Saturday, April 20, 2024

नसीरुद्दीन शाह ने क्यों बोला – तालिबान के लिए हिन्दुस्तान में जश्न मनाने वाले ज्यादा ख़तरनाक?

नसीरुद्दीन शाह ने हिन्दुस्तान के मुसलमानों के लिए बहुत अहम बात कह दी है जिसे नज़रअंदाज करना न तो आसान रह गया है और न ही नज़रअंदाज करके उस चिंता को दबाया जा सकता है जिसने शाह को यह बात कहने के लिए प्रेरित किया। नसीरुद्दीन शाह अक्सर हिन्दू कट्टरपंथियों के हाथों ट्रोल होते रहे हैं। इस बार संभव है कि उन्हें इस्लामिक कट्टरपंथी ट्रोल करें। यह बेहद सुकून की बात है कि नसीरुद्दीन शाह कट्टरपंथ का विरोध करने के मामले में वाकई तटस्थ नज़र आते हैं। बहुतेरे लोग उनके व्यक्तित्व के इस पहलू से सीख ले सकते हैं।  

नसीरुद्दीन शाह ने चार प्रमुख बातें कही हैं-

  • अफगानिस्तान में तालिबान का दोबारा हुकूमत में आने से अधिक ख़तरनाक है हिन्दुस्तानी मुसलमानों के कुछ तबके में जश्न मनाया जाना।
  • हिन्दुस्तानी मुसलमान खुद से सवाल करें कि उसे अपने मज़हब में सुधार और आधुनिकता पसंद है या पिछली सदियों के वहशी मूल्य।
  • जैसा कि मिर्जा गालिब कह गये हैं- मेरा रिश्ता अल्लाह मियां से बेहद बेतकल्लुफ है। मुझे सियासी मज़हब की कोई ज़रूरत नहीं है।
  • हिन्दुस्तानी इस्लाम हमेशा दुनिया भर के इस्लाम से मुख़्तलिफ़ रहा है।

ख़ून से रंगा है तालिबान का अतीत

शरीयत कानून लागू करने का दावा करने वाला तालिबान का अतीत ख़ून से रंगा है। अफ़गानी महिलाएं तालिबान के नाम से थर्रा रही हैं। पढ़ी-लिखी महिलाओं में ज्यादा ख़ौफ़ है। संगीत, शिक्षा और आधुनिकता से मानो तालिबान को नफ़रत हो। क्या इस्लाम की यही सीख है? अगर होती तो दुनिया के बाकी इस्लामिक देश भी तालिबान का ही अनुकरण करते।

हिन्दुस्तान में तालिबान के लिए सहानुभूति रखने वाला तबका नसीरुद्दीन शाह की नज़र में अधिक ख़तरनाक है। इसका कारण है कि हिन्दुस्तान के मुसलमान आज़ादी को महसूस करते हैं, किसी किस्म की पाबंदी में नहीं हैं और न ही मुस्लिम महिलाएं जबरन बुर्के में रहने को मजबूर हैं। मुस्लिम महिलाएं अब तीन तलाक की कुप्रथा से भी आज़ाद हैं। ऐसे में अफगानी तालिबान में वो कौन सा आकर्षण हो सकता है जो हिन्दुस्तान के मुसलमानों में बेहतर ज़िन्दगी की उम्मीद जगाए?

क्या मुसलमानों में बढ़ती बेचैनी है तालिबान के लिए आकर्षण की वजह?

यह बात उल्लेखनीय है कि 15 साल पहले सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में मुसलमानों की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति को दलितों से भी बदतर माना था। रोज़गार से लेकर राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में भी मुसलमान पिछड़े हैं। ये सारी स्थितियां मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों के बीच हैं। बीते कुछ वर्षों से मुसलमान अपने साथ दोयम दर्जे का व्यवहार भी महसूस कर रहे हैं। मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाएं भी चिंता का सबब हैं। इन कारणों से मुसलमानों के एक वर्ग में बेचैनी है। संभव है कि यह बेचैनी ही शरिया कानून के लिए आकर्षण की वजह हों और तालिबान के लिए भी जो शासन में शरिया कानून का आकर्षण दिखाता रहा है। मगर, तालिबान से ऐसी उम्मीद रखना कि वह हिन्दुस्तानी मुसलमानों को मयस्सर हुई जिन्दगी से बेहतर उपलब्ध कराने वाला दिवास्वप्न है।

तालिबान के प्रति आकर्षण का एक और कारण है अमेरिका जिसने आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर ईरान, इराक, अफगानिस्तान, सीरिया जैसे देशों में युद्ध जैसे हालात पैदा किए। इससे दुनिया भर के मुसलमानों में अमेरिका के लिए नफ़रत पैदा हुई। हालांकि अमेरिका का साथ देने वाले इस्लामिक देश अधिक रहे हैं। फिर भी दुनिया में ऐसे लोग हैं जो तालिबान को ऐसी शक्ति के रूप में देख रहे हैं जिसने अमेरिका को घुटनों के बल झुका दिया है। भारत में भी ऐसे तालिबान समर्थक हैं।

दुनिया भर में इस्लाम के हैं कई रूप

नसीरुद्दीन शाह जब हिन्दुस्तानी मुसलमानों को आगाह करते हुए पूछते हैं कि उन्हें सुधार और आधुनिकता पसंद है या वहशीपन लिए सदियों पुराने मूल्य? तो मुसलमानों के उस तबके के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाता है जो तालिबान की ओर आकर्षित है। मुसलमानों के लिए इस्लाम आकर्षण है। शरीयत कानून का आकर्षण भी इसीलिए है। मगर, दुनिया भर में इस्लाम के कई रूप विकसित हो चुके हैं और कई देशों में शरीयत कानूनों से ऊपर भी उठ चुका है इस्लाम। मगर, इसे वही लोग समझ सकते हैं जो शिक्षित हैं और जो आज़ादी का मतलब सही मायने में समझते हैं।

सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, इंडोनेशिया, मलेशिया जैसे देशों में भी इस्लाम को मानने वाले हैं लेकिन ये देश शरिया कानून को पीछे छोड़ चुके हैं। दुनिया में 23 देश ऐसे हैं जहां तीन तलाक को मान्यता नहीं है। आबादी में दबदबा रखने के बावजूद 50 से ज्यादा देशों में 26 देश ही ऐसे हैं जो इस्लामिक देश हैं। पहनावा, रहन-सहन और संस्कृति के मामले में हर इस्लामिक देश एक-दूसरे से अलग हैं। पाकिस्तानी इस्लाम, हिन्दुस्तानी इस्लाम, बांग्लादेशी इस्लाम, अफगानी इस्लाम और इसी तरह दूसरे देशों के इस्लाम एक-दूसरे से भिन्न हैं।

नहीं चाहिए सियासी इस्लाम

जब नसीरुद्दीन शाह कहते हैं कि उन्हें सियासी इस्लाम की ज़रूरत नहीं है तो इसका मतलब साफ है कि न तो उन्हें इस्लामिक देश चाहिए और न ही ऐसा इस्लाम, जो किसी देश पर हुकूमत करने का मंसूबा पाल रहा हो। वे हिन्दुस्तानी इस्लाम से ख़ुश हैं जहां सुधार और आधुनिकता को हमेशा से स्वीकार किया जाता रहा है। हिन्दुस्तानी इस्लाम बंदिशों से आज़ादी का पैरोकार है। यह आधुनिकता और सुधारों का विरोधी नहीं है। शिक्षा में आधुनिकता को भी बहुत आसानी से स्वीकार किया जा रहा है।

हिन्दुस्तान के मुसलमान दुनिया भर में फैले हुए हैं। वे दूसरे देश से अपनी तुलना करने में सक्षम हैं। दूसरे इस्लामिक देशों में जाकर वे नौकरी कर लेते हैं, पैसे कमा लाते हैं लेकिन जो आज़ादी हिन्दुस्तान में वे महसूस करते हैं दूसरे मुल्क में उन्हें नहीं मिलती। इसी अर्थ में नसीरुद्दीन शाह को हिन्दुस्तानी इस्लाम दुनिया के बाकी देशों के इस्लाम से मुख्तलिफ़ लगता है।

सवाल यह है कि नसीरुद्दीन शाह जो सवाल तालिबान परस्त मुसलमानों के लिए छोड़ रहे हैं उस पर उनकी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है या होने वाली है। ऐसे लोगों का कहना होता है कि इस्लाम किसी बात के लिए दबाव नहीं देता। महिलाएं भी आज़ाद हैं। लेकिन, यही लोग जब शरीअत के नाम पर महिलाओं को बुर्का पहनाने, तालीम और रोज़गार से दूर करने की बात करते हैं तब इस्लाम के नाम पर उनकी दलील उलट जाती है। स्पष्ट तौर पर ऐसे लोग इस्लाम में सुधार और आधुनिकता के विरोधी नज़र आने लगते हैं। नसीरुद्दीन ने आवाज़ उठाई है और ऐसे ही कट्टरपंथियों से उनकी लड़ाई है।

(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल विभिन्न न्यूज़ चैनलों के पैनल में बहस करते देखा जा सकता है।) 

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।

Related Articles

लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

आम चुनावों की शुरुआत हो चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट में मतगणना से सम्बंधित विधियों की सुनवाई जारी है, जबकि 'परिवारवाद' राजनीतिक चर्चाओं में छाया हुआ है। परिवार और समाज में महिलाओं की स्थिति, व्यवस्था और लोकतंत्र पर पितृसत्ता के प्रभाव, और देश में मदर्दवादी रुझानों की समीक्षा की गई है। लेखक का आह्वान है कि सभ्यता का सही मूल्यांकन करने के लिए संवेदनशीलता से समस्याओं को हल करना जरूरी है।