आज आपसे दिल की बात बताता हूं।
हर इंसान जवानी में क्रांतिकारी होता है। फिर हर किसी की जिंदगी में जो आगे परिस्थितियां मिलती हैं, उसके अनुसार उसका जीवन व्यवस्थित होने लगता है। आज हममें से कई मित्र काफी संवेदनशील तो कई लोग बेहद असंवेदनशील नजर आते हैं।
हमें समझ भी नहीं आता कई बार कि ऐसा क्यों है? और हम हताश हो जाते हैं, लेकिन इतिहास, अर्थशास्त्र, दर्शन और राजनीति में राजनीति असल में वह होती है, जो इन सबका समुच्चय होती है। 1947 में बड़े आदर्शों के साथ हमने आजादी और संविधान की रचना की।
उस समय भी हममें से जो संवेदनशील थे, वे इस आजादी से संतुष्ट नहीं थे। लेफ्ट, समाजवादी नेहरू को पूंजीपतियों का दलाल कहते थे और धुर दक्षिणपंथी और महात्मा गांधी के हत्यारों के साथ हमदर्दी रखने वाले लोग इसे हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे। 1957 में सीपीआई ने नारा भी दिया था, इस देश की जनता भूखी है, ये आजादी झूठी है।
चलिए सीधे आज के समय में लौटते हैं।
आज 303 सीट के साथ बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है और अपने प्रचंड अजेंडे के साथ खड़ी है। विरोध के तमाम स्वरों को अनसुना करते हुए वह सीएए पर एक इंच भी पीछे हटने को तैयार नहीं। उस पर दिल्ली के चुनाव को अगर इसका बैरोमीटर मान कर चलें, तो उसने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना दिया है।
दूसरी तरफ सड़क के जो भी आंदोलन हैं, उसको इतने भीषण होने के बावजूद वह स्थान नहीं मिल रहा है। दुनिया में भारत के बारे में संदेह व्यक्त किया जा रहा है, लेकिन फिर कहता हूं राजनीति वह बैरोमीटर है, जिसे साधकर बीजेपी एक बार फिर से देश और दुनिया को सिद्ध करना चाहती है कि देखो हम जो कहते हैं, देश हमारे साथ खड़ा है।
इसी को लेकर वह दिल्ली में एक गहन प्रचार अभियान चला रही है। इसमें किसी भी कीमत पर जीतने की गारंटी करनी है। ऐसा उसने गुजरात चुनाव और आम लोकसभा चुनाव में कर दिखाया है।
मेरा आज भी दावा है कि गुजरात चुनाव में जिस बुरी तरह कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा था, उसके बावजूद वह चुनाव जीत सकती थी, लेकिन बीजेपी आरएसएस ने दिन रात एक कर, व्यापारियों छोटे और मझौले व्यापारियों से मिन्नतें कर करके वह चुनाव बड़ी मुश्किल से आख़िरकार निकाल ही लिया। और गुजरात मॉडल की लाज, अपने दो सबसे बड़े नेताओं की प्रतिष्ठा को आखिरकार बचा ही लिया। इस बात की कीमत कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों को क्यों नहीं है, ये वे जानें।
लेकिन हम आप इस बात को पिछले पांच वर्षों के अनुभवों से देख रहे हैं। इसी तरह लोकसभा चुनावों से एक महीने पहले भी यही स्थिति थी। आरएसएस ने पहले से ही भांपते हुए, अपना प्रत्याशी नितिन गडकरी के रूप में वैकल्पिक तौर पर उभारना शुरू कर दिया था। ममता, बीजू जनता दल और अन्य दक्षिण भारतीय दलों के साथ वार्ता और पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को नागपुर आमंत्रण यूं ही नहीं हुआ था।
लेकिन किस्मत देखिये पुलवामा हुआ, और उसके बाद की कहानी को इस तरह चित्रित किया गया कि जो किसान और दलित पूरे पांच साल मोदी शासन के खिलाफ खड़ा था, उसे देश का सवाल सबसे बुरी तरह सताने लगा। उन तीन हफ़्तों में पूरे देश के माहौल में महंगाई, बेरोजगारी, दलितों, अल्पसंख्यकों के सवाल, पब्लिक सेक्टर के बेचने, बैंकों की तबाही सब भुला दिए गए। पूरा देश जैसे सीमा पर खड़ा था। पाकिस्तान जिसकी हालत हमसे भी कई गुना खराब है, उसका आतंक लोगों के चेहरे पर चस्पा था।
चुनाव खत्म हुए, और बीजेपी ने इसे अपने लिए और बड़ा जनता का आशीर्वाद बताया। और घोषित कर दिया कि पिछले पांच साल जितने अन्याय किए, उससे जनता को कोई तकलीफ ही नहीं थी। होती तो वह हमें वोट देते? उन्होंने तो हमें खुला खेल फरुक्खाबादी करने के लिए अभयदान दिया है।
अब खेल को समझने की जरूरत है। आपने वोट दिया किसी और कारण से। गुस्सा आपको अपनी बर्बाद होती जिन्दगी के लिए भी था, लेकिन राजनीति उसे कैसे इस्तेमाल करती है? अगले पांच सालों के लिए आपकी किस्मत आपके हाथ से छीन ली गई। सबसे पहले तीन तलाक पर मुस्लिम महिलाओं के प्रति अन्याय को खत्म करने वाले बीजेपी के नेता आज उन्हीं महिलाओं को आतंकी, 500 रुपये में रात रात भर धरना प्रदर्शन करने से लेकर शाहीन बाग़ को आतंक की फैक्ट्री कह रहे हैं।
खैर, आपके प्रचंड बहुमत से कश्मीर को आज छह महीनों से कैद की जिन्दगी जीनी पड़ रही है। और तो और अब पूरे देश को रोजगार, आर्थिक संकट से मुक्ति कैसे लाई जाए के बजाय खुद के नागरिकता के सबूत ढूंढने की चिंता धीरे-धीरे सतानी शुरू हो चुकी है।
यह सब आप जानते हैं।
लेकिन जिस बात को एक बार फिर नजरअंदाज कर दिया जाएगा, वह है दिल्ली के पिद्दी से विधानसभा के चुनाव के महत्व को। इस जीत को हासिल करने से सरकार को क्या फायदे होने जा रहे हैं? हो सकता है आम आदमी पार्टी के लिए इसका काफी महत्व हो। राजनीतिक तौर पर बीजेपी कांग्रेस के लिए एक अर्ध राज्य को जीतने का कोई खास महत्व नहीं हो।
लेकिन सामरिक तौर पर ऐन सीएए, एनआरसी और एनपीआर के वक्त जब देश चौराहे पर खड़ा है, दिल्ली का संदेश सरकार के लिए वैश्विक महत्व का है। इससे कई शिकार साधे जाने हैं। जीत जाने की सूरत में इसे सरकार के सीएए के प्रति देश की राजधानी का खुला समर्थन घोषित किया जाना है। जीत जाने पर इसे हिंदू समाज के पूर्ण रूप से बीजेपी के प्रति निष्ठा के तौर पर दिखाया जाना है। जीत जाने पर यूरोपीय यूनियन से लेकर अमरीका को यह बताना है कि देश मोदी के समर्थन में खड़ा है।
यह उनके लिए बहुत बड़ी नैतिक जीत है। चाहे वह किसी भी प्रकार से आये। इसके साथ ही सोशल मीडिया के प्रयोगों की महत्ता पर भी चार चांद लगाने वाला यह साबित होगा। इसके बाद मान लिया जाएगा, भारत की जनता को जितने भी कोड़े मारो, रोने और चिल्लाने दो। इसे दो हफ़्तों के प्रचार अभियान से हर बार अंधा किया जा सकता है। यह हिटलर के प्रचार अभियान से होते हुए नव उदारवादी काल के हाफ ट्रुथ युग का स्वर्णिम काल सिद्ध होगा। और अगर हार गए तो भी प्रचार अभियान तो चलना ही है।
आपकी लड़ाई बीजेपी और आरएसएस को हराकर खत्म नहीं होनी है। इस देश के 63 लोग बाकी समूची आबादी से आज मजबूत हो चुके हैं। और उनके कमजोर होने के कोई आसार दूर दूर तक नहीं हैं। अर्थव्यस्था में अपने लिए फायदे के लिए इन बेहद ताकतवर ऑक्टोपस को बीजेपी, कांग्रेस समेत करीब-करीब सभी दलों को डस रखा है।
आपके लिए, आपके बच्चों के लिए, आपके बर्बाद होते समाज के लिए बचने की गुंजाइश बेहद कमजोर है। सत्ता में जो चाहे आए। लेकिन जो एका हाल के समय में बननी शुरू हुई है, जो तार्किक रूप से सोचने वाले लोगों का जमावड़ा बनना शुरू हुआ है। उन विद्यार्थियों, बौद्धिक वर्गों और समाज के चेतनशील लोगों के सामने आने, मुस्लिम महिलाओं में कई दशकों बाद एक बार फिर से भारतीय संविधान के प्रति सरोकार, हम भारत के लोग के प्रति बढ़ते लगाव और भाईचारे को बढ़ाते जाने में ही इस संतुलन को बनाने और अपने पक्ष में करने की असीम संभावनाएं निहित हैं।
हमारे पास कोई जादुई चिराग नहीं है। हमें इन गहन अंधकार में एक-दूसरे का हाथ थामे, टटोल-टटोल उजास की ओर कदम बढ़ाना है। और कोई रास्ता नहीं है।
(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)