Wednesday, April 24, 2024

द कश्मीर फाइल्स का खतरनाक ‘सच’

भगवा पगड़ी और एक हिंदू उपदेशक की पोशाक पहने एक आदमी सिनेमा हॉल की आलीशान लाल आंतरिक साज-सज्जा के सामने खड़ा है। उसके एक हाथ में इस्पात का एक चमकदार त्रिशूल है और दूसरे में एक मोबाइल फोन। जैसे ही फिल्म के अंत में टाइटिल्स संगीत शुरू होता है यह दढ़ियल स्वामी एक सिहरन पैदा करने वाला संबोधन शुरू करता है। “अभी आप सबने देखा है कि कश्मीरी हिंदुओं के साथ क्या हुआ,” परदे की ओर इशारा करते हुए वह कहता है, “इसलिए हिंदुओं को मुसलमानों के विश्वासघात से अपनी रक्षा करनी होगी और हथियार उठाने की तैयारी करनी होगी।”

वह अपनी आवाज तेज करते हुए चीखता है, “जिस हिंदू का खून न खौले,” उसके दर्शक जवाब में चीखते हैं: “खून नहीं वह पानी है!”

यह वीडियो 2022 के भारत में सार्वजनिक जीवन का प्रतीक बन गया है, और इसी तरह के अनेक अन्य वीडियो भी विवादास्पद बॉलीवुड फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ की रिलीज के बाद इंटरनेट पर फैले हुए हैं। यह फिल्म 11 मार्च को पूरे भारत में एक साथ 600 सिनेमाघरों में रिलीज की गयी थी।

इस फिल्म की विषयवस्तु 1990 की भारत-विरोधी विद्रोह की पहली हलचल को बनाया गया है, जिसने भारत-प्रशासित कश्मीर को अगले तीन दशकों तक के लिए हिला कर रख दिया, जो आज भी बरक़रार है। यह फिल्म इस क्षेत्र की मुस्लिम-बहुल आबादी के बीच रह रहे एक छोटे से हिंदू अल्पसंख्यक समूह, पंडितों, के कश्मीर से पलायन की कहानी बताने का दावा करती है। भारतीय मीडिया में शुरुआती समीक्षाओं में इस फिल्म को इस्लाम से भय पैदा करने वाली, बेईमानी से भरी हुई और उकसाने वाली बताया गया था, और फिल्म के रिलीज होने से पहले ही इसके ट्रेलर के आधार पर ही इसके खिलाफ जनहित याचिकाएं दायर होने लगी थीं, कि इसके “भड़काऊ दृश्य सांप्रदायिक हिंसा का कारण बनेंगे।” अपने बचाव में, फिल्म निर्माता ने जोर देकर कहा था कि “मेरी फिल्म का हर फ्रेम, हर शब्द सच है।”

‘द कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज के कुछ ही दिनों बाद, इसे एक असामान्य अनुमोदन मिल गया। भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के संसदीय समूह की एक बैठक में कहा, “आप सभी को इसे देखना चाहिए।” उन्होंने कहा, “फिल्म ने वह सच दिखाया है जिसे सालों से दबा दिया गया था। ‘कश्मीर फाइल्स’ में सच्चाई की जीत हुई।” सच्चाई के लिए फिल्म के दावे का यह जोरदार समर्थन, साथ ही यह सुझाव कि इस सच्चाई को अतीत में दबा दिया गया था, यह वह प्रारंभिक संकेतक था कि इस फिल्म में कितनी बड़ी मात्रा में राजनीतिक पूंजी का निवेश किया जा रहा है।

एक वृत्तचित्र फिल्म निर्माता और लेखक के रूप में मेरा काम लगभग दो दशकों से कश्मीर पर केंद्रित है। फिर भी मैं हमेशा 1990 में इस समुदाय के पलायन के बारे में तथ्यों – या उनकी कमी – से हैरान रहा हूं। “इस समुदाय” की बजाय मुझे “मेरा समुदाय” कहना चाहिए, क्योंकि मैं खुद एक कश्मीरी पंडित हूं। यहां तक ​​​​कि सबसे प्राथमिक तथ्यों के बारे में भी बहुत कम स्पष्टता है।

जो बात हम निश्चित रूप से कह सकते हैं, वह यह है कि 1989 के मध्य से, कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यकों के अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों की चुन कर हत्याएं हुईं, जिससे व्यापक दहशत और असुरक्षा फैल गयी। इन्हीं महीनों में, कश्मीर में कई मुसलमानों की भी हत्याएं कर दी गयीं, जो राजनीतिक कार्यकर्ता, पुलिसकर्मी और सरकारी अधिकारी थे। यह सब इस दौर के व्यापक राजनीतिक उभार का हिस्सा था, जो ऐसी घटनाओं की पूर्वसूचना दे रहा था जो जल्द ही चीजों की स्थापित व्यवस्था को उलट देंगी। हम यह भी जानते हैं कि 1990 की शुरुआत में कुछ कश्मीरी पंडित परिवार डर के मारे भागने लगे। उनका जाना संभवतः एक अस्थायी कदम था, हालांकि बाद में यह अधिकांश के लिए दुखद रूप से स्थायी साबित हुआ।

उसके बाद के दशक में, कश्मीर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों के साथ-साथ एक पूर्ण सशस्त्र विद्रोह भी हुआ, जिसका उद्देश्य भारत से स्वतंत्रता से कम कुछ भी नहीं था। इसके बाद जो क्रूर जवाबी कार्रवाई हुई, वह कश्मीर में रहने वाले सभी लोगों के जीवन पर भारी पड़ी, और हिंसा और निरंतर भय के कारण इसके अल्पसंख्यक पंडितों और मुस्लिमों की एक बड़ी संख्या का लगातार पलायन हुआ। हम जानते हैं कि कश्मीरी पंडितों के प्रस्थान की अंतिम लहरों के बाद दो भयानक नरसंहार हुए -1998 में वंधमा में 23 नागरिकों का और 2003 में नदीमर्ग में 24 पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का।

हम यह भी जानते हैं कि इन सबके बावजूद कम से कम 4,000 कश्मीरी पंडितों ने अपना घर कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने कश्मीर में रहना जारी रखा है, वे सुरक्षित बस्तियों में नहीं रहते हैं, बल्कि घाटी में बिखरे हुए हैं। एक ऐसे इलाक़े में, जो अक्सर युद्ध क्षेत्र की तरह महसूस होता है, वहां परिवार और समुदाय के विस्तारित नेटवर्क के बिना रहना, उनके लिए आसान नहीं है। लेकिन उनके उन मुस्लिम पड़ोसियों के लिए भी जीवन आसान नहीं है, जिनके साथ वे ऐसे इलाक़ों में रहते हैं जिन्हें दुनिया में सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक के रूप में पहचाना जाता है।

यहां तक ​​​​कि बड़ी संख्या में आलोचकों ने पाया कि इस फिल्म में गलत तथ्य भरे गये हैं, इसे राजनीतिक प्रचार के लिये बनाया गया है और परदे पर पेश किये गये हर मुस्लिम पात्र को भयावह रूप से नकारात्मक रूप में पेश किया गया है, इसके बावजूद यह फिल्म पूरे देश में बॉक्स ऑफिस पर जबर्दस्त रूप से कामयाब रही है। सिनेमाघरों में दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं द्वारा इकट्ठा किये गये पुरुषों के समूह तिरंगा लहराते हुए दिखते हैं। अक्सर फिल्म के अंत में नारेबाजी की जाती है और भाषण दिये जाते हैं जिनमें लोगों को उकसाने की प्रतिस्पर्धा होती है और न केवल कश्मीरी मुसलमानों, बल्कि सभी मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का खुले तौर पर आह्वान किया जाता है। इन आह्वानों और इन पर लोगों के रोष की प्रतिक्रियाओं को दक्षिणपंथियों के जबर्दस्त सोशल मीडिया नेटवर्क (जिसे उपहास के रूप में अक्सर “व्हाट्सएप विश्वविद्यालय” कहा जाता है) के माध्यम से जोर-शोर से फैलाया जाता है। इस सब के माध्यम से, यह लगातार रेखांकित किया जाता है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक सच्चाई का खुलासा कर रही है जिसे अतीत में दबा दिया गया था।

यह दावा कि इस “सच्चाई” को दबाया गया था, यह देखते हुए अजीब लगता है, कि भाजपा और उसके साथियों ने, कम से कम 1990 के दशक के मध्य से, कश्मीर की घटनाओं की अपनी व्याख्या का प्रचार-प्रसार आक्रामक रूप से किया है। उनकी इस व्याख्या के अनुसार कश्मीरी पंडितों का निष्कासन एक ही दिन (19 जनवरी, 1990) को हुआ था, और वे जोर देकर बताते हैं कि इस पलायन का कारण था— व्यापक पैमाने पर पंडितों की हत्याएं, उनके घरों और मंदिरों को लूटने और जलाने की घटनाएं और पंडित महिलाओं के खिलाफ भीषण यौन हिंसा की घटनाएं। वे इस समुदाय को नरसंहार का शिकार बताते हैं और इसे हिंदू सभ्यता के लिए बड़े खतरे के एक हिस्से के रूप में पेश करते हैं, जिसका मुकाबला केवल भाजपा और उसके सहयोगी ही कर सकते हैं।

हालाँकि मेरी अपनी दिलचस्पी कश्मीरी पंडितों के पलायन की घटना के इर्दगिर्द के तथ्यों में थी, लेकिन मैं उस सच्चाई के बारे में भी उत्सुक था जिसका उल्लेख इस फिल्म में किया जा रहा है। उस अवधि के इर्दगिर्द के सारे तथ्य लंबे समय तक आवरण में रहे हैं, न केवल महज इसलिए कि इस पर कभी भी पत्रकारों और विद्वानों ने कोई गंभीर ध्यान नहीं दिया, बल्कि इसलिए भी कि राज्य और केंद्र की सरकारों यहां तक भाजपा सरकारों, ने भी निश्चित रूप से इस पर कभी ध्यान नहीं दिया।

अक्सर सबसे सरल प्रश्न विश्वसनीय उत्तर देने में विफल होते हैं। 1990 से पहले घाटी में कितने कश्मीरी पंडित रहते थे? दक्षिणपंथियों के जादुई आंकड़े 5 लाख और 7 लाख के बीच उतार-चढ़ाव करते हैं, हालांकि माना जाता है कि यह संख्या लगभग 1 लाख 70 हजार होगी। उनमें से कितने लोगों ने 1990 के बाद कश्मीर घाटी छोड़ दी? क्षेत्र के राहत और पुनर्वास आयुक्त के एक हालिया बयान में यह आंकड़ा 1,35,426 बताया गया, हालांकि टीवी पर बहसों में सुई फिर से 5 लाख और 7 लाख के बीच उतार-चढ़ाव करती है, और बेवजह 10 लाख तक भी जा सकती है।

संघर्ष में कितने कश्मीरी पंडित मारे गए? ‘द कश्मीर फाइल्स’ में, बातचीत में, ये आंकड़े लगभग 4 हजार बताये गये, हालांकि क्षेत्र के पुलिस विभाग द्वारा प्रदान किए गए सबसे हालिया आंकड़े यह संख्या 89 बताते हैं। इससे पहले के सरकारी अनुमानों में यह संख्या 270 बतायी गयी थी जबकि कश्मीर-स्थित एक नागरिक समूह, ‘कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति’ ने इस संख्या को लगभग 700 बताया था। उन्होंने कश्मीर कब छोड़ा? और सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि वे कौन सी परिस्थितियाँ थीं जिन्होंने लोगों को छोड़ने को मजबूर कर दिया? इनमें से किसी का भी उत्तर निश्चितता के साथ नहीं दिया जा सकता है।

दावों और उलझनों के इस कोहरे के कारण ही ‘द कश्मीर फाइल्स’ को सामने आकर “कश्मीर नरसंहार” को सच की तरह पेश करने का मौक़ा मिल जाता है। इस फिल्म में पेश किए गए सबूत मौखिक हैं। फिल्म निर्माता का दावा है कि ये तथ्य “पीड़ितों की पहली पीढ़ी के 700 लोगों” के साक्षात्कारों पर आधारित हैं, जिन्हें “प्रामाणिक” इतिहासकारों, कश्मीर मामलों के विशेषज्ञों और शिक्षाविदों तथा उस दौर में तैनात प्रशासकों और पुलिस अधिकारियों के बयानों से मिलान करके जांच-परख लिया गया है। यही कारण है कि फिल्म के शुरुआती डिस्क्लेमर में लिखे गये वाक्य, कि “यह फिल्म … ऐतिहासिक घटनाओं की सटीकता या तथ्यात्मकता का दावा नहीं करती है”, ने मुझे हैरान कर दिया।

एक काल्पनिक कथानक के रूप में प्रस्तुत, ‘द कश्मीर फाइल्स’ उन बंधनों से मुक्त है जो इसके निर्माताओं द्वारा एकत्र किए गए तथ्यों पर सवाल उठाते हैं। इसलिए फिल्म उस ख़याल को एक शक्तिशाली रूप देने में सक्षम है जिसे दक्षिणपंथी तीन दशकों से अधिक समय से पका रहे हैं, जिसे वे कश्मीर की सच्चाई कहते हैं। यह फिल्म कश्मीर के हाल के डेढ़ दशक के इतिहास की अलग-अलग समय और जगहों पर घटी कुछ भयानक घटनाओं को चुनकर और उन्हें एक वीभत्स आख्यान के रूप में गूंथ कर इस तरह से पेश करती है, जैसे कि वे उसी एक साल में घटी हुई प्रतीत हों। इतना ही नहीं, इन सारे जुल्मों को एक ही काल्पनिक परिवार पर घटते हुए दिखा कर इस दुःख को और गहरा किया गया है। लेकिन निर्माता इतने भर से संतुष्ट नहीं है। दुख के इस बोझ को और ज्यादा असहनीय बनाने के लिए दृश्य में और ज्यादा क्रूरता भरी गयी है। इसके लिए एक शैतानी “आतंकवादी कमांडर” द्वारा एक महिला के पति की हत्या करके उसके खून से सने हुए चावल को कच्चा खाने को उस महिला को मजबूर करने का दृश्य दिखाया जाता है।

यह घटना 1990 में बी. के. गंजू नाम के पंडित की निर्मम हत्या का संदर्भ देती है, जो अपने घर की अटारी में चावल के ड्रम में छिपे हुए मारे गए थे। खून से सने हुए चावल की कहानी हाल ही में जोड़ी गयी लगती है। कुछ हफ्ते पहले जब इस घटना के बारे में पूछा गया तो गंजू के भाई ने कहा कि उसने इसके बारे में कभी नहीं सुना था और उसकी भाभी ने भी कभी इसका जिक्र नहीं किया था। इस तरह की घिनौनी काल्पनिक कहानियां कपटतापूर्ण उद्देश्य से जोड़ी जाती हैं। एक राशन डिपो में, परेशान कश्मीरी पंडित महिलाओं के एक समूह को उनके मुस्लिम पड़ोसियों द्वारा राशन लेने से रोक दिया जाता है। हालांकि इस तथ्य की पुष्टि नहीं की जा सकती है, फिर भी इस संदिग्ध घटना में दिखाये गये चरम अमानवीयकरण द्वारा इस खतरनाक दावे की टोन सेट करना आसान हो जाता है कि 1990 में कश्मीर की स्थिति नरसंहार जैसी थी।

यह ऐसी फिल्म है जो चरम हिंसा के ऐसे दृश्यों को पेश करके उनमें अपने दर्शकों को क्रूरता से इतना आच्छादित कर देती है कि अंततः उनके भीतर सत्य के किसी वैकल्पिक स्वरूप, जिस सच्चाई को हम जानते हैं, उसके बारे में सोचने की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। ऐसी कुछ सच्चाइयां मेरे ध्यान में हैं: हालांकि कई लोगों के साथ भयानक त्रासदी हुई थी, फिर भी अधिकांश कश्मीरी पंडित परिवारों को उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने धोखा नहीं दिया था। हलांकि कुछ संपत्तियों को जला दिया गया था और नष्ट कर दिया गया था, फिर भी अधिकांश मंदिरों और घरों में तोड़फोड़ या लूटपाट नहीं की गई थी, और वर्षों की उपेक्षा के कारण वे धीरे-धीरे  जर्जर होकर ध्वस्त हुए। इसी तरह, हालांकि मीडिया, नौकरशाही और पुलिस के कुछ लोगों ने अपनी जिम्मेदारियों के प्रति उपेक्षा बरती होगी, फिर भी, जिस तरह से फिल्म में दिखाया गया है, उस तरह से पंडितों के उत्पीड़न में उनकी मिलीभगत नहीं थी।

सबसे अधिक आलोचनात्मक विषय तो यह है कि, संकीर्णता से भरा हुआ यह कथानक इस तथ्य को धुंधला करने में सफल हो जाता है कि 1990 के दशक में कश्मीर में जो कुछ हुआ वह मुख्य रूप से मुसलमानों और हिंदुओं के बीच का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह भारतीय राज्य के खिलाफ एक विद्रोह था। यह सब रातों-रात नहीं हुआ था, बल्कि इसका एक अपना अतीत था, जो कम से कम 1947 तक और जम्मू-कश्मीर रियासत के विभाजन तक तो जाता ही था, साथ ही इसके इतिहास में नरसंहार और आबादी के बड़े पैमाने पर विस्थापन भी शामिल थे।

तथ्यों की लाशों के बीच से कश्मीर के बारे में सत्य गढ़ना और उनमें  गैर-जिम्मेदाराना तरीके से भड़काऊ कल्पनाओं का घालमेल तैयार करना ‘द कश्मीर फाइल्स’ के एक खास एजेंडे की ओर इशारा करता है। यह फिल्म के अंत में इसके केंद्रीय नायक, कृष्णा द्वारा दिए गए एक लंबे एकालाप में काफी स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है। वह यह है कि भारत की सारी महानता कश्मीर से जुड़ी हुई है और यही वह जगह है जहां प्राचीन काल में सब कुछ फला-फूला -इसकी विद्वता, इसका विज्ञान और चिकित्सा, इसका रंगमंच, व्याकरण और साहित्य, सब कुछ। कश्मीर एक विशेष स्थान था, वह इसे एक चलताऊ बयान में -हमारी अपनी सिलिकॉन वैली, का दर्जा देता है। उसका यह बयान उसके दिमाग में चलने वाली चीज का सटीक प्रतिपादन है। उसके अनुसार 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों का पलायन उस पूर्ण पतन का संकेत देता है, जहां मुस्लिम शासकों ने हिंदू सभ्यता को पहुंचा दिया है, और उस शर्म को सुधारा जाना जरूरी है। इस एकालाप से पता चलता है कि फिल्म की दिलचस्पी 1990 के दशक में कश्मीर के बारे में सत्य को सही करने से कहीं ज्यादा है। इसकी दिलचस्पी एक नयी बात स्वीकार कराने में है। इस बार सत्य को मातृभूमि के विचार के इर्दगिर्द गढ़ा गया है। यह मातृभूमि केवल कश्मीरी पंडितों के लिए नहीं, बल्कि सभी हिंदुओं के लिए है।

तीन दशकों से अधिक समय तक, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में उसके पूर्वजों ने एक वादे के इर्द-गिर्द एक बड़े हिंदू वोट बैंक को सफलतापूर्वक सक्रिय किया। 1992 में उनके द्वारा अयोध्या में बाबरी मस्जिद का जानबूझकर किया गया ध्वंस शताब्दियों पहले भगवान राम के जन्मस्थान के ठीक ऊपर बनी एक मस्जिद की शर्म को मिटाने के लिए था। उसी जगह पर एक भव्य मंदिर के निर्माण के अभियान ने लगभग एक पीढ़ी तक इसकी राजनीति को जीवनदान दिया और भारत में भाजपा को सत्ता में ला दिया। आरएसएस और भाजपा के अन्य पूर्वजों की प्रतीकात्मक कल्पना में, कश्मीर लंबे समय से नेपथ्य में पड़ा हुआ अपनी बारी का इंतजार करता रहा।

‘द कश्मीर फाइल्स’ के माध्यम से, इसे केंद्रीय मंच पर एक प्रतीकात्मक स्थान के रूप में स्थापित किया जा रहा है, जहां हिंदुत्व की ताकतें आने वाले दशकों में अपनी भूमिका अदा कर सकती हैं। यही कारण है कि फिल्म में प्रतिपादित सूत्रों को पहले से ही पवित्र घोषित कर दिया गया है, और घटनाओं का इनसे अलग कोई भी वर्णन या नजरिया, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, उसका मुंह बंद कर दिया जा रहा है। चाहे उन चंद पंडितों का मामला हो, जो कश्मीर में आज भी रहते आ रहे हैं, लेकिन उनको ये दक्षिणपंथी तत्व कहीं भी अपने विचार व्यक्त नहीं करने दे रहे हैं, चाहे जम्मू में जर्जर शरणार्थी शिविरों में रह रहे उन पंडितों का मामला हो, जिनकी कश्मीर में हिंदू-मुस्लिम तनाव को और अधिक न भड़काने की अपीलों की लगातार अनदेखी की जा रही है।

इस फिल्म की अस्वीकृति को हल्के में नहीं लिया जा रहा है। फिल्म के निर्देशक ने हाल ही में कहा है कि फिल्म की आलोचना करने वाले केवल वही लोग हैं जो “आतंकवादी समूहों” का समर्थन करते हैं। विवेक अग्निहोत्री का कहना है कि “मैं आतंकवादियों को जवाब क्यों दूं?” इस बीच, आरएसएस खुले तौर पर ‘द कश्मीर फाइल्स’ के समर्थन में सामने आया, इसे “ऐतिहासिक वास्तविकता” का एक दस्तावेज कहा और कहा कि “ये ऐसे तथ्य हैं जिन्हें आने वाली पीढ़ियों के सामने तथ्यों के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।” 4 अप्रैल को, जब कश्मीरी पंडितों ने अपना नववर्ष ‘नवरेह’ मनाया, उस दिन आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने फिल्म के लिए और कश्मीरी पंडितों के लिए समर्थन घोषित किया। उन्होंने उनसे यह प्रतिज्ञा लेने को कहा कि उन्हें कश्मीर में, अपने घर, लौटने में बहुत समय नहीं लगेगा।

आखिरकार, ‘द कश्मीर फाइल्स’ कश्मीर में 1990 के दशक में जो कुछ हुआ था, उस इतिहास को ठीक करने वाली कोई चीज नहीं है, न ही वह कोई ऐसा माहौल बनाने वाली चीज है जो निर्वासन में जी रहे एक समुदाय की घर वापसी को आसान बना सके। इसके बजाय इस फिल्म का कथ्य कश्मीरी मुसलमानों को राक्षसों के रूप में चित्रित करने की भावना से भरा हुआ है जो कि सुलह की किसी भी संभावना को और अधिक कठिन बना देती है। इसी तरह, कश्मीरी पंडितों की वापसी के मामले को एक गौरवशाली प्राचीन अतीत के सपने से जोड़कर, एक ऐसी राजनीतिक परियोजना जो कश्मीर के 700 साल के जटिल इतिहास पर परदा डाल देता है, यह फिल्म हिंदू मातृभूमि की वापसी के विचार का बीजारोपण करती है। यह एक ऐसा विचार है जो नये तरह की बेदखली और पुनर्वास के निहितार्थों से भरा हुआ है। यही इसकी “सच्चाई” को खतरनाक बना देता है।

(डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर और लेखक संजय काक का यह लेख अल जजीरा में प्रकाशित हुआ था। इसका हिंदी अनुवाद शैलेश ने किया है।)

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