Thursday, April 25, 2024

ऋषि सुनक की कामयाबी पर हमें क्यों खुश होना चाहिए?

ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने के बाद सोशल मीडिया में एक अजीब सा उन्माद देखा गया। कुछ बड़े ही रोचक शीर्षक भी नजरों से गुजरे – ब्रिटेन में ऋषि राज, ऋषि युग लौट आया, सनातनियों के लिए सुनहरा समय, कोहिनूर की वापसी का मार्ग प्रशस्त आदि-आदि। अनेक सोशल मीडिया पोस्ट ऐसी भी थीं जिनमें कुछ चर्चित भविष्यवाणियों का जिक्र था जो भारत के विश्व गुरु बनने की ओर संकेत करती हैं और यह कहा गया था कि अब इन भविष्यवाणियों के सच होने की शुरुआत हो गई है। बहुत से व्हाट्सएप संदेश ऐसे भी देखने में आए जो यह पुरजोर तरीके से समझाने का प्रयास कर रहे थे कि ऋषि सुनक के चयन के पीछे मोदी जी का अप्रत्यक्ष योगदान है। इनमें कहा गया था कि दरअसल भारत के प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जी के शानदार प्रदर्शन को देखकर दुनिया के अनेक देश अब यह मानने लगे हैं कि कोई भारतवंशी हिन्दू ही उनके देश का उद्धार कर सकता है, अब हर देश में मोदी जी को तो बुलाया नहीं जा सकता इसलिए स्थानीय भारतीय मूल के नेताओं पर विश्वास जताया जा रहा है।

हमारे देश में महंगाई और बेरोजगारी के उच्चतम स्तर, आर्थिक और लैंगिक असमानता की बढ़ती खाई, नागरिक स्वतंत्रता के ह्रास, मीडिया की आजादी में आई कमी, अल्पसंख्यक अधिकारों के हनन तथा बहुसंख्यक वर्चस्व की बढ़ती प्रवृत्ति आदि की निरन्तर चर्चा करने वाले मुझ जैसे बुद्धिजीवियों को यह संदेश विशेषकर भेजे गए, कुछ संदेशों में मेरे लिए पाद टिप्पणी भी जोड़ी गई थी- अब तो समझ जाओ अक्ल के अंधे! मोदी जी के नेतृत्व भारत विश्व गुरु बन रहा है!

इन संदेशों ने मुझ पर गहरा असर किया लेकिन उस रूप में नहीं जैसा इनके प्रेषकों को अपेक्षित था। कभी साम्राज्यवाद और रंगभेद के लिए चर्चित रहने वाले ब्रिटेन की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पसंख्यकों के बढ़ते प्रतिनिधित्व के विषय में जानने की तीव्र जिज्ञासा हुई। अंततः यूके पार्लियामेंट की हाउस ऑफ कॉमन्स लाइब्रेरी की वेबसाइट में “एथनिक डाइवर्सिटी इन पार्लियामेंट एंड पब्लिक लाइफ” शीर्षक रिपोर्ट ने बहुत कुछ बताया और चौंकाया भी। 1929 में भारतीय मूल के कम्युनिस्ट शाहपुरजी सकलतवाला की बैटरसी सीट से पराजय के उपरांत 1986 तक हाउस ऑफ कॉमन्स में  दक्षिण एशियाई या अश्वेत प्रतिनिधित्व नहीं था। किंतु 1987 में अल्पसंख्यक जातीय पृष्ठभूमि रखने वाले डायने एबॉट, पॉल बोटेंग,कीथ वाज़ तथा बर्नी ग्रांट निर्वाचित हुए। यह संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई और 2010 के बाद से इसमें बड़ी तेजी से वृद्धि हुई। 1992 में 6,1997 में 9, 2001 में 12, 2005 में 15, 2010 में 27, 2015 में 41, 2017 में 52 जबकि 2019 में 65 सांसद अल्पसंख्यक समुदाय से निर्वाचित हुए। इस प्रकार 2019 में हाउस ऑफ कॉमन्स में अल्पसंख्यक जातीय पहचान रखने वाले सांसदों की संख्या दस प्रतिशत तक पहुंच गई है। जबकि सितंबर 2022 की स्थिति में हाउस ऑफ लॉर्ड्स में अल्पसंख्यक सदस्यों की संख्या 55 अर्थात 7.6 प्रतिशत थी। हाउस ऑफ कॉमन्स के 65 अल्पसंख्यक संसद सदस्यों में 41 लेबर पार्टी के जबकि 24 कंज़र्वेटिव पार्टी के हैं,  2 सांसद लिबरल डेमोक्रेट हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि 65 अल्पसंख्यक सांसदों में 37 महिलाएं हैं। अल्पसंख्यक महिलाओं को इतना प्रतिनिधित्व शायद उनके मूल देश में भी नहीं मिल पाता होगा।

पिछले कुछ दिनों में अनेक अल्पसंख्यकों को ब्रिटिश  मंत्रिमंडल में बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी दी गई हैं। सुएला ब्रेवरमैन,जेम्स क्लेवरली, रानिल जयवर्धने, क्वासी क्वारटेंग, आलोक शर्मा और नदीम जहावी आदि देश के सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का कार्यभार संभाल चुके हैं। यह जानना रोचक होगा कि ऋषि सुनक के 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री समेत केवल 5 मंत्री अल्पसंख्यक पहचान रखते हैं जबकि लिज ट्रस के 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल में 7 मंत्री अल्पसंख्यक थे।

सितंबर 2022 की स्थिति में लंदन असेंबली में 32 प्रतिशत अर्थात 8 सदस्य अल्पसंख्यक जातीय पृष्ठभूमि से थे। लंदन के मेयर सादिक खान भी अल्पसंख्यक हैं। लंदन की जनसंख्या में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी 40.6 प्रतिशत है।

नेशनल हेल्थ सर्विस इंग्लैंड की अगर बात करें तो इसमें 25.2 प्रतिशत की महत्वपूर्ण भागीदारी अल्पसंख्यकों की है। एनएचएस इंग्लैंड में 49.5 प्रतिशत डॉक्टर्स और 41.9 प्रतिशत हॉस्पिटल कंसल्टेंट्स अल्पसंख्यक पहचान रखते हैं। सितंबर 2021 की स्थिति में इंग्लैंड के 23.4 प्रतिशत सामाजिक कार्यकर्ता अल्पसंख्यक थे।

इन आंकड़ों की चर्चा इसलिए कि अल्पसंख्यक वर्ग से ब्रिटिश प्रधानमंत्री का चुना जाना कोई आकस्मिक या असामान्य घटना नहीं है। यह पिछले साढ़े तीन दशक से ब्रिटिश जीवन में आ रहे सकारात्मक बदलावों की परिणति है और इन परिवर्तनों को ब्रिटेन के सामुदायिक जीवन में अल्पसंख्यकों की बढ़ती भागीदारी के रूप में देखा जा सकता है।

यदि हम अपने देश की बात करें तो 2006 में आई सच्चर कमेटी की सिफारिशों के16 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति चिंताजनक है, निराश करने वाली बात यह है कि पिछले एक दशक में मानव विकास और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक भागीदारी के विभिन्न मानकों के अनुसार मुसलमानों की स्थिति में सुधार के बजाए गिरावट देखी गई है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार कामकाजी उम्र वाले एक तिहाई मुसलमान ही नौकरियों में हैं, शेष या तो कुछ अपना ही काम कर रहे हैं, अथवा बेरोजगार हैं। मुसलमानों की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 14 प्रतिशत है किंतु लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.9 प्रतिशत है। सिविल सेवाओं के इस वर्ष घोषित नतीजों में 685 सफल उम्मीदवारों में पिछले एक दशक में सबसे कम केवल 25 अर्थात 3.64 प्रतिशत मुसलमान हैं। बिहार के अपवाद को छोड़कर जहाँ आमिर सुबहानी मुख्य सचिव हैं 28 राज्यों में कोई भी मुख्य सचिव मुसलमान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के जजों में एस अब्दुल नजीर के रूप में मुस्लिम समुदाय का केवल एक जज है। आईआईटी, आईआईएम तथा एम्स की प्रशासनिक समिति में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व शून्य या नगण्य है। लगभग यही स्थिति निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की श्रेष्ठ कंपनियों और मीडिया हाउसों की है- सर्वोच्च स्तर पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व का नितांत अभाव है।

ऋषि सुनक को कंज़र्वेटिव पार्टी ने रिचमंड यॉर्कशायर सीट से चुनाव लड़ाया जो कंज़र्वेटिव पार्टी का गढ़ कही जाती है और 1910 से उसके पास है। क्या हमारे देश में हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि किसी अल्पसंख्यक को संसद में पहुंचाने के लिए कोई राष्ट्रीय पार्टी उसे अपनी सबसे सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ाएगी?

प्रधानमंत्री पद के लिए सुनक की दावेदारी के बाद स्वाभाविक था कि उनका विरोध हुआ। लेकिन यह विचारणीय है कि विरोध के मुद्दे क्या थे? उन पर श्रमिक विरोधी होने के आरोप लगे, उनकी अकूत संपत्ति पर सवाल उठे, उनकी पत्नी पर लगे कर अपवंचन के आरोप चर्चा में रहे किंतु उनके भारतीय मूल के होने, हिंदू धर्मावलंबी होने अथवा उनकी अल्पसंख्यक पहचान को लेकर न तो विरोधी दलों ने न ही कंज़र्वेटिव पार्टी के उनके प्रतिद्वंद्वियों ने कोई सवाल उठाया। उनका धर्म और उनकी अल्पसंख्यक पहचान राजनीतिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं थी।

ऋषि सुनक के पारंपरिक भगवा गमछा धारण कर मंदिर में सपत्नीक पूजा करते चित्र को देखकर हम गौरव अनुभव कर रहे हैं। लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि सुनक के किसी प्रतिद्वंद्वी ने यह नहीं कहा कि उन्हें उनके कपड़ों से ही पहचाना जा सकता है कि वे ब्रिटेन के प्रति वफादार नहीं हैं। ब्रिटेन में अपने प्रतिद्वंद्वी नेता पर ऐसी किसी टिप्पणी की भी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि उसने भयवश ऐसे क्षेत्र का चयन किया है जहां बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यक है।

क्या हम भारत में भविष्य में होने वाले किसी ऐसे चुनाव की कल्पना कर सकते हैं जिसमें सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा न उठे? क्या आने वाले दिनों में कोई ऐसा चुनाव होता दिखता है जो बुनियादी मुद्दों पर केंद्रित हो न कि मतदाता को धार्मिक रूप से ध्रुवीकृत करने की जहरीली कोशिशों पर आधारित हो? क्या आज कोई राजनीतिक पार्टी किसी अल्पसंख्यक को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप प्रोजेक्ट कर चुनावों में जाने का साहस कर सकती है? हिन्दू मतदाता को हिंसक बहुसंख्यक वर्चस्व का आदी बना देने के बाद यह दलील कितनी खोखली लगती है कि अब मुसलमान प्रत्याशी मतदाताओं की पसंद नहीं रह गए हैं और हारने वाले उम्मीदवार को कोई टिकट नहीं देता। देश में एपीजे अब्दुल कलाम और आरिफ मोहम्मद खान जैसे राष्ट्र भक्त मुसलमानों की कमी के शरारती तर्क का असली अर्थ यह है कि देश के लगभग 20 करोड़ मुसलमान राष्ट्रभक्त नहीं हैं।

भारत के साथ होने वाली ट्रेड डील का विरोध करने वाली, डील के बाद यूके में भारतीय आप्रवासियों की संख्या बढ़ने की आशंका व्यक्त करने वाली और भारतीय आप्रवासियों पर विपरीत टिप्पणी करने वाली लिज ट्रस सरकार की गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन को ही ऋषि सुनक ने अपना गृह मंत्री बनाया है। ऋषि और सुएला दोनों ही भारतीय मूल के हैं लेकिन उनकी निष्ठा अपनी पार्टी की विचारधारा के प्रति स्पष्ट दिखती है। बतौर देशभक्त ब्रिटिश नागरिक उनकी भारत के प्रति नीतियां भी ब्रिटेन के हितों की रक्षा करने वाली होंगी। लेकिन हमारे देश में बड़ी निर्ममता और निष्ठुरता से अपना व्यापार चलाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिन्दू सीईओज की सूची देखकर चरम आनंद प्राप्त करने वाले कट्टरपंथियों के लिए ऋषि सुनक का हिन्दू होना ही काफी है।

ऐसा बिलकुल नहीं है कि ब्रिटेन में रंगभेद समाप्त हो गया है अथवा नस्ली सोच मिट गई है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि ब्रिटेन ने पिछले कुछ दशकों में जिस तरह से अपनी सांस्कृतिक और प्रजातीय विविधता को अपनी शक्ति बनाया है उससे वहां उदारता का वातावरण बना है और देश मजबूत हुआ है। धीरे धीरे ऐसी स्थिति बन रही है कि अल्पसंख्यकों का अल्पसंख्यक होना चुनावी मुद्दा नहीं रह गया है। किसी भी आम ब्रिटिश उम्मीदवार की तरह अल्पसंख्यक प्रत्याशी भी अपने चुनावी क्षेत्र और देश की समस्याओं को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ रहे हैं और मतदाता भी उनकी योग्यता और विज़न को देखकर उन्हें चुन रहे हैं न कि उनके अल्पसंख्यक होने के कारण। इसके विपरीत हम हैं कि अपने देश के अल्पसंख्यकों के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार की ओर अग्रसर हैं। देश के लगभग 20 करोड़ मुसलमान हमारे लिए संदेह और घृणा के पात्र हैं। हम हिंसा और प्रतिहिंसा के अंतहीन सिलसिले को बस शुरू ही करने वाले हैं।

कहा जाता है कि ग्लोबलाइजेशन के अंत का प्रारंभ हो चुका है। विशेषकर कोविड-19 के बाद से दुनिया भर में संकीर्ण राष्ट्रवाद लोकप्रिय हुआ है और फ़ासिस्ट शक्तियां मजबूत हुई हैं। अनेक देश बाहरी लोगों के लिए अपनी सीमाएं बंद कर रहे हैं। ऐसे में ऋषि सुनक का ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनना एक सुखद आश्चर्य है। विडंबना यह है कि ब्रिटेन के जिस उदार वातावरण ने ऋषि सुनक को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है, उस उदारता को संकीर्णता में बदलने की अपेक्षा उनसे की जाएगी। यह देखना होगा कि वे इस अंतर्विरोध के का सामना करते हुए किस तरह सत्ता संचालन करते हैं।

(डॉ. राजू पाण्डेय गांधीवादी चिंतक और लेखक हैं।)

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