Friday, March 29, 2024

आदिवासी हिंदू क्यों नहीं हैं?

भारत में अनुसूचित आदिवासी समूहों की संख्या 700 से अधिक है। भारत में 1871 से लेकर 1941 तक हुई जनगणनाओं में आदिवासियों को अन्य धर्मों से अलग धर्म में गिना गया। जैसे 1871 में ऐबरजिनस (मूलनिवासी), 1881 और 1891 में ऐबरजिनल (आदिम जनजाति), 1901 और 1911 में एनिमिस्ट (जीववादी), 1921 में प्रिमिटिव (आदिम), 1931 व 1941 में ट्राइबल रिलिजन (जनजातीय धर्म) इत्यादि नामों से वर्णित किया गया। वहीं आजाद भारत में 1951 की जनगणना के बाद से आदिवासियों को अलग से गिनना बंद कर दिया गया।

भारत की जनगणना 1951 के अनुसार आदिवासियों की संख्या 9,91,11,498 थी, जो 2001 की जनगणना के अनुसार 12,43,26,240 हो गई। यह देश की जनसंख्या का 8.2 प्रतिशत है। केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां रहती हैं। वहीं झारखंड में 86 लाख से अधिक आदिवासी हैं।

आदिवासी लोग अपने पर्व-त्योहारों का पालन करते हैं, जो पूरी तरह प्रकृति आधारित है, जिसका किसी भी धर्म के साथ कोई सीधा संबंध नहीं है। वे अपने आदिवासी रीति-रिवाजों के अनुसार शादी-विवाह करते हैं। उनकी प्रथागत जनजातीय आस्था के अनुसार विवाह और उत्तराधिकार से जुड़े मामलों में सभी विशेषाधिकारों को बनाए रखने के लिए उनके जीवन का अपना तरीका है।

भारत में आदिवासियों को दो वर्गों में अधिसूचित किया गया है- अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित आदिम जनजाति। बता दें कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 2 (2) के अनुसार अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होता है, यानी ऐसे में आदिवासियों पर हिंदू विवाह अधिनियम लागू नहीं होता है, जो संवैधानिक स्तर से भी इन्हें हिन्दू नहीं बनाता है।

उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में छात्रों की ओर से पिछले 21 फरवरी को आयोजित एक कांफ्रेंस जिसका विषय था ‘झारखंड कैसा है और भारत कैसा है?’ को संबोधित करते हुए झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा था, “आदिवासी कभी भी हिन्दू नहीं थे, न हैं। इसमें कोई कंफ्यूजन नहीं है। हमारा सब कुछ अलग है।” उन्होंने आगे कहा था कि हम अलग हैं, इसी वजह से हम आदिवासी में गिने जाते हैं। हम प्रकृति पूजक हैं।

हेमंत सोरेन के इस कथन पर काफी प्रतिक्रियाएं हुईं, खासकर हिन्दुवादी संगठनों की प्रतिक्रिया काफी आक्रामक रही। वैसे हम इस विवाद पर न जाकर ‘आदिवासी हिन्दू क्यों नहीं हैं?’ पर कुछ लोगों की राय ली, जिसमें आदिवासी समुदाय के लोगों के साथ कुछ गैरआदिवासी भी शामिल रहे हैं।

पूर्व मंत्री देव कुमार धान कहते हैं- आदिवासी हिन्दू इसलिए नहीं हैं कि हिन्दुओं में जो वर्ण व्यवस्था है उसमें आदिवासी कहीं नहीं हैं। वे आगे कहते हैं कि हिन्दुओं के लिए 1955 में हिन्दू मैरिज एक्ट बना है, जो आदिवासियों पर लागू नहीं होता है। वैसे सुप्रीम कोर्ट भी कई बार कह चुका है कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं। दूसरी तरफ आदिवासियों की जीवन शैली, उनके रस्मो-रिवाज, उनकी संस्कृति, उनका पर्व-त्योहार, पूजा-पाठ, पूजा की पद्धति, पूजा स्थल सबकुछ हिन्दुओं से अलग है। अत: आदिवासी न कभी भी हिन्दू थे, न हैं, न आगे होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारा सब कुछ अलग है।

आलोका कुजूर का मानना है कि आदिवासी प्रकृति पूजक होते हैं, वे कर्मकांड में विश्वास नहीं करते हैं। वे नदी, पहाड़ व पेड़ की पूजा करते है। वे भ्रम की नहीं सत्य की जो प्रकृति में मौजूद है, पर विश्वास करते हैं। वे कहती हैं कि आदिवासी रामायण और महाभारत के पक्षधर नहीं हैं और न ही कथित हिन्दू धर्म ग्रंथों के पक्षधर हैं। यह दूसरी बात है कि रामायण और महाभारत में कथित तौर पर आदिवासियों का जिक्र है।

यहां भी हम देखते हैं कि महाभारत में एकलव्य का जिक्र है, जिसका अंगूठा छल से कटवा दिया गया था। यहां भी हम देखें तो जिन ग्रंथों में सिर कट जाने के बाद सिर फिर जुड़ जाता है जबकि एकलव्य का अंगुठा नहीं जुड़ता है, यह फर्क दिखता है। आदिवासी कर्मकांड में विश्वास नहीं करते हैं। हम देखते हैं कि कुछ लोग संपर्क से इस तरह की चीजों में ऊपरी तौर पर शामिल होते हैं, लेकिन वे अंदर से बिल्कुल ही आदिवासी हैं। यह तमाम चीजें बताती हैं कि आदिवासी हिन्दू न थे, न हैं और न भविष्य में होंगे।

आदिवासी सेंगेल अभियान (ASA) के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद सालखन मुर्मू आदिवासी हिंदू क्यों नहीं हैं? के जवाब में कहते हैं- क्योंकि आदिवासी मूर्ति पूजक नहीं हैं, प्रकृति पूजक हैं। आदिवासी समाज में वर्ण व्यवस्था नहीं है। आदिवासी समाज में सभी बराबर हैं। सभी सब काम कर सकते हैं। समाज में ऊंच-नीच की कोई सोच संस्कार नहीं है। आदिवासी मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर में पूजा पाठ नहीं करते हैं।

उनके पूजास्थल वृक्षों के बीच सरना या जाहेरथान आदि कहे जाते हैं। उनकी पूजा-अर्चना, उनके देवी-देवता प्रकृति के साथ जुड़े हुए हैं, क्योंकि प्रकृति को ही वे लोग अपना पालनहार मानते हैं। आदिवासियों की भाषा संस्कृति, सोच संस्कार, पूजा पद्धति आदि पूरी तरह प्रकृति के साथ जुड़ी हुई हैं। आदिवासी के बीच दहेज प्रथा नहीं है। आदिवासी प्रकृति का दोहन नहीं करते, बल्कि उसकी पूजा करते हैं। इसलिये आज भारत के आदिवासी प्रकृति पूजा धर्म सरना धर्म कोड के साथ 2021 की जनगणना में शामिल होना चाहते हैं। जो उनके अस्तित्व पहचान और एकजुटता के लिए जरूरी है।

सामाजिक कार्यकर्ता अनूप महतो कहते हैं कि हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में छात्रों की ओर से आयोजित कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन द्वारा कहा गया कि आदिवासी कभी न हिंदू थे, न हैं, से हम बिल्कुल सहमत हैं, क्योंकि आदिवासी समाज प्रकृति पूजक है, आदिवासियों का अपनी एक अलग रीति-रिवाज, संस्कृतिक है। वे प्रकृति से जुड़े संसाधनों को पूजते और पूजा करते हैं, जैसे जल, जंगल, पहाड़।

आदिवासियों के रीति-रिवाज, संस्कृति, पूजा कहीं भी ब्राह्मणों की कोई भूमिका नहीं होती। आदिवासियों का एक अपनी सामाजिक व्यवस्था है जो पूर्वजों से चली आ रही है। हिंदू के मंदिर होते हैं जहां वे मूर्ति को पूजते हैं और पूजा करने वाले एक विशेष जाति से आते हैं, जो ब्राह्मण होते हैं। किंतु आदिवासी सिंगबोंगा, बुरुबोंगा, जाताल, जहीर, गोरम आदि के नाम से पूजा करते हैं, जो कि वह स्थान पहाड़, जंगल होते हैं। पूजने और पूजा करने वाले दोनों ही आदिवासी समाज से ही होते हैं। आदिवासियों के खान-पान में कोई बाधा नहीं है।

इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि सदियों से आदिवासी समाज को दबाया जाता रहा है, कभी इंडिजिनस, कभी ट्राइबल तो कभी अन्य के तहत पहचान होती रही है। भारत की 1951 की जनगणना में षड़यंत्र के तहत कई आदिवासी समुदाय को आदिवासी समाज की सूची से हटा दिया गया, जो समुदाय आज भी अपनी पहचान के लिए लड़ रहे हैं, किंतु अभी तक उन्हें निराशा ही मिली है।

जनगणना में आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं है, पांच-छह धर्मों के अलावा आदिवासी समूह के लिए अलग कॉलम होना चाहिए, जिससे वह अपनी संस्कृति और परंपरा को संरक्षित कर आगे बढ़ सकें, नहीं तो भविष्य में आदिवासी समाज अपने मौलिक अधिकार और पहचान के लिए जूझते रहेंगे।

वृहद झारखण्ड जनाधिकार मंच (झारखंड) के केंद्रीय अध्यक्ष और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद (झारखंड) के प्रदेश संयुक्त सचिव बिरसा सोय कहते हैं कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं, क्योंकि आदिवासियों के रीति रिवाज एवं संस्कृति प्राकृतिक रूप से जुड़े हुए हैं। आदिवासी मंदिरों में पूजा नहीं करते हैं बल्कि वह प्रकृति की पूजा करते हैं।

आदिवासियों को आदिवासी धर्म की मान्यता अंग्रेजों ने भी दिया था, जिसे 1871 में Aborgines (मूलनिवासी), 1881 और 1891 में Aborigional (आदिवासी), 1901, 1911 और 1921 में Animist (जीववादी), 1931 में Tribal Religion (जनजातीय धर्म) तथा 1941 में Tribel (जनजातीय) दिया गया, जबकि भारत देश आजाद होने के बाद पहली बार जब जनगणना 1951 को हुई तो आदिवासियों के साथ धोखा हुआ और अंग्रेजों के द्वारा दिया गया धर्म कोड हटाकर आदिवासियों को धर्म कॉलम में ST दिया गया जबकि आदिवासियों को आदिवासी धर्म कोड मिलना चाहिए।

इसके बाद जब देश में 1961 में जनगणना हुई तो आदिवासियों का धर्म कोड समाप्त कर दिया गया। यही हमारे समाज में कन्फ्यूजन पैदा करता है और हमें चीख चीख कर कहना पड़ रहा है कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज कहते हैं कि हिन्दू धर्म के चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र में से आदिवासी किसी भी वर्ण नहीं आते हैं। हम आदिवासियों की कोई भी प्रथा परम्परा, मान्यता एवं देवी-देवताओं का उल्लेख किसी भी हिन्दू धर्म ग्रन्थ में कहीं नहीं है। यह सबसे बड़ी वजह है यह जानने के लिए कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं। अंग्रेजी शासनकाल में भी आदिवासियों ने अपनी एक अलग पहचान बनाये रखी। अत: उन्होंने 1901 की जनगणना में आदिवासियों के धर्म को प्रकृतिवादी लिखा था, वहीं 1911 की जनगणना में जनजातिय धर्म व प्रकृति पूजक लिखा, तथा 1931 में आदि धर्म लिखा।

खोरठा साहित्यकार व व्याख्याता दिनेश दिनमणी का मानना है कि हिन्दू शब्द ही भ्रामक है। पहले तो यह एक स्थान विशेष के निवासियों के लिए व्यवहार किया गया था पर आज एक संप्रदाय विशेष के अर्थ में रूढ़ कर दिया गया है। इस अर्थ में हिन्दू का तात्पर्य वैसे समुदाय से है जो सनातन संस्कृति का अनुसरण कर जीवन जीते हैं। जिस संस्कृति में अवतारवाद, मूर्तिपूजा, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य, जीवन के विविध संस्कारों में वैदिक पद्धति के विविध कर्मकांड, वर्ण व्यवस्था की अवधारणा की मान्यता है। इस आधार पर देखा जाए तो आदिवासी समुदाय हिंदू नहीं हैं। आदिवासी न तो मूर्तिपूजक हैं न ही वैदिक कर्मकाण्डों को करवाते हैं। उनके ईश्वर की अवधारणा भी हिन्दू/सनातन दर्शन से भिन्न है।

सोपानीकृत वर्ण व्यवस्था का यहां कोई स्थान नहीं है, लेकिन लंबे समय से आदिवासियों का भी हिंदूकरण हो रहा है। सनातन और आदिवासियों की पूजन स्वरूप में कतिपय समानता के कारण अधिकांश आदिवासी समुदाय हिंदू धर्म की ओर उन्मुख होकर आत्मसात करते गये हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद संथाल संस्कृति को भी मानते हुए हिंदू आस्था के साथ काशी विश्वनाथ मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना भी करते हैं, तमाम कर्मकांड के साथ, लेकिन कुलीन बन चुका कोई आदिवासी सम्पूर्ण समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।

पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता योगो पुर्ती कहते हैं कि पीढ़ी दर पीढ़ी, विरासत में मिली अलिखित इतिहास, संस्कृति को आज भी आदिवासियों के जन जीवन, लोक जीवन, प्राचीन कथाओं व लोक कथाओं में जिंदा है। आदिवासी हिन्दू से बिल्कुल भिन्न हैं। शारीरिक संरचना, रंग-रूप, परंपरा, रीति रिवाज, पर्व त्योहार, शादी-विवाह, जन्म कर्म कर्मकांड, पूजा विधियां आदि हिन्दुओं से अलग है। आदिवासी मूर्ति पूजा के घोर विरोधी हैं।

आदिवासी प्राकृति के प्रति समर्पण के साथ ही प्राकृतिक तौर पर जंगल, पहाड़, नदी एवं कृषि व जंगल में स्थित विशेष वृक्षों के प्रति आभार तो व्यक्त करते ही हैं, अपने पूर्वजों के संघर्षें को भी याद करते हैं। सिंगबोंगा पर विश्वास है। हमारी तमाम मान्यताएं व प्रक्रियाएं गांव की खुशहाली, एकता, समानता स्वास्थ्य व समृद्धि को मजबूती प्रदान करती हैं। आदिवासी समाज में सामूहिकता की झलक है। हमारी रीति-रिवाजों में न तो किसी व्यक्ति की प्रधानता होती है और न ही किसी गोत्र की।

दुपुब हुदा मतलब आदि समाज आज भी दुपुब धर्म (आदि धर्म), दुपुब दस्तूर (आदि सांस्कृतिक) को जीवित रखा है। आदिवासी शब्द का असितत्व मिटा कर वनवासी शब्द थोपा जा रहा है, जबकि आदि मतलब सबसे प्राचीन, प्रारंभिक, प्रथम और आदिम होता है।

आदिवासी हिन्दू क्यों नहीं हैं? के सवाल पर सवाल करते हुए सिद्धो-कान्हो विश्वविद्यालय की कुलपति सोना झरिया मिंज कहती हैं कि पहले यह जानना जरूरी होगा कि इस भूभाग पर पहले हिन्दू आए या आदिवासी? इसका सही जवाब कोई इतिहासवेत्ता या सामाजिक वैज्ञानिक ही दे सकता है। एक तरह से इस सवाल के जवाब से सीधे तौर पर बचते हुए कुलपति मिंज ने कहा कि मैं डेटा साइंटिस्ट हूं, इसका जवाब देने का अधिकार मुझे नहीं है।

पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला आदिवासी का हिन्दू नहीं होने पर कहती हैं कि इतिहास गवाह है कि आदिवासी जहां भी गया, वह सबसे पहले जंगल-झाड़ को साफ किया। वहां रहने लायक वातावरण तैयार किया, मतलब गांव बसाया। खेती लायक जमीन तैयार की। अपनी पूरी जीवन शैली को प्रकृति आधारित बनाया। प्राकृतिक सृजनकता के साथ खुद को जोड़े रखा, जिसे आज भी देखा जा सकता है। आदिवासी की संस्कृति, भाषा, पर्व-त्योहार सभी प्रकृति पर आधारित है, जो साफ कर देता है कि आदिवासी को हिन्दू नहीं कहा जा सकता है।

गढ़वा के सामाजिक कार्यकर्ता व आदिम जनजाति समुदाय के मानिकचंद कोरवा का भी मानना है कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं, क्योंकि आदिवासी की संस्कृति, भाषा, बोली-वचन, रहन-सहन यानी संपूर्ण जीवन शैली प्राकृति के बहुत करीब है। आदिवासी प्राकृति के प्रति समर्पण के साथ ही प्राकृतिक तौर पर जंगल, पहाड़, नदी एवं कृषि व जंगल में स्थित वृक्षों के प्रति लगाव रखते हैं। हम इनके प्रति आभार व्यक्त करते हैं। जंगली जानवरों पक्षियों से बहुत नजदीक से मेल प्रेम बना रहता है और हम मूर्ति पूजक नहीं हैं। हम वृक्ष की पूजा करते हैं।

बहुजन समाज के विचारक विलक्षण रविदास आदिवासियों को ही नहीं दलित व पिछड़ों को भी हिन्दू नहीं मानते हैं। आदिवासी हिन्दू क्यों नहीं हैं? के सवाल पर वे कहते हैं कि क्योंकि आदिवासी शुरू से ही प्रकृति पूजक रहे हैं, उनकी पूरी जीवन शैली, संस्कृति, भाषा, पर्व-त्योहार, पूजा पद्धति सभी हिन्दूओं से बिल्कुल अलग है। उनकी पूरी जीवन शैली प्रकृति आधारित है, जिससे यह साफ हो जाता है कि आदिवासी हिन्दू नहीं है।

वे आगे कहते हैं कि आदिवासी ही नहीं, दलित व पिछड़े भी हिन्दू नहीं हैं, हिन्दू केवल ब्राह्मण हैं, क्योंकि हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रंथ में हिन्दू शब्द का जिक्र नहीं है, हर जगह ब्राह्मण का जिक्र है। दलित व पिछड़े हिन्दू नहीं हैं, वे हिन्दुत्व के गुलाम हैं। आदिवासियों के बीच आज के दौर में संघ व बीजेपी के घुसपैठ के बाद भी वे अपनी जीवन शैली, संस्कृति, भाषा, पर्व-त्योहार, पूजा पद्धति सभी हिन्दूओं से बिल्कुल अलग रखा है। अत: वे कहीं से हिन्दू नहीं हैं।

डॉ. शान्ति खलखो कहती हैं कि हम हिन्दू इसलिए नहीं हैं कि हमारी जीवन शैली, संस्कृति, भाषा, पर्व-त्योहार, पूजा पद्धति, यहां तक कि मौत के बाद दफनाने या दाह संस्कार की पद्धति भी हिन्दूओं से अलग है। हम प्रकृति पूजक हैं, हमारे यहां जाति व्यवस्था नहीं है, हमारे यहां कोई पंडित, पुजारी या पुरोहित की परंपरा नहीं है। हमारी परंपरा में स्त्री पुरूष की समान भागीदारी होती है। यहां तक कि अंतिम संस्कार में भी महिलाओं की समान भागीदारी होती है। कब्रगाह हो या श्मशान घाट वहां भी महिला-पुरूष मिलकर काम करते हैं। जल, जंगल, पहाड़ हमारे देवी देवता हैं। ये सारी चीजें हमें आदिवासी बनाती हैं और यह बताती है कि हम हिन्दू कतई नहीं हैं।

बताना जरूरी होगा कि आदिवासी शब्द दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिल कर बना है, जो मूल निवासी का बोध कराता है। संस्कृत विचारकों ने अपने लेखों में आदिवासियों को अत्विका और वनवासी लिखा है। महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन (पहाड़ पर रहने वाले लोग) कह कर पुकारा है। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ पद का उपयोग किया गया है। भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में भीलाला, धानका, गोंड, मुंडा, खड़िया, हो, बोडो, कोल, भील, कोली, फनात, सहरिया, संथाल, कुड़मी महतो, मीणा, उरांव, लोहरा, परधान, बिरहोर, पारधी, आंध, टाकणकार आदि शामिल हैं।

आदिवासी मुख्य रूप से भारतीय राज्यों  झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि में बहुसंख्यक व गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक है, जबकि भारतीय पूर्वोत्तर राज्यों में यह बहुसंख्यक हैं, जैसे मिजोरम। इन्हें भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में ‘अनुसूचित जनजातियों’ के रूप में मान्यता दी गई है।

इस छोटे आदिवासी समूह आधुनिकीकरण के कारण हो रहे पारिस्थितिकी पतन के प्रति काफी संवेदनशील हैं। व्यवसायिक वानिकी और गहन कृषि दोनों ही उन जंगलों के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं, जो कई शताब्दियों से आदिवासियों के जीवन यापन का स्रोत रहे हैं। एक तरह से आदिवासियों को उनके जल, जमीन, जंगल व पहाड़ों से बेदखल करने की कोशिश का एक हिस्सा है उन्हें अन्य या हिन्दू मानना। उन्हें हिन्दू की श्रेणी में लाना, उनकी संख्या को नगण्य करके, उनकी अपनी रूढ़ी परंपरा से बेदखल करने के बाद उनके जल, जमीन, जंगल व पहाड़ों पर कॉरपोरेटी हमले की साजिश का हिस्सा है।

(स्वतंत्र पत्रकार विशद कुमार का लेख।)

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Rupesh Singh kourav
Rupesh Singh kourav
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10 months ago

बस हम को पता लगाना है की पहले आदिवासी आए थे या हिंदू धर्म पहले आया ?

Vimlesh dhurve
Vimlesh dhurve
Guest
Reply to  Rupesh Singh kourav
6 months ago

आदिवासी

Vishal meena
Vishal meena
Guest
Reply to  Rupesh Singh kourav
4 months ago

Adiwasi kahi se aye nhi vo yahi k mulniwasi h

Devilal Roat
Devilal Roat
Guest
Reply to  Vishal meena
2 months ago

जय जोहार जय आदिवासी🙏

Last edited 2 months ago by Devilal Roat

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