ज्यादातर शहरों में नजर आते हैं। शाखाओं में व्यायाम होता है, प्रार्थना होती है और फिर विचार होता है। प्रति वर्ष संघ के शिविर भी आयोजित होते हैं। इन शिविरों में लाठी चलाना जैसे करतब सिखाए जाते हैं और अखाड़े लगते हैं।

इसलिए पश्चिमी और कुछ भारतीय विचारक आरएसएस के स्वरूप को अर्धसैनिक मानते हैं। कई बार खुद आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत चीन और पाकिस्तान से लोहा लेने के लिए अपने प्रशिक्षित स्वयंसेवकों को सीमा पर भेजने की बात कह चुके हैं। अगर ऐसा है तो सवाल यह है कि भारत सरकार संघ प्रमुख मोहन भागवत को जेड श्रेणी की सुरक्षा क्यों प्रदान कर रही है? और एक सवाल यह भी कि इस पर होने वाले खर्च पर लोगों के टैक्स का इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है?

आरएसएस पर सवाल बहुत हैं। मसलन, संघ अब तक पंजीकृत क्यों नहीं है? संघ अपने सदस्यों की सूची क्यों जारी नहीं करता? उसके सेवा के कौन-कौन से क्षेत्र हैं? 50 बड़े और छोटे मिलाकर करीब 200 आनुषंगिक संगठनों के साथ अपने संबंधों को आरएसएस पंजीकृत क्यों नहीं कराता?  लेकिन पिछले एक दशक में आरएसएस के अनुषंगी संगठनों के कई स्वयंसेवी संगठन पंजीकृत किए गए हैं। प्रकारांतर से आरएसएस से जुड़े ऐसे पंजीकृत स्वयंसेवी संगठनों को मोदी सरकार द्वारा बहुत से सरकारी काम आवंटित किए जा रहे हैं।

गौरतलब है कि मोदी सरकार ने पिछले 7 सालों में भारत में कार्यरत सैकड़ों एनजीओ बंद कर दिए। कई एनजीओ के विदेशी स्रोतों को बंद कर दिया गया। इनमें ज्यादातर एनजीओ वामपंथी, अंबेडकरवादी और गांधीवादी एक्टिविस्ट चला रहे थे। ऐसे एनजीओ ज्यादातर गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के बीच कल्याणकारी काम करते थे। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में सरकारी कामों के क्रियान्वयन के सर्वे को सामने लाने वाले बहुत से एनजीओ को भी बंद कर दिया गया।

कोरोना की दूसरी लहर की महाआपदा में सरकारी नाकामी पर तो सवाल उठ ही रहे हैं, भारत के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन आरएसएस के गायब रहने पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। इस समय देश में हाहाकार है। चौतरफा मौतों की खबरें आ रही हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अभी भी प्रतिदिन करीब डेढ़ से दो लाख लोग संक्रमित हो रहे हैं और करीब दो-ढाई हजार लोगों की मौत हो रही है। जबकि दुनिया की कई एजेंसियां भारत सरकार के इन आंकड़ों को अस्वीकार करती हैं। इन एजेंसियों का मानना है कि सरकारी आंकड़ों की अपेक्षा करीब 8 से 10 गुना ज्यादा मौतें हो रही हैं और 15 से 16 गुना ज्यादा लोग संक्रमित हो रहे हैं। वास्तव में, मोदी सरकार आंकड़ों को कम करके लोगों के गुस्से को ठंडा करना चाहती है।

मोदी सरकार की गिरती लोकप्रियता को संभालने के लिए गोदी मीडिया और भाजपा के आईटी सेल द्वारा नरेशन बदलने की लगातार कोशिश हो रही है। कोरोना महामारी को भारत को कमजोर करने के लिए चीन की अंतरराष्ट्रीय साजिश बताया जा रहा है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मौतों और सरकारी बदइंतजामी के कारण लोगों की नाराजगी नरेशन बदलने से भी कम नहीं की जा सकती।

इस आपदा में गरीब के साथ-साथ मोदी का अंध समर्थक रहा शहरी मध्यवर्ग भी हलकान हुआ है। उसके भी अपने बिछुड़े हैं। वह भी अस्पताल और दवाई की दुकानों पर भटकता रहा। भाजपा, संघ और सरकार से उसे कोई मदद नहीं मिली। ऑक्सीजन, बेड, रैमडिसीवर और प्लाज्मा के लिए वह ‘विधर्मी’ पत्रकारों और विपक्षी दलों के नेताओं से अपील करने के लिए मजबूर हुआ। इन हालातों में उसकी मोदी भक्ति और वाट्सैप वाला ज्ञान हवा हो गए। अमेरिका की सर्वे एजेंसी मॉर्निंग कंसल्ट के अनुसार शहरी मध्यवर्ग में मोदी की लोकप्रियता में 22 फ़ीसदी की गिरावट आई है।

मूल सवाल आरएसएस की सेवा भावना का है। ‘राष्ट्र के पुनर्निर्माण’ और ‘हिंदू धर्म को एकताबद्ध’ करने के उद्देश्य से 1925 में नागपुर में केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित आरएसएस का कथित ध्येय ‘निस्वार्थ भाव से मातृभूमि की सेवा’ करना है। लेकिन जमीनी हकीकत बिल्कुल उलट है। जब पूरा देश आक्सीजन की कमी से जूझ रहा था, लोग पत्रकारों, फिल्मी कलाकारों और विपक्षी नेताओं को टैग करके मदद मांग रहे थे, उस समय संघ के गायब होने पर सवाल उठे। तब एक तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हुई जिसमें कुछ स्वयंसेवक गैस सिलेंडर ले जाते हुए दिख रहे थे। लेकिन उनके हाथों में कार्बन डाई ऑक्साइड के सिलेंडर थे!

अलबत्ता, पिछले साल ऐसा नहीं था। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अचानक लगाए गए लॉकडाउन के बाद खासकर गरीब मजदूरों की स्थितियां बहुत बदतर हो गई थीं। सड़क पर मजदूरी नहीं थी। घर पर राशन नहीं था। ऐसे हालातों में देश के कुछ पूंजीपतियों से लेकर फिल्मी कलाकारों ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया। मध्यवर्ग भी गरीबों को राशन पानी पहुंचा रहा था। आपदा में अवसर तलाशने वाले मोदी ने इन परिस्थितियों में पीएम केयर्स फंड बनाया। इसमें भी लोगों ने बढ़ चढ़कर दान दिया। जब अनेक संस्थाएं और लोग इन गरीबों की मदद कर रहे थे, आरएसएस के संगठन और उसके स्वयंसेवक कहीं नजर नहीं आ रहे थे। इसकी आलोचना हो रही थी।

लेकिन कुछ दिन बाद ही शहर दर शहर आरएसएस के स्वयंसेवक गरीबों को राशन पहुंचाते नजर आने लगे। बताया गया कि आरएसएस का अनुषंगी संगठन सेवा भारती आगे आकर लोगों की मदद कर रहा है। लेकिन इसकी भी सच्चाई कुछ और है। एक रिपोर्ट के मुताबिक पीएम केयर्स फंड से राशन बांटने का काम जिन गैर सरकारी  संगठनों को मिला था उनमें (15 मई 2020 तक) 736 स्वयंसेवी संगठन आरएसएस से जुड़े हुए थे। ये गैर सरकारी संगठन सेवा भारती के तहत आते हैं और पंजीकृत ट्रस्ट हैं। इसके अलावा करीब एक दर्जन से अधिक राज्यों में प्रशासन ने नियमित भोजन, राशन वितरण और चिकित्सा व्यवस्था में स्वयंसेवकों की मदद ली। ऐसे में सवाल उठता है कि किसके कहने पर प्रशासन ने आरएसएस की मदद ली?  दूसरे राजनीतिक दलों या स्वयंसेवी संगठनों की मदद क्यों नहीं ली गई?

दरअसल, यह काम आरएसएस के सेवा कार्य को दर्शाने और लोगों तक पहुंच बनाने के लिए था। साथ ही अपने आलोचकों को जवाब देने के लिए भी। कोरोना की दूसरी लहर में अब जबकि ( खासकर मार्च, अप्रैल और मई) पूरा देश महामारी से जूझ रहा है, आरएसएस के स्वयंसेवक कहां अदृश्य हैं?  सेवा भारती के तहत पंजीकृत तमाम स्वयंसेवी संगठन इस समय क्या कर रहे हैं?  क्या स्वयं सेवकों को संक्रमण का खतरा सता रहा है? क्या सेवा भारती के एनजीओ सरकारी काम का इंतजार कर रहे हैं?  वास्तव में, आरएसएस का सेवा कार्य उसके अन्य कार्यों की तरह ही छद्म है।

लेकिन आरएसएस के सेवाकार्य का एक दूसरा पहलू भी है। अपनी स्थापना के चार दशक बाद भी संगठन का विस्तार नहीं कर पा रहे आरएसएस ने 1970 के दशक में ‘सेवा’ को संस्थागत किया। आरएसएस के इस सेवा का उद्देश्य ‘पदानुक्रम बनाए रखते हुए हिंदुओं का एकीकरण’ करना था। दत्तोपंत ठेंगड़ी और एमजी वैद्य सरीखे संघ के नेताओं ने दलित और पिछड़ों तक पहुंच बनाने के लिए सेवा को माध्यम बनाया। इससे पहले यह काम 1952 में स्थापित वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से संघ के प्रचारक आदिवासियों के बीच कर रहे थे। इस सेवा कार्य का असली उद्देश्य है- ईसाई हो चुके आदिवासियों का धर्म परिवर्तित कराना, आदिवासियों के मन में ईसाई धर्म और ईसाइयों के प्रति घृणा पैदा करके उन्हें सांप्रदायिक बनाना।

वनवासी कल्याण आश्रम, दरअसल आदिवासियों को कट्टर हिंदू बनाने की प्रयोगशाला है। उड़ीसा से लेकर उत्तर-पूर्व के राज्यों में इस संस्था ने आदिवासियों की संस्कृति को बदल दिया है। स्त्री पुरुष समानता और खुली जीवन शैली जीने वाला यह समुदाय आरएसएस के सेवा कार्यों के कारण मैदानी हिंदुओं की तरह संकीर्ण, पितृसत्तात्मक और धार्मिक होता जा रहा है। इसी तरह से दलितों के बीच सेवा कार्य करने के लिए दत्तोपंत ठेंगड़ी ने 1983 में सामाजिक समरसता मंच बनाया। मंच के माध्यम से दलितों के बीच खिचड़ी भोज और अखाड़ों का आयोजन होता है। इसमें संघ के गुरु जी मुस्लिम शासकों द्वारा हिंदू औरतों पर होने वाले कथित जुल्मों की कहानियां सुनाते हैं। इन कहानियों के माध्यम से अशिक्षित गरीब दलितों के मन में मुसलमानों के खिलाफ जहर भरा जाता है।

इसी तरह अन्य पिछड़ी जातियों के बीच भी आरएसएस के प्रचारक सेवा कार्य करते हैं। आरएसएस ने इन तमाम जातियों के ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को खोजकर उनके इतिहास को सांप्रदायिक आधार पर गढ़ा। आरएसएस द्वारा दलित पिछड़ी जातियों के ऐसे किरदारों को ईजाद किया गया, जिनका मुसलमानों के साथ संघर्ष का रिश्ता रहा हो। गौरतलब है कि मध्यकालीन भारत में सांप्रदायिकता जैसी कोई चीज नहीं थी। दो राजाओं के झगड़े हिंदू मुसलमानों के झगड़े नहीं थे। लेकिन संघ ने इतिहास के अनेक चरित्रों को इसी नजरिए से गढ़ा और प्रचारित किया। इसके अतिरिक्त भारत की जाति व्यवस्था की एक खासियत यह भी है कि प्रत्येक जाति की कुल देवी या देवता होते हैं।

आरएसएस द्वारा गढ़ी गईं, इनकी काल्पनिक कहानियों में भी राक्षस मुसलमानों को ही बनाया गया है। जिन जातियों के देवता नहीं थे, उनके देवता सृजित किए गए। इस सांस्कृतिक सेवा से आरएसएस ने दलित पिछड़े समुदाय की छोटी-छोटी जातियों को नफरत और विभाजनकारी षड्यंत्र में फँसाकर अपने साथ मिला लिया। ये जातियाँ सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों से नाराज थीं। इस नाराजगी का कारण सामाजिक न्याय की राजनीति के अंतर्विरोध थे। मसलन, अवसरवाद और परिवारवाद के कारण इन जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा था।

आरएसएस ने मराठा, यादव, जाट, जाटव और पासवान जैसी मजबूत दलित पिछड़ी जातियों के खिलाफ अन्य पिछड़ी जातियों के मन में नफरत पैदा करके उन्हें अपने पाले में खींच लिया। कुछ मुखौटों को पद और प्रलोभन देकर भाजपा संघ ने इन तमाम जातियों का वोट हड़प लिया। इस तरह सामाजिक न्याय की राजनीति ध्वस्त होती चली गई और हिंदुत्व की राजनीति केंद्र से लेकर राज्यों तक मजबूत होती गई। दरअसल, आरएसएस का सेवा कार्य विशुद्ध राजनीतिक प्रक्रिया है, सामाजिक बदलाव या लोक कल्याण नहीं। लोक कल्याण आरएसएस का सिर्फ मुखौटा है। कोरोना काल में यह मुखौटा उतर गया है।

(रविकांत लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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