जीडीपी का जश्न और वास्तविक प्रगति

एक लोकतंत्र में जो चीज मायने रखती है, वह है जनता का जीवन, और प्रगति को इसी आधार पर मापा जाना चाहिए कि इसमें कितना सुधार हो रहा है।व्यापारिक युग में देश की समृद्धि इस आधार पर मापी जाती थी कि किस देश के पास कितनी बहुमूल्य धातुएं हैं। और उसमें कितनी वृद्धि हो रही है।

बहुमूल्य धातुओं की मात्रा बढ़ाने के लिए एक देश को वस्तुओं और सेवाओं के व्यापार संतुलन को अपने पक्ष में करना होता था। (यानी निर्यात को आयात से अधिक रखना होता था) जिसको फिर मूल्यवान धातु खास तौर से सोने के आयात से सेटल किया जाता था इस तरह उस देश में सोने की मात्रा बढ़ती जाती थी।

ये व्यापारवादी एडम स्मिथ के निशाने पर थे जब उन्होंने अपनी वेल्थ ऑफ द नेशंस लिखा। उनका कहना था कि यह सोने की मात्रा उन देशों की समृद्धि का पैमाना नहीं है जैसा कि ईस्ट इंडिया कंपनी आदि दावा करती थीं बल्कि पूंजी का स्टॉक अधिक महत्वपूर्ण था।

इसलिए प्रगति इस बात में निहित है कि अधिक से अधिक कैपिटल स्टॉक किसके पास है। इसके लिए सबसे जरूरी था कि राज्य की ओर से बाजार पर लगे सभी प्रतिबंध हटा लिया जाय और यह सुनिश्चित किया जाय कि बाजार सभी प्रतिबंधों से मुक्त हो।

इसके लिए राज्य पर ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी कंपनियों का एकाधिकारी शिकंजा तोड़ना जरूरी था। पुरानी अवधारणा से क्रांतिकारी ब्रेक के बावजूद स्मिथ के बारे में अभी भी यह चौंकाने वाला है कि वह राष्ट्र की बात करते हैं जनता की नहीं। यह राष्ट्र की संपत्ति थी जनता के ऊपर जो वांछित थी।

संपत्ति किसे माना जाय यह अवधारणा तो बदल गई थी, सोने और चांदी से हटकर कैपिटल स्टॉक। लेकिन वह चीज नहीं बदली जिसकी संपत्ति की बात की जा रही थी। राष्ट्र का यह विचार जो जनता से अलग है और उसके ऊपर है यह बुर्जुवा राष्ट्रवाद की विशेषता है जो वेस्तफेलिया की शांति संधि से पैदा हुआ था। यह यूरोप में फासीवाद के उदय के साथ 1930 के दशक में अपने चरम पर पहुंच गया।

निश्चय ही, राष्ट्र जहां जनता के ऊपर था, वहीं राष्ट्रीय हित अनिवार्य रूप से खास बुर्जुआ तबके के हितों से जुड़ा था। इस तरह व्यापारवाद से एडम स्मिथ की ओर जो शिफ्ट हुआ, वह ईस्ट इंडिया कंपनियों जैसी एकाधिकारी कंपनियों को राष्ट्र मानने की बजाय उभरते मैनुफैक्चरिंग वर्ग के हितों को राष्ट्रीय हित मानने की ओर निर्देशित था। अब बुर्जुआ वर्ग के हित राष्ट्र के हित बन गये लेकिन यह सब राष्ट्र का हित था, जिस पर हमेशा जोर देना था, उसे आगे बढ़ाना था और वह जनता से अलग और उसके ऊपर एक अलग चीज था।

ब्रिटिश अर्थशास्त्री डेविड रेकॉर्डों के भी यही विचार थे।
उनकी यह भी सोच थी कि एक स्थिर अवस्था आ सकती है जहां पूंजी संग्रह रुक जाएगा, उनके इसी विचार से उपजा था कि कैपिटल स्टॉक ही राष्ट्र की संपत्ति है। और पूंजी संग्रह का रुकना राष्ट्र की प्रगति का रुकना होगा। ब्रिटिश अर्थशास्त्री मिल निश्चय ही इसमें अपवाद थे, जिनका मानना था कि शुरू की तुलना में अगर पूंजी संग्रह रुक भी जाय लेकिन मजदूरों की स्थिति बेहतर हो रही हो तो कोई चिंता की बात नहीं है।

अर्थात अपने पूर्ववर्ती अर्थशास्त्रियों स्मिथ और रेकॉर्डों से अलग वह मजदूरों की बेहतरी को पूंजी संग्रह से ऊपर रखते थे। इस विचलन का कारण यह कहा गया कि वे अपनी पत्नी के प्रभाव में समाजवाद की ओर झुक रहे थे। शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों स्मिथ और रिकॉर्डों की इस बात के लिए अधिक आलोचना नहीं होनी चाहिए कि पूंजी स्टॉक और इसके उत्पाद पर सबसे वांछनीय चीज के बतौर उन्होंने ध्यान केंद्रित किया, न कि मेहनतकश आबादी की बेहतरी पर। उनके मन में मजदूरों के लिए बहुत सहानुभूति थी लेकिन उनका मानना था कि बेहतर स्थिति होने पर उनकी प्रजनन दर बढ़ जाती है, एक विचार जिसको जनसंख्या के माल्थस के सिद्धांत के रूप में जाना गया।

अगर वास्तविक मजदूरी जीवन निर्वाह स्तर से ऊपर बढ़ती है, तो जनसंख्या बढ़ेगी और उसी अनुपात में श्रमिकों की आपूर्ति बढ़ेगी। जो पुनः मजदूरी को निर्वाह स्तर पर ला देगी। इससे पता लगता है कि मजदूरों की जीवन स्थितियों में सुधार उनके ऊपर ही निर्भर है। उन्हें ही अपनी आदतें बदलनी होगी और जीवन स्थिति बेहतर होने पर भी अपनी जनसंख्या नियंत्रण में रखना होगा। केवल तभी वे उनके जीवन में जो बेहतरी हुई है उसे कायम रख सकते हैं।

क्योंकि नीतिगत बदलाव इसमें कुछ नहीं कर सकता इसलिए नीति का फोकस पूंजी और उत्पादन बढ़ाने पर होना चाहिए।
इससे कुल मात्रा बढ़ जाएगी जो सबके लिए उपलब्ध है, इसमें से मजदूर भी एक हिस्सा पा सकते हैं अगर वे अपनी आदतें बदलें। हालांकि स्मिथ और रेकॉर्डों का जो स्तर है वही बाद के कथित मुख्य धारा के बुर्जुआ अर्थशास्त्र का नहीं माना जा सकता। माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत में विश्वास बहुत पहले खत्म हो चुका था।

वास्तव में इस सिद्धांत को मार्क्स ने जो मानवता का अपमान बताया उसे 18वीं, 19वीं सदी के विपरीत आज आम मान्यता मिल चुकी है। फिर भी मुख्यधारा का बुर्जुआ सिद्धांत जीडीपी को देश के समृद्धि के सूचकांक और इसकी विकास दर को देश की प्रगति की दर मानता है।

क्योंकि इस तरह की प्रगति केवल पूंजीपतियों के कामों से हासिल की जा सकती है, इसलिए देश हित सबसे बेहतर ढंग से उन्हें खुश रखकर, उन्हें तरह-तरह के प्रोत्साहन लाभ देकर, उनके हितों को प्रोत्साहन देकर, उन्हें विशिष्ट व्यक्ति मानकर ही पूरे किए जा सकते हैं। जहां स्मिथ और रेकॉर्डो यह पोजीशन ले सकते थे, क्योंकि वे सोचते थे (गलत ढंग से) कि और कुछ किया नहीं जा सकता था जब तक मजदूर अपनी आदतें नहीं बदलते।

बाद के अर्थशास्त्रियों द्वारा इस प्रश्न पर पोजीशन लेना शुद्ध विचारधारात्मक पक्षपात दिखाता है। इसका सबसे ताजा उदाहरण नीति आयोग के अध्यक्ष का यह दावा है कि भारत अब विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। उन्होंने इसे एक बड़ी उपलब्धि बताया और बड़े पूंजिपतियों ने इसकी सराहना की है।

यह महत्वपूर्ण है कि उन्होंने यह नहीं बताया कि भारत की आबादी जापान से दस गुना अधिक है। यह कुछ वैसे ही था जैसे अभी हाल ही में मोदी ने कहा था कि भारत की जीडीपी पांच ट्रिलियन डॉलर हो जाएगी। लेकिन देश की साइज से इतर, जो तमाम विकसित देशों से हमारी तुलना को निरर्थक बना देता है, इसके अलावा केवल जीडीपी पर फोकस करना एक मिथ्या परिप्रेक्ष्य पर खड़ा करना है। न सिर्फ यह माल्थस के गलत सिद्धांत पर आधारित है, बल्कि एक लोकतांत्रिक समाज के भी अनुकूल नहीं है।

एक लोकतंत्र में यह जनता की जीवन स्थितियां हैं जो महत्वपूर्ण हैं। और प्रगति को पूरी तरह इसी पैमाने पर मापा जाना चाहिए कि इनमें कितना सुधार हो रहा है। यह परिप्रेक्ष्य हमारे उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से भी अलग है।

राष्ट्र की यह अवधारणा जिसका जीडीपी जापान से अधिक हो जाना जश्न का कारण बनता है, यह ऐसा राष्ट्र है जो जनता के ऊपर खड़ा है, जिसकी शानदार सफलता का जनता की जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है। यह पूरी तरह अभिशाप है,

उस उपनिवेशवादी विरोधी संघर्ष के जिसके लिए राष्ट्र की मुक्ति का अर्थ था जनता की मुक्ति।

न सिर्फ जनता 75 साल बाद भी वैसी ही बदहाल है, जब भूख सूचकांक में भारत 127देशों में 105वें नंबर पर है लेकिन हमारी सरकार इस पर न सिर्फ शर्मिंदा नहीं है, बल्कि इसका का जश्न मना रही है। 

( न्यूज क्लिक से साभार, अनुवाद लाल बहादुर सिंह )

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