Friday, April 19, 2024

आत्महत्याओं के रूप में फूट पड़ा है पहाड़ों का दर्द

“आत्महत्या एक घृणित अपराध है, यह पूर्णतः कायरता का कार्य है। क्रान्तिकारी का तो कहना ही क्या, कोई भी मनुष्य ऐसे कार्य को उचित नहीं ठहरा सकता। …. आत्महत्या करना, केवल कुछ दुखों से बचने के लिए अपने जीवन को समाप्त कर देना, तो कायरता है। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि विपत्तियाँ व्यक्ति को पूर्ण बनाने वाली होती हैं। 

शहीद भगत सिंह (सुखदेव के नाम पत्र )”

“कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना

और दुर्नीति को नीति”

भारत में हर साल लगभग एक लाख के करीब लोग आत्महत्या करते हैं। हाल ही में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा दुर्घटना और आत्महत्या संबंधी रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि देश में व्यवसाय, नौकरी आदि में समस्या, अलगाव, उत्पीड़न, हिंसा, पारिवारिक समस्या, दिमागी बीमारी, नशे, वित्तीय घाटा आदि चीजें आत्महत्याओं का मुख्य कारण बन कर उभरी हैं। 2020 में 1,53,052 लोगों ने आत्महत्या की है। 2019 की तुलना में आत्महत्याओं का दर 10  प्रतिशत अधिक  है।आत्महत्या के व्यक्तिगत कारण बहुत ही कम होते हैं। कोई भी जिंदा इंसान नहीं चाहता कि वह अपने आप को खत्म कर ले। आखिर वह कौन सी परिस्थितियां होती हैं जिसमें इंसान अपनी जिंदगी का सबसे खतरनाक कदम उठाता है। वह परिस्थितियां किसने बनाई हैं? कौन उन सामाजिक-आर्थिक कारणों का जिम्मेदार होता है? मूल रूप से इसकी जवाबदेही सरकारों की बनती है। आत्म हत्याएं किसी न किसी वजह से, किसी ठोस कारण से, सरकारों द्वारा बनाई गई परिस्थितियों द्वारा की गई हत्या होती हैं। 

भारत में पांच साल में आत्महत्याओं का आंकड़ा 

संख्या के हिसाब से सबसे ज्यादा आत्महत्या करने वाले राज्यों में महाराष्ट्र (19,909), तमिलनाडु (16,883), मध्य प्रदेश (14,578), पश्चिम बंगाल 13,103 और कर्नाटक (12,259) आते हैं। कुल आत्महत्याओं में से  50.1 प्रतिशत आत्महत्याएं इन 5 राज्यों में हुई हैं। 

हिमाचल में हर महीने लगभग 71 लोग कर रहे आत्महत्या 

लेकिन पिछले साल की तुलना में आत्महत्याओं में इजाफे पर नजर दौड़ाई जाए तो हिमालयी क्षेत्र के राज्यों में स्थिति सबसे बुरी और चिंताजनक है। क्योंकि जनसंख्या के नजरिए से चाहे इन क्षेत्रों में आबादी कम है लेकिन प्रति लाख के हिसाब से जितनी आत्महत्या की रफ्तार बढ़ी है इसने समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिकों के होश उड़ा दिए हैं। पिछले साल की तुलना में उत्तराखंड में 82.8 प्रतिशत, मिजोरम में 54.3 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में 46.7 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 42 और असम में 36 प्रतिशत की दर से आत्महत्याओं में इजाफा हुआ है। 

कारणों पर नजर दौड़ाते हुए रिपोर्ट बताती है कि सबसे ज्यादा आत्महत्याएं पारिवारिक समस्याओं  (33.6 प्रतिशत) बीमारी (18 प्रतिशत) की वजह से हुई हैं। इसके अलावा नशे की आदत से 6 प्रतिशत, शादी संबंधी समस्याओं से 5 प्रतिशत, प्यार के मामले में 4.4 प्रतिशत, दिवालियापन और कर्ज के कारण 3.4 प्रतिशत, बेरोजगारी के कारण 2.3 प्रतिशत, पेपर में फेल होने से 1.4 प्रतिशत, व्यवसाय और कैरियर संबंधी समस्या से 1.2 प्रतिशत और गरीबी के करण 1.2 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्याएं की हैं। 

हिमाचल प्रदेश में 2019 में जहां 584 आत्महत्याएं हुई थीं वहीं 2020 में कुल 857 लोगों ने आत्महत्या की है। इस तरह से देखा जाए तो हर महीने लगभग 71 लोग अपने जीवन को समाप्त कर रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में पारिवारिक समस्याओं के चलते 51.7 प्रतिशत यानी 443 लोगों ने आत्महत्या की है। जिसमें से 200 शादी शुदा महिलाएं, 106 बेरोजगार, 52 किसान या खेत मजदूर और 142 दैनिक मजदूरों ने आत्महत्या की है।

आंकड़ों का विश्लेषण करने से साफ समझ में आता है कि कोरोना काल में लगा लॉकडाउन, उस से पैदा हुई पारिवारिक समस्याएं, मानसिक तनाव, घरेलू हिंसा, बेरोजगारी हिमाचल प्रदेश में आत्महत्याओं का बड़ा कारण बनी हैं। कोरोना काल में अचानक हिमाचल में आत्महत्याओं में इजाफा देखा गया था। एक जानकारी के अनुसार हिमाचल प्रदेश में कोरोना वायरस संक्रमण को रोकने के लिए लागू लॉकडाउन के पहले तीन माह में राज्य में आत्महत्या के मामले उसके पहले के तीन महीनों के मुकाबले दोगुना रहे। राज्य पुलिस द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, जनवरी में आत्महत्या के 40 मामले सामने आए, फरवरी में 45 और मार्च में आत्महत्या के 32 मामले सामने आए। अप्रैल में 47 लोगों ने आत्महत्या की, मई में 89 लोगों ने आत्महत्या की, जून में 112 और जुलाई में 101 लोगों ने आत्महत्या की। इस प्रकार से जनवरी से मार्च तक आत्महत्या के 117 मामले सामने आए। वहीं अप्रैल से जून तक आत्महत्या के 248 मामले सामने आए। राज्य में 24 मार्च को लॉकडाउन लागू हुआ था। पुलिस महानिदेशक संजय कुंडू ने कहा था कि “लॉकडाउन के दौरान आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैं और यह चिंता का विषय है। परिवार और नौकरी संबंधी समस्याओं के कारण अधिक संख्या में गृहिणियों और मजदूरों ने आत्महत्या की। वहीं परीक्षा में अपनी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरने पर छात्रों ने और बीमारियों से पीड़ित बुजुर्गों ने आत्महत्या की।”

आत्महत्याओं की प्रवृत्ति छोड़नी होगी

 हिमालयी क्षेत्र और खासतौर से हिमाचल प्रदेश और उतराखंड जैसे राज्यों में यह कहावत प्रचलित रही है कि पहाड़ की जवानी और पानी पहाड़ के काम नहीं आते। कई दशकों से हिमालयी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों को दोहन करने की गति ऐतिहासिक रूप से तेज हुई है। तेजी के साथ बढ़ती ‘विकास’ परियोजनाओं ने जहां एक तरह हजारों लोगों को घरों से बेघर किया है वहीं अपने घर बार छोड़ कर नौकरी के लिए पलायन करना युवाओं की पीड़ा बढ़ी है। नकदी फसलों और बागवानी से हिमाचल जैसे राज्यों के कुछ भागों में तेजी के साथ पैसा आया है, परियोजनाओं से मुआवजा भी बहुत मिला है। ऐसी जगहों पर देखा जा रहा है कि नशा और घरेलू हिंसा बढ़ी है। वहीं बेरोजगारी की दर भी दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। इन सब का असर महिलाओं और युवाओं पर अधिक देखने को मिल रहा है। युवा कुछ भी न कमा पाने, अपने मां बाप के सामने जवाब न दे पाने की पीड़ा मन में लिये अवसाद का शिकार हो रहे हैं। उनको किसी भी क्षेत्र में अपना भविष्य नजर नहीं आ रहा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि युवा और महिलाएं अपना जीवन समाप्त कर लें। उनको अपनी समस्याओं से जूझने के लिए, उनके हल के लिए कोशिश करनी होगी। 

अपने वक़्त की असहनीय कारगुज़ारियों पर

शिकायतों का पत्थर फेंककर

मृत्यु के निमंत्रण को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता

हम दुनिया को

इतने ख़तरनाक हाथों में नहीं छोड़ सकते।

हमें अपनी-अपनी आत्महत्याएँ स्थगित कर देनी चाहिए।

(रितिका ठाकुर शिमला विश्वविद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं।)

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