Friday, March 29, 2024

अनाज का दाम बढ़ने का भी कारण है जलवायु परिवर्तन

खाद्य पदार्थों की बढ़ी कीमतों में जलवायु परिवर्तन की बड़ी भूमिका है। यह बात खुद संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने मानी है। कोरोना ने जिन करोड़ों लोगों को गरीबी के जाल में फंसा दिया है, उन लोगों पर इन बढ़ी हुई कीमतों ने भी ज्यादा असर डाला। दुनिया का हर तीसरा आदमी पर्याप्त भोजन जुटाने की स्थिति में नहीं है।

एफएओ के मुताबिक, 2021 के 11 महीनों में खाद्य पदार्थों की कीमतें पिछले 46 साल में सबसे ज्यादा हैं। दुनियाभर में खाने पीने की चीजों की कीमतें गेहूं के दामों में बढ़ोत्तरी के बाद बढ़नी शुरू हुईं। गेहूं की कीमतें अमेरिका और कनाडा समेत इसके मुख्य उत्पादक देशों में सूखे और तेज तापमान के चलते बढ़ी थी। व्यापार से जुड़ी कई रिपोर्टों में बताया गया है कि अमेरिका में इस वसंत में सूखे और तेज गरमी के चलते गेहूं की पैदावार में 40 फीसद की कमी आई है।

दुनिया के सबसे बड़े गेहूं निर्यातक रूस में बारिश के लिए अनुकूल स्थितियां नहीं होने के चलते 2010 में गेहूं की अनुमानित पैदावार नहीं हो सकी। इस वजह से घरेलू इस्तेमाल के लिए पर्याप्त उपलब्धता को ध्यान में रखकर रूस ने गेहूं के निर्यात पर टैक्स लगा दिया। रूस में गेहूं की पैदावार कम होने से उसकी कीमतें बढ़ गईं। इसके चलते वर्ष 2011 में दुनियाभर में गेहूं की कीमतें बढ़ीं जिसका व्यापक विरोध हुआ और उसके फलस्वरूप कई सरकारों का पतन हो गया।

तब से एक दशक बीत चुके हैं। अब हम अपनी रोजाना की जिंदगी में खेती से जुड़ी चीजों के दामों में तेज वृध्दि ज्यादा देख रहे हैं, जैसे हाल में टमाटर की कीमतें। इस तरह से दाम बढ़ने की और भी वजहें हो सकती हैं लेकिन तापमान निश्चित तौर पर खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ने की एक बडी वजह है। जलवायु परिवर्तन मौसम के अचानक बदलने और इससे जुड़ी आपदाओं के लिए खाद पानी का काम कर रहा है। इससे बड़े पैमाने पर फसलें बर्बाद हो रही हैं और साथ ही उनसे होने वाले मुनाफे पर भी दीर्घकालिक असर पड़ रहा है।

इस सदी के पहले दो दशकों में आपदाओं में उल्लेखनीय रूप से वृध्दि हुई है। सन 2000 के दशक में जहां एक साल में ऐसी 360 घटनाएं होती थीं, वहीं 2010 के दशक में हर साल ऐसी 440 घटनाएं दर्ज हुई हैं। इन घटनाओं में तेजी को समझने के लिए यह सूचना उपयोगी है कि 1970 के दशक में किसी साल प्राकृतिक आपदाओं की संख्या केवल 100 थी।

मौसम में तेज बदलाव और आपदा का सबसे बुरा असर खेती पर पड़ता है। गरीब और मध्यम आय वाले देशों में 2008 से 2018 के बीच कृषि क्षेत्र को मध्यम और बड़ी श्रेणी की 26 प्रतिशत आपदाओं का सामना करना पड़ा। एक आकलन के अनुसार, इसके चलते इस दौरान ऐसे देशों को फसल और मवेशियों की क्षति से 108.5 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा।

जलवायु परिवर्तन का खेती पर दो तरह से प्रभाव पड़ता है। पहला, इसके चलते पैदावार में कमी आती है। दूसरा, इस वजह से संबंधित फसल का उपभोग भी घटता है। दोनों कारक उस खाद्य पदार्थ की उपलब्धता और उसके मूल्य को प्रभावित करते हैं। ज्यादातर मामलों में उनकी कीमतें बढ़ जाती हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो खेती में पैदावार घटने का मतलब है कि खाने पीने की चीजों का जरूरतमंद व्यक्ति से दूर हो जाना। आपदाओं के चलते दुनिया को फसलों और मवेशियों के उत्पादन पर चार प्रतिशत तक का नुकसान हो रहा है। यानी हर साल 6.9 ट्रिलियन किलो कैलोरी का नुकसान या फिर सात मिलियन वयस्कों द्वारा ली जा सकने वाली कैलोरी का नुकसान।

अगर इस नुकसान को हम गरीब और मध्यम आय वाले देशों के संदर्भ में देखें तो यह आपदाओं के चलते प्रतिदिन 22 प्रतिशत कैलोरी का नुकसान होता है। यानी जलवायु परिवर्तन से होने वाली आपदाएं केवल किसानों पर असर डालकर उनका आर्थिक नुकसान ही नहीं कर रहीं, बल्कि यह खाद्य पदार्थों की उपलब्धता भी कम कर रही हैं। इसके अलावा, उत्पादन में कमी से कीमतें बढ़ जाती हैं जिसका नतीजा यह होता है कि लोगों की खुराक घट जाती है। दरअसल, जलवायु परिवर्तन ऐसा जाल है जो हम सबके जकड़ता जा रहा है।

(डाउन टू अर्थ, जनवरी 2022 में छपे रिचर्ड महापात्रा के आलेख की सहायता से वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ ने लिखा है लेख।)

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