Thursday, March 28, 2024

युद्ध अपने आप में होता है मानव विरोधी

रूस-यूक्रेन युद्ध के दो पक्ष सुनने को मिल रहे हैं। एक तो रूस को आक्रांता मान कर तुरंत उससे युद्ध रोकने को कह रहा है। दूसरा अमेरिका की विदेश नीति को इस युद्ध का कारण मानता है। 1991 में शीत युद्ध समाप्ति के बाद सोवियत संघ के विघटन से निकले कई देशों को अमेरिका ने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) में शामिल कर रूस को उकसाया। यूक्रेन के नाटो में शामिल होने की सम्भावना से रूस असुरक्षित महसूस कर रहा था, जो वर्तमान युद्ध का कारण बना।

यह रोचक तथ्य है कि सोवियत संघ के विघटन के समय उसके पास जो 35,000 नाभिकीय शस्त्र थे वे चार देशों के हिस्से में आए – रूस, यूक्रेन, कजाकिस्तान व बेलारूस। इनमें में से रूस को छोड़ कर शेष ने कह दिया कि उन्हें नाभिकीय शस्त्रों की जरूरत नहीं है और उन्होंने अपने शस्त्र रूस को सौंप दिए। यूक्रेन ने जरूर इसके बदले में अपनी सुरक्षा की गारंटी मांगी और अमेरिका व इंग्लैण्ड की मध्यस्थता से रूस व यूक्रेन के बीच एक समझौता हुआ। अमेरिका ने यूक्रेन के नाभिकीय शस्त्र खत्म करने में भी मदद की। अमरीका व रूस ने खुद संधियों के तहत अपने नाभिकीय शस्त्रों की संख्या घटाई।

यह उस समय के माहौल को दर्शाता है। शीत युद्ध की समाप्ति पर सोवियत संघ से निकले राष्ट्रों को नहीं लग रहा था कि निकट भविष्य में उन्हें कोई युद्ध करना पड़ेगा और इसलिए वे अपने शस्त्र त्यागने को तैयार थे। यूक्रेन को लगा कि शस्त्र त्यागने के बदले उसे अपनी सुरक्षा की गारंटी मिलेगी।

किंतु अमेरिका व रूस अभी भी 5,000-6,000 नाभिकीय शस्त्र रखे हुए हैं, जो कुल मिला कर दुनिया के 90 प्रतिशत नाभिकीय शस्त्र हैं, जबकि शीत युद्ध की समाप्ति पर इतने शस्त्र रखने का औचित्य नहीं था। इसकी वजह से स्थाई शांति की सम्भावना नहीं बची। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्यों, जिन सबके पास नाभिकीय शस्त्र हैं, ने अपने शस्त्र तो समाप्त किए नहीं, वे अन्य राष्ट्रों से अपेक्षा करते रहे कि वे व्यापक परीक्षण निषेध संधि व अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर नाभिकीय शस्त्र बनाने का अपना अधिकार त्याग दें। इजराइल, भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया व ईरान ने इसके विरोध खुद को नाभिकीय अस्त्रों से सुसज्जित कर लिया है अथवा बनाने की क्षमता रखते हैं।

अमेरिका की दुनिया की एकमात्र महाशक्ति बने रहने की महत्वाकांक्षा व सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्यों द्वारा अपने नाभिकीय शस्त्र व महाविनाश के अन्य शस्त्र न त्यागने के निर्णय की वजह से समय-समय पर दुनिया में कहीं न कहीं युद्ध होते रहना अपरिहार्य है जिससे अमेरिका का हथियार उद्योग, जो उसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, पोषित होता रहेगा।

राजीव गांधी भारत के आखिरी प्रधान मंत्री थे जिन्होंने सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्यों को अपने-अपने नाभिकीय शस्त्र एक समय सीमा में समाप्त करने की अपील संयुक्त राष्ट्र की महासभा में की थी, किंतु यह विश्वास हो जाने के बाद कि दुनिया की महाशक्तियां इस बारे में गम्भीर नहीं हैं, भारत सरकार ने अपने नाभिकीय शस्त्र बनाने का फैसला लिया। इंदिरा गांधी दो दशक पहले ही नाभिकीय शस्त्रों का परीक्षण कर चुकी थीं।

भारत में नव उदारवादी आर्थिक नीतियां लागू हो जाने के बाद से भारत धीरे धीरे गुट निरपेक्ष आंदोलन से दूर होता चला गया और अमरीका के करीब आता गया। यदि आज भारत गुट निरपेक्ष आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका में होता तो उसे इस दुविधा का सामना न करना पड़ता, जिसमें वह एक तरफ रूस की आलोचना करने से बच रहा है तो दूसरी तरफ यूक्रेन का साथ न देने पर अमरीका को नाराज करने का खतरा मोल ले रहा है।

पारम्परिक रूप से भारत ने किसी भी संघर्ष में हमेशा कमजोर का साथ दिया है। महात्मा गांधी ने अरब भूमि पर जबरदस्ती इजराइल देश बनाए जाने का विरोध किया था व दक्षिण अफ्रीका में रंग भेद नीति का विरोध किया। भारत ने दलाई लामा को शरण दी व तिब्बतियों को भारत में अपनी निर्वासित सरकार बनाने की छूट दी तथा पाकिस्तान में बंगाली राष्ट्रवाद का साथ दिया।

आज दुनिया में कोई नैतिक आवाज नहीं बची है। संयुक्त राष्ट्र संघ को पहले अमरीका, इंग्लैण्ड व चीन और अब रूस ने अपनी वीटो शक्ति, जो सिर्फ सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्यों के पास है, की वजह से अप्रासंगिक बना दिया है। ये महाशक्तियां दुनिया के अन्य राष्ट्रों की सामूहिक राय के बारे में कोई चिंता नहीं करतीं। यदि संयुक्त राष्ट्र, और खासकर सुरक्षा परिषद, का लोकतांत्रिकीकरण नहीं हुआ तो दुनिया के देशों की सामूहिक राय वर्तमान में चल रहे  युद्धों को समाप्त कराने के लिए दबाव बना पाने में अक्षम होगी।

यदि भारत महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को मानता, जिसकी पूरी दुनिया में कद्र होती है और जो दुनिया के शोषित लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत है, तो आज ऐसी स्थिति नहीं आती कि हम वर्तमान युद्ध में अक्रांता रूस के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ रहे हैं। यदि हमने गुट निरपेक्ष आंदोलन को मजबूत बनाए रखा होता और दुनिया के बहुसंख्यक देशों का ऐसा समूह होता जो महाशक्तियों पर दबाव बनाने की स्थिति में होता तो आज दुनिया गुणात्मक रूप से भिन्न होती। इसके बजाए भारत अपना अहित करने वाले रास्ते पर चल कर सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनना चाहता है और यह समझ में आने पर पर कि वह जी-8 जैसे समूह में शामिल नहीं हो सकता उसने ब्रिक्स व क्वाड जैसे समूहों का हिस्सा बनना तय किया है ताकि उसकी गिनती यदि दुनिया के पहले नहीं, तो दूसरे नम्बर के देशों में हो।

हमें यूक्रेन में फंसे सिर्फ भारतीय छात्रों की ही चिंता नहीं होनी चाहिए जिन पर इस समय हमारा सारा ध्यान केंद्रित है। यूक्रेन में ऐसे लोग भी हैं जिनके पास वहां से भागने का विकल्प नहीं है। उनकी जिंदगी तबाह हो गई है और उनका भविष्य अनिश्चित है। कड़ाके की ठण्ड में अचानक बिना घर के हो जाना बड़ी पीड़ादायक स्थिति है। धीरे धीरे खाने पीने की सामग्री भी समाप्त हो रही है। वहां फंसी हुई जनता में छोटे बच्चे व बूढ़े लोग भी हैं।

यह एक मानवीय संकट है। हमें यूक्रेन के साथ मजबूती से खड़ा होना होगा और रूस पर दबाव बनाना होगा कि वह युद्ध तुरंत समाप्त करे। युद्ध का परिणाम सिर्फ हिंसा व लाचारी ही होता है। इसे किसी भी नाम पर जायज नहीं ठहराया जा सकता। दुनिया की महाशक्तियों की नकल करने के बजाए बेहतर होगा यदि हम एक स्वतंत्र रास्ता चुनें व एक शस्त्र मुक्त दुनिया की कल्पना को साकार करें।

मैं अचम्भित हूँ मेरे देश पर

मेरा देश चुप  क्यों है

इस अन्याय के खिलाफ

उसके पास

शायद अब

शब्द नहीं बचे

वह एक गूंगा

विकलांग देश बन चुका है..

मेरे देश की यह तरक्की

मानवता के लिए घातक है..

मेरे देश में सब कुछ अच्छा है..

मैं इसका दावा नहीं करती

किन्तु मेरा देश भी

किसी दूसरे की जमीन पर

अपना दावा नहीं करता..

मेरा देश इस जंग के विरोध में है

मैं इसका दावा नहीं करती

किन्तु मेरा देश भी

जंग के समर्थन में है

 कभी ये दावा नहीं करता

मैं इसी बात से खुश हूँ..

कि मुझे

जंग का विरोध करने पर

अपने देश में,

तबाह नहीं किया जायेगा

देशद्रोही करार नहीं दिया जायेगा

..

क्योंकि अभी तक

मेरे देश में

रूस और चीन की तरह

तानाशाही नहीं है..

मेरे देश  में

अभी तक लोकतंत्र है

किन्तु पिछले कुछ अरसों से

न मालूम क्यों

मुझे इस पर खतरा नजर आ रहा है

..

कल को मेरे देश में भी

ऐसे हालत बने तो

मैं मरते हुए ,प्यासे

विरोधी सैनिक को

मरने से पहले

पानी दे सकती हूँ…

क्योंकि यही मेरे मानव होने की पहचान है..

और उन्ही विरोधी सैनिकों को

अपनी मातृभूमि पर आगे बढने से

रोकने में

 मैं अपने प्राण दे दूं

यही मेरी देशभक्ति है…

.. देशभक्ति और मानवता

 साथ-साथ चल सकती है

 न जाने क्यों,

 इनमें विरोध पैदा किया जाता है..

आखिर मेरा देश भी

यहाँ रहने वाले

मनुष्यों से

मिलकर बना है

और मनुष्यों के बिना ..

मेरा देश भी…

….

शून्य है….

और मनुष्य..

मनुष्यता के बिना

….

शून्य है…

……

‘वह’  जो 

..युद्ध में मारे जा रहे हैं

… वो भी मैं हूँ

जो मार रहे हैं..

वह भी मैं ही हूँ…

..

 मै ही हूँ.. जो ये लाशें..

अपने कंधों पर ढो रहा हूँ..

और मैं ही हूँ

जो इस युद्ध क्षेत्र में

आंसू बहा रहा हूँ..

..

मैं ही जीत रहा हूँ

..

मैं ही हार रहा हूँ

…. हाँ मैं  ही हूँ…

मैं यह सब कर रहा हूँ..

… क्योंकि

मैं…

 एक भ्रमित मानव हूँ..

 और इस तरह

अपने ही

अहंकार के तेजाब में

अपनी रूह को

गलाता जा रहा हूँ..

तुम, ताकतवर  हो

मुझे मार सकते हो…

किन्तु मेरे विचारों को नहीं

तुम, ताकतवर हो

मुझे लूट सकते हो…

किन्तु मेरी भावनाओं को नहीं

तुम, ताकतवर हो

मुझे कुचल सकते हो…

किन्तु मेरे सपनों को नहीं

तुम ,छीन सकते हो

मुझसे

वो सब कुछ ,

जो छीना जा सकता है

किन्तु तुम

मेरी आजादी. ..

नहीं छीन सकते

क्योंकि मैंने

इसे

सुनिश्चित किया है

अपने प्राणों का मूल्य देकर..

……

तुम्हारी जिद

मेरे जिस्म को तबाह कर सकती है

..

मेरी रूह को नहीं

(माधुरी प्रवीणसंदीप पाण्डेय सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के उपाध्यक्ष हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles