Thursday, April 18, 2024

अंडरस्टैंडिंग मार्क्स भाग-3: किसान को वर्किंग क्लास समझा जाए या बिजनेसमैन?

(अमेरिकी अर्थशास्त्री रिचर्ड डी वुल्फ के यूट्यूब पर उपलब्ध वीडियो से तीसरी किस्त। अपनी किताब `अंडरस्टैंडिंग मार्क्स` के संदर्भ में अपलोड किए गए इस वीडियो के जरिये वुल्फ ने मार्क्सवाद को आसान ढंग से समझाने की कोशिश की है। इसे हिन्दी में अमोल सरोज उपलब्ध करा रहे हैं।)   

सवाल: किसानों के संदर्भ में मार्क्सिस्ट नज़रिया क्या कहता है? किसान को वर्किंग क्लास समझा जाए या बिजनेसमैन क्योंकि वो मजदूरों से काम भी करवाता है? 

मैं आपको समझाने की कोशिश करता हूँ कि किसी भी आबादी (चाहे वह छोटा सा गांव हो, शहर हो, स्टेट हो या देश) के लिए मार्क्सवादी नज]रिया कैसे काम करता है। वह क्या बात है जो मार्क्स बताना चाहता था। हम वह देखने की कोशिश करते हैं जो बाकी सब देखने में नाकाम रहते हैं। 

इंसानों का हर समुदाय, ‘समाज’ या कम्युनिटी एक व्यवस्था के तहत काम करते हैं। यह सम्भव है कि लोगों को उस व्यवस्था के बारे में पता न हो पर वे सब व्यवस्था के अधीन काम करते हैं। इंसान बहुत से काम करता है जिनके कारण के बारे में वह बता नहीं पाता। लोग साइकोलॉजिस्ट के पास जाते हैं। मेरी पत्नी भी साइकोलॉजिस्ट हैं। साइकोलॉजिस्ट उन बातों के कारण समझाता है। मार्क्स ने सामाजिक आधार पर चीज़ें समझाईं । आप गौर करेंगे तो आपको दिखेगा कि हर कम्युनिटी में कुछ चीजें कॉमन होती हैं। ये अपने आप हो जाती हैं।

हर कम्युनिटी अपनी आबादी में से कुछ सदस्यों को चुन लेती है। अगर सौ लोगों की कम्युनिटी है तो 20 लोग ले लिए। अगर पचास हज़ार लोगों की कम्युनिटी है तो इसी तरह अधिक सदस्य ले लिए। उन लोगों को एक विशेष काम दे दिया जाता है जिसमें उनकी दिमाग़ी और जिस्मानी मेहनत लगती है जैसे पेड़ की लकड़ी काटकर कुर्सी बनाना, जैसे भेड़ पाल कर ऊन बनाना। 

अब कम्युनिटी में बहुत सारे सदस्य होते हैं जिनसे ये सब काम करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। जैसे, कोई दो साल के बच्चे से काम करने को नहीं कहेगा। कोई 80 साल के बूढ़े इंसान से भी काम करने की अपेक्षा नहीं रखेगा। इसका मतलब हुआ कि हर कम्युनिटी में जो लोग काम करते हैं, उन्हें जितनी खुद के लिए ज़रूरत है, हमेशा उससे `ज़्यादा` उत्पादन करना पड़ता है, नहीं तो कम्युनिटी के बाकी सदस्य जिंदा नहीं रह पायेंगे। वे बूढ़ों, बच्चों को कपड़े, खाना, घर मुहैया करवाते हैं। अब मार्क्स यहाँ कहते हैं कि सारा मसला यही है कि सोसाइटी इस `ज़्यादा` उत्पादन को कैसे डील करती है।

ज़्यादा उत्पादन करने के लिए मार्क्सिस्ट `सरपल्स` शब्द का इस्तेमाल करते हैं। लोगों द्वारा अपनी ज़रूरत से ज़्यादा उत्पादन करने को वे `सरपल्स` कहते हैं। जर्मन में इसकी जगह MEHR शब्द का इस्तेमाल हुआ है।  M-E-H-R का मतलब है – MORE यानी ज़्यादा। ये आसान और स्पष्ट है। `सरपल्स` से लगता है कोई भारी-भरकम बात है पर ऐसा है नहीं। अंग्रेजी में अनुवाद यही हुआ है – `सरपल्स`  तो हर सोसाइटी `ज़्यादा उत्पादन` (अधिरोष/अधिशेष) करती है। यह हर कम्युनिटी में होता है।

एक कम्युनिटी, दूसरी कम्युनिटी से अलग सिर्फ़ इसी बात में है कि वहाँ कौन लोग हैं जो `ज़्यादा उत्पादन` करते हैं और कौन लोग हैं जो यह निर्णय लेते हैं कि `कितना` ज़्यादा उत्पादन करना है और उस `ज़्यादा` का कैसे बंटवारा किया जाएगा। यह सब कैसे काम करेगा। यहीं से पॉलिटिक्स, सभ्यता, कला और संगीत निकलते हैं, फलते-फूलते हैं। दूसरे शब्दों में कहें कि अगर आप पॉलिटिक्स, संस्कृति, कला और संगीत के बारे में जानना चाहते हैं तो उससे पहले आपको कुछ आधारभूत बातें समझनी चाहिए जैसे `ज़्यादा` का उत्पादन और उसका बंटवारा।

इसी को मार्क्स का वर्ग विश्लेषण कहा जाता है – क्लास  एनेलेसिस। एक वर्ग वह जो सरप्लस का उत्पादन करता है, दूसरा वह जो उसका बंटवारा करता है, सरप्लस को कैसे इस्तेमाल किया जाए, इसका निर्णय लेता है। 

एक सिस्टम तो यह है जिसमें जो लोग `ज़्यादा` उत्पादन करते हैं, उसका बंटवारा भी वही लोग करते हैं। वे आपस में तय करते हैं कि यह जो ज़्यादा बचा हुआ है, इसका क्या किया जाए? वे इसे बच्चों में बाँटते हैं, बूढ़ों को देते हैं, संगीतकारों को देते हैं या और भी लोगों को देते हैं जिन्हें देना वे ठीक समझते हैं। वे अगर खेतों में काम करते वक़्त गाना सुनना चाहते हैं तो वे गायकों, संगीतकारों, चित्रकारों के खाने-पीने, रहन-सहन का ख़्याल रखते हैं ।

पर, हमारे पास एक दूसरा सिस्टम भी है। इस सिस्टम में जो लोग `ज़्यादा` उत्पादन करते हैं, उन्हें हम एक नाम दे देते हैं – ग़ुलाम। उनका उस उत्पादन पर हक़ नहीं होता है। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि वह `ज़्यादा` उत्पादन किसे मिलता है। उन लोगों को जिन्हें मालिक कहा जाता है। इसमें `ज़्यादा` उत्पादन का इस्तेमाल कौन करता है? मालिक। 

अब 10 साल का बच्चा भी यह बात समझ सकता है कि मालिक `ज़्यादा` उत्पादन का इस्तेमाल उस तरह से नहीं करेंगे जिस तरह से वे मजदूर करते जिन्होंने उस सरप्लस का निर्माण किया है ।

मजदूर वह कोऑपरेटिव संस्था होती है जिसमें मजदूर ही उत्पादन करते हैं और वही तय करते हैं कि ज़्यादा उत्पादन का क्या करना है। यह बात उसे पूंजीवाद, ग़ुलाम व्यवस्था या जागीरदारी से अलग करती है।

ग़ुलाम व्यवस्था में ग़ुलाम उत्पादन करता है और सारा हक़ मालिक का होता है। मालिक तय करता है, उत्पादन का इस्तेमाल किस तरह करना है। 

जागीरदारी या सामंतवाद में भी किसान-मज़दूर उत्पादन करते हैं और सारा हक़ जागीरदार का होता है। 

पूंजीवाद में सारा काम कर्मचारी करते हैं और उत्पादन पर सारा हक़ इम्पलॉयर का होता है जिसे मालिक ही कहा जाता है। 

कार्ल मार्क्स का क्रांतिकारी विचार कहता है कि हमें ग़ुलाम-मालिक, किसान–जागीरदार या इम्पलॉयी-इम्पलॉयर वाले रिश्ते से पीछा छुड़ाना होगा। हमें ग़ुलाम नहीं चाहिए, हमें गरीब मज़दूर नहीं चाहिए। हम नहीं चाहते कि कुछ लोगों (चाहे उन्हें मालिक बोलो, नियोक्ता बोलो, जागीरदार बोलो, राजा बोलो) के हाथ में उत्पादन के इस्तेमाल के सारे अधिकार हों और उन सब लोगों को इस हक़ से महरूम कर दिया जाये जिन्होंने अपनी मेहनत से उत्पादन किया है। 

अब मैं मूल सवाल पर आता हूँ। खेती, किसानी भी कुछ अलग नहीं है। यह भी ग़ुलाम व्यवस्था, जागीरदारी, पूंजीवाद या समाजवाद, किसी भी प्रणाली के तहत हो सकती है। 

आप साउथ अमेरिका को याद कीजिए। लम्बे समय तक ग़ुलामों ने खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत की और मालिकों ने उनकी मेहनत के दम पर बड़े-बड़े बंगले बना लिये। ज़्यादा उत्पादन किया ग़ुलामों ने। ज़्यादा उत्पादन का क्या करना है, यह तय किया मालिकों ने। 

आप भारत में देखिए, जहाँ दलितों-वंचितों ने अपनी मेहनत से ज़्यादा उत्पादन किया और जागीरदारों, राजाओं ने उस उत्पादन का इस्तेमाल अपने महल बनाने के लिए किया। आज आप बतौर टूरिस्ट उदयपुर, मैसूर या ग्वालियर के शानदार महल देखने जाते हो। आपको लगता है जिन दलितों-वंचितों ने खेतों में अपना खून-पसीना एक किया है, उन्हें फैसला करने का हक़ होता तो वे मात्र पांच-दस इंसानों के लिये ऐसे महल बनाने की इजाजत देते? बिल्कुल नहीं देते।

हजारों-लाखों कर्मचारी कुरियर बनकर हर रोज़ लोगों का सामान उन तक पहुंचाते हैं। मेहनत भरे इस काम से जो करोड़ों की सम्पदा का उत्पादन होता है, उसे खर्च करने का हक़ किस को है? Jeff bezos को। अमेज़ोन का मालिक है ये। काम क्या है? पैकेज डिलीवर कराता है। यह दुनिया का सबसे अमीर आदमी है। सही है! पैकेज डिलीवर कराने से ज़्यादा महत्वपूर्ण काम और क्या होगा! कोई भी जागरूक और तार्किक सोसाइटी सबसे ज़्यादा पैसे उसे ही देगी जो पैकेज जल्दी डिलीवर कराता हो? ऐसे आदमी के पास तो 150 बिलियन  डॉलर होने बनते ही हैं? उसने अभी अपनी पत्नी को तलाक दिया है। तलाक के एवज में उसकी पत्नी को 39 मिलियन डॉलर मिले हैं। अब उसकी पूर्व पत्नी दुनिया की 22वीं सबसे अमीर इंसान है।

सच बताना आपको क्या लगता है? अगर अमेज़ोन के सब कर्मचारी जो अपनी मेहनत से सारी दुनिया में सामान पहुंचाते हैं, जिनके दम पर ये अकूत सम्पदा एकत्रित हुई है, अगर उन सबको मौका मिले कि वे एक साथ बैठकर ये तय कर सकें कि इस सरप्लस का क्या करना है तो वे क्या करेंगे? क्या वे यह सारा पैसा जैफ बिज़ोस जैसे आदमी को दे देंगे जो चाँद पर घूमने की तैयारी कर रहा है? वे लोग जो सारा दिन अपना पसीना बहाते हैं, वे क्या यही चाहते हैं कि उनकी मेहनत से अर्जित की गयी सम्पदा से एक आदमी को चाँद की सैर करवा दी जाए? (उसे चाँद से वापस धरती पर न लाने की शर्त पर तो शायद कुछ लोग सहमत हो भी जाएं)।

तो खेती की बात करते हैं। हाँ, दुनिया भर में ऐसी किसान कम्युनिटी हुई हैं, आज भी हैं जो मिलकर खेती करती हैं, मिलकर पशु पालती हैं और उनकी खुद की ज़रूरत से ज़्यादा उत्पादन होता है। कम्युनिटी के सारे लोग मिल-बैठ कर सामूहिक रूप से तय करते हैं कि उस ज़्यादा उत्पादन का क्या करना है। जो कम्युनिटी इस तरह की व्यवस्था से काम करती है जिसमें कम्युनिटी तय करती है कि ज्यादा उत्पादन का क्या किया जाये उसे मार्क्स ने एक नाम दे रखा है – कम्युनिज़्म। और इस तरह काम करने वाली कम्युनिटी के लोगों को कहा जाता है कम्युनिस्ट।

यस, मिल-बांट कर खाने वालों को, सबके साथ रहने-चलने वालों को कम्युनिस्ट कहा जाता है। जिसे हम बचपन में एकलखोरा कह कर चिढ़ाते थे जो दूसरों का हिस्सा भी खाने की फिराक़ में रहता था, उसे ही कैपिटलिस्ट कहा गया है। हर माँ-बाप अपने बच्चों को कम्युनिज़्म की शिक्षा देते हैं – बेटा मिल-बांट कर खाना चाहिए, सब के साथ खेलना चाहिए, एकलखोरा नहीं बनना चाहिए।

कम्यूनिटी में से `ism` हटा दो तो यह भयभीत नहीं करता है। आप इसे इस तरह से समझिए तो लोग इससे जुड़ाव महसूस करने लगते हैं। उन्हें यह किसी दूसरी दुनिया की बात नहीं लगती है। मैं जब लोगों को ऐसे बताता हूँ तो वे इसे अपने आस-पास महसूस करने लगते हैं। हाँ, मेरे दादा-दादी ऐसा ही करते थे। पर, जब मैं बताता हूँ कि ये कम्युनिज़्म है तो उनको हल्का हार्ट-अटैक महसूस होने लगता है। मैं एक बार सिलिकॉन वैली में गया तो वहाँ मैं कुछ इंजीनियर्स से मिला था जो बड़ी-बड़ी कम्पनियों से इस्तीफा देकर साथ मिले थे। सबको वहाँ दो लाख से तीन लाख डॉलर तक की तनख्वाह मिलती थी पर इन सब को कॉरपोरेट कल्चर से नफरत थी। सूट पहने एक आदमी आता था, आदेश देता था कि उन्हें क्या सॉफ्टवेयर डेवलप करना है। उन्हें टाई पहनने में कोफ़्त महसूस होती थी तो सब ने जॉब छोड़ दी और किसी के गैराज में खुद का काम करना शुरू कर दिया।

वे हर रोज अपना लैपटॉप लेकर आते, मस्ती से काम करते, कोई अपना कुत्ता साथ ले आता, कोई सिर्फ़ निकर में आ जाता। वे हफ्ते में चार दिन काम करते और पांचवें दिन सब मिलकर तय करते कि आगे क्या करना है। मैंने कहा वॉव, आप लोग तो कम्युनिस्ट हो तो वे सब आतंकित हो गये। वे कहने लगे नहीं, नहीं हम तो एंटरप्रेन्योर हैं। मैंने कहा, तुम इसे बैगनी जिराफ कह लो, मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है। मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि तुम लोगों ने पूंजीवाद को ठोकर मारी, पूंजीवादी नौकरी छोड़ी, सब एक साथ आए और एक कम्युनिस्ट संस्था की स्थापना की। उन्होंने मुझे बताया कि जब से उन्होंने यह नया काम शुरू किया है, उन्हें बहुत मज़ा आना शुरू हो गया है। जो विचार उन्हें अब आ रहे हैं, वे पहले नहीं आते थे। उन सब को एक दूसरे का साथ और इस तरह से काम करना रास आ रहा था। मैंने उनसे कहा कि तुम लोग कम्युनिज़्म का बेहतरीन इश्तिहार हो।

वापस खेती-किसानी की तरफ लौटते हैं। क्या किसान कैपिटलिस्ट हो सकते हैं? बिल्कुल हो सकते हैं। क्या पूंजीवादी तरीक़े से खेती हो सकती है? बिल्कुल हो सकती है, हुई है, हो रही है।

(अमोल सरोज एक चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं। लेकिन बौद्धिक जगत की गतिविधियों में भी सक्रिय रहते हैं। उनकी सोशल मीडिया पर प्रोग्रेसिव- जन पक्षधर नज़रिये से की जाने वाली उनकी टिप्पणियां मारक असर वाली होती हैं। व्यंग्य की उनकी एक किताब प्रकाशित हो चुकी है।)

अंडरस्टैंडिंग मार्क्स- भाग-1

अंडरस्टैंडिंग मार्क्स- भाग-2

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