Saturday, April 27, 2024

स्वास्थ्य के मामले में सूडान से भी बदतर है यूपी की स्थिति

अगले कुछ हफ्तों में, देश का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश नई सरकार के लिए मतदान करेगा। दुर्भाग्य से, सबसे अधिक आबादी वाला होने के अलावा, उत्तर प्रदेश देश में सबसे अधिक “बीमारू राज्यों” की सूची में शामिल है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5) के हाल ही में प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि राज्य की स्थिति जम्मू-कश्मीर जैसे संघर्ष वाले क्षेत्रों से भी बदतर है। इसलिए यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि कोविड -19 की दूसरी लहर में राज्य की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था का जो रूप सामने आया, वह संयोग से नहीं था, बल्कि स्वास्थ्य सेवा की सरकार द्वारा की जा रही उपेक्षा का नतीजा था। यह चीज चल रहे वर्तमान चुनाव अभियान में और भी अधिक स्पष्ट है जहां चुनावी चर्चा के विषय मौजूदा शासन द्वारा निर्धारित की जाती है और कोई “लोगों के स्वास्थ्य” पर चर्चा नहीं करना चाहता है।

परंपरागत रूप से, भारत में चुनावी अभियानों में स्वास्थ्य और शिक्षा कभी भी चर्चा का विषय नहीं रहे हैं, लेकिन कोविड -19 महामारी के वर्तमान दौर में यह अनिवार्य है कि मृत्यु और बीमारी के लिए स्पष्ट जवाबदेही तय हो। कोविड -19 द्वारा फैलाई गई तबाही को देखते हुए,  लोगों ने अपने स्वास्थ्य के बारे में बातें करना शुरू कर दिया है। स्वास्थ्य संबंधी यह चर्चा सबसे दक्षिणपंथी शासन वाले देशों (जैसे ब्राजील और फिलीपींस में) में भी सुनाई दे रही है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5(NFHS-5) ने भारत के चिरस्थायी स्वास्थ्य संकट के बारे में कुछ चौंका देने वाले तथ्य उजागर किए हैं। यह तथ्य उस स्थिति में सामने आएं हैं, जब भारत 2000 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) को हासिल करने के मामले में एक हस्ताक्षरकर्ता है। यूपी के संदर्भ में एनएफएचएस -5 के जो नतीजे आए हैं, उनका मूल्यांकन करने से पता चलता है कि संकट कितना गहरा है और जवाबदेही तय करने की आवश्यकता कितनी जरूरी है। एनएफएचएस-5 के अनुसार, उत्तर प्रदेश की शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) प्रति 1,000 जीवित जन्मे बच्चों पर 50.4 है। यानि उत्तर प्रदेश में जन्म लेने वाले 1000 बच्चों में से 50.4 बच्चों की मृत्यु जन्म लेने के एक वर्ष के अंदर हो जाती है। यह दुनिया के सबसे हिंसक संघर्ष वाले क्षेत्रों से भी बदतर है। सीरिया के लिए आईएमआर प्रति 1,000 जीवित जन्मे बच्चों पर 16 है और इराक के लिए यह प्रति 1,000 जीवित जन्मे बच्चों पर 20 है।

उत्तर प्रदेश में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर और भी अधिक निराशाजनक है, जो प्रति 1,000 जीवित जन्मे बच्चों पर 59.8 है यानी उत्तर प्रदेश में जन्म लेने वाले 1000 बच्चों में से 59.8 बच्चों की मृत्यु पांच वर्ष के अंदर हो जाती है। जब कि जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में एनएफएचएस -5 का यह आंकड़ा 9.8 है यानी जम्मू-कश्मीर से 6 गुना अधिक बच्चों की मौत पांच साल के अंदर उत्तर प्रदेश में हो जाती है। (यह आंकड़ा सीरिया के लिए प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 16 है)। आईएमआर और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर दोनों ही आबादी के स्वास्थ्य के सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील संकेतकों में से हैं। यूपी के लिए, ये आंकड़े 2030 के सतत विकास लक्ष्य- 3 के लक्ष्य के आसपास कहीं नहीं हैं, जिसका लक्ष्य स्वस्थ जीवन सुनिश्चित करना और सभी उम्र के लोगों के लिए कल्याण को बढ़ावा देना है।

यहां तक कि जब हम एनएफएचएस-5 में यूपी के खराब स्वास्थ्य संकेतकों पर जार-जार रोते हैं, तो इसके साथ ही अन्य त्रासद बीमारियां राज्य के लोगों की कल्याण और स्वास्थ्य को सीधे प्रभावित करती हैं। एनएफएचएस-5 के आंकड़े बताते हैं कि 5 साल से कम उम्र के 39.7 फीसदी बच्चे अविकसित हैं। 6-59 महीने की उम्र के बीच के 66.4 प्रतिशत बच्चे एनीमिक (खून की कमी के शिकार) हैं। एनीमिया के लिए यह आंकड़ा एनएफएचएस -4 (2015-16) के आंकड़े 63.4 प्रतिशत से बदतर हो गया है।

2021 की वैश्विक पोषण रिपोर्ट से पता चलता है कि पूरे अफ्रीका में सबसे खराब कुपोषण वाले दक्षिण सूडान में 5 साल से कम उम्र के बच्चों के अविकसित होने का प्रतिशत 31.3 है यानि उत्तर प्रदेश की इस मामले में स्थिति (39.5) अफ्रीका के सबसे बदतर देश (दक्षिण सूडान) से भी बदतर है। एनएफएचएस-5 के अनुसार, उत्तर प्रदेश में प्रजनन आयु वर्ग (15-49 वर्ष) की 50.4 प्रतिशत महिलाओं में एनीमिया (खून की कमी) है। 2019 में, दक्षिण सूडान में प्रजनन आयु वर्ग के भीतर की 35.6 प्रतिशत एनीमिक महिलाएं थीं। इन तथ्यों के आलोक में देखें, तो यह बात सामने आती है कि जितने अविकसित बच्चों (39.7 प्रतिशत) और जितनी एनमिक महिलाओं (50.4 प्रतिशत) का समूह उत्तर प्रदेश में है उतना शायद ही धरती के किसी कोने में हों। एनीमिया और कुपोषण जानलेवा बीमारी और मृत्यु के अग्रदूत हैं।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भारत के सभी राज्यों की तुलना में यूपी में टीबी (तपेदिक) के सबसे अधिक मामले हैं और देश में दर्ज किए गए कुल टीबी मामलों के 20 प्रतिशत से अधिक के लिए अकेले यूपी जिम्मेदार है। सिर्फ 2020 में यूपी में टीबी के 4 लाख से अधिक मामलों का पता चला था। इसके उलट यह उसी वर्ष के दौरान पड़ोसी राज्य बिहार में कुल टीबी के सिर्फ 1.23 लाख मामले दर्ज हुए थे। बिहार पिछले दशकों में सबसे खराब टीबी के आंकड़ों के लिए जाना जाता था। अधिक चिंता की बात यह है कि बहु-दवा प्रतिरोधी टीबी (एमडीआर-टीबी) की घटनाएं यूपी में दूसरे स्थान पर हैं, जहां टीबी के नए निदान मामलों में एमडीआर 4.53 प्रतिशत है। दवा प्रतिरोधी टीबी के इस उच्च प्रतिशत का भविष्य के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पडेगा, इसका किसी को अनुमान नहीं है।

यूपी में भी महामारी अक्सर दिखाई देती है। एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के कारण गोरखपुर के एक सरकारी अस्पताल में 2017 में बच्चों की मौत एक चिंतनीय मामला है, जो राज्य में कुपोषण की स्थिति और स्वास्थ्य की क्रूर उपेक्षा के जहरीले मिश्रण का प्रतीक है।

यूपी में एईएस की महामारी असामान्य नहीं है। एईएस के कारण पिछले वर्षों में बच्चों की मृत्यु की संख्या 2014 में 5,850, 2015 में 6,917 और 2016 में 6,121 थी। डेंगू और मलेरिया की महामारी भी एक सामान्य घटना है। नवंबर 2021 में, उत्तर प्रदेश में डेंगू के मामलों की संख्या वर्ष 2021 में 23,000 का आंकड़ा पार कर गई थी, जिससे इस बीमारी की राज्य में कई वर्षों में सबसे खराब प्रकोप की स्थिति बन गई। यहां 2016 के बाद से यूपी में डेंगू के सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए थे। मैं राज्य में कोविड -19 की दूसरी लहर के मद्देनजर देखी गई मौत और तबाही का उल्लेख करने से बच रहा हूं।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, भारत में, स्वास्थ्य पारंपरिक रूप से राजनीतिक वर्ग की संकल्पना का हिस्सा नहीं है। लोगों को गलत तरीके से यह मानने के लिए तैयार किया जाता है कि स्वास्थ्य उनकी अपनी जिम्मेदारी है। महामारी के बाद, इस देश में स्वास्थ्य संबंधी चर्चाएं केंद्र में आने लगी हैं। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि मृत्यु और तबाही के बारे में भूलने की सामूहिक आदत को प्रेरित करने के लिए राजनीतिक वर्ग दृढ़ संकल्प है, विशेष रूप से कोविड -19 की क्रूर दूसरी लहर के बाद।

चिकित्सकीय उपेक्षा और मृत्यु की यादें जवाबदेही तय करती हैं, और जवाबदेही चुनावी संभावनाओं को प्रभावित करती है। जैसे-जैसे यूपी में चुनाव प्रचार तेज हो रहा है, हम मंदिरों, मस्जिदों, “लव जिहाद” और हिजाब के बारे में अधिक से अधिक सुन रहे हैं। स्वास्थ्य संकट चुपचाप बड़ा होता जाता है क्योंकि हम महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने से विचलित हो जाते हैं। यूपी के मतदाताओं को यह समझना चाहिए कि राम राज्य के विशाल भीतरी इलाकों में कहीं न कहीं “लव जिहाद”, हिजाब या मंदिर के बारे में गैर-जिम्मेदाराना बयानों के परिणाम के रूप में, कुछ सौ और पुरुषों, महिलाओं और बच्चों ने अपनी अंतिम सांसें ली होंगी। कुपोषण, एईएस, टीबी या एनीमिया के चलते।

(एम्स में चिकित्सक डॉ. शाह आलम खान का यह लेख आज के द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ था जहां से इसे साभार लिया गया है। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद डॉ. सिद्धार्थ ने किया है।)

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