Friday, March 29, 2024

मजदूर संगठनों को श्रम सुधारों के समानांतर बदलनी होगी अपनी रणनीति

जनचौक ब्यूरो

तकरीबन 100 साल पहले देश में पहले मजदूर संगठन की शुरुआत हुई थी। श्रमिक वर्ग ने दशकों तक संघर्ष करके अपने अधिकार हासिल किए हैं। लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ये सब बदलकर पुरानी स्थितियां वापस लाना चाहती है। मुख्यधारा की मीडिया और उद्योग जगत की मदद से सरकार इस बात को प्रचारित करने में कामयाब रही है कि-

भारत में जरूरत से ज्यादा श्रम कानून हैं और इस वजह से निवेश और आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। इसलिए श्रम सुधार को जरूरी बताया जा रहा है। केंद्र सरकार सारे श्रम कानूनों को मिलाकर चार कोड बनाना चाहती है। सरकार की इस पहल से मजदूर संगठनों की कमर टूट जाएगी। इसलिए बदली परिस्थितियों का सामना करने के लिए मजदूर संगठनों को नई रणनीति अपनानी होगी।

10 मजदूर संगठनों ने 9 नवंबर से दिल्ली में तीन दिनों का प्रदर्शन किया और इसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। लेकिन सरकार और उद्योग जगत पर इसका कितना असर पड़ा, यह कहना मुश्किल है। पहले भी जो प्रदर्शन हुए हैं, उन्हें मीडिया ने पर्याप्त कवरेज नहीं दिया और सरकार और उद्योग जगत ने इन्हें मामूली बताते हुए अपना सुधार एजेंडा जारी रखा। जब मजदूर संगठनों के संयुक्त विरोध की वजह से केंद्र सरकार श्रम सुधार नहीं कर पाई तो उसने राज्य सरकारों को इस दिशा में आगे बढ़ने को कह दिया। निवेश आकर्षित करने के लिए राज्यों के बीच चल रही होड़ को ‘प्रतिस्पर्धी संघवाद’ का नाम दे दिया गया।

भारतीय जनता पार्टी के शासन वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र ने सबसे अधिक बढ़-चढ़कर इस दिशा में काम किया। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना ने भी श्रम कानूनों को कमजोर करने का काम किया और इन्हें नियोक्ताओं के पक्ष में बनाया। केंद्र सरकार नियमन वाले क्षेत्रों में नीतिगत मसलों पर निर्णय लेती है जबकि राज्य सरकार कारोबारी माहौल से संबंधित निर्णय लेती है।

औद्योगिक विवादों से संबंधित कानून में महाराष्ट्र में जो बदलाव प्रस्तावित हैं उसके बाद 300 से कम श्रमिकों वाले इकाइयों को छूट मिल जाएगी। ऐसा बदलाव राजस्थान और हरियाणा में किया जा चुका है। महाराष्ट्र में ऐसा प्रावधान किया जा रहा है कि ऐसे इकाई 60 दिन का नोटिस या हर कामकाजी साल के लिए 60 दिन की पगार देकर श्रमिकों को काम से निकाल सकते हैं। महाराष्ट्र ने ठेका मजदूरों से संबंधित कानून में बदलाव करके इसे 50 से अधिक श्रमिकों वाले इकाइयों तक सीमित कर दिया है। ऐसे में श्रमिक संगठनों को जमीनी स्तर पर गोलबंदी के लिए कोशिश करना होगा। इन राज्यों में विरोध प्रदर्शन तो हुए हैं लेकिन ये लंबे समय तक नहीं चल पाए हैं।

हालांकि, 1990 के दशक से जो बदलाव हुए हैं, उन्हें देखते हुए यह कोई आसान काम नहीं है। इन बदलावों के बाद बड़ी संख्या में लोग अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने को बाध्य हुए हैं और जो औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं, उनमें भी ठेका पर काम करने वालों की संख्या बढ़ी है। स्थायी कर्मचारियों की सबसे बड़ी नियोक्ता सरकार और उसके द्वारा चलाई जाने वाली संस्थाएं हैं। इन कर्मचारियों को संगठित करना मुश्किल काम है।लोगों के बीच भी यह धारणा बना दी गई है कि श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कई मजबूत श्रम कानून हैं। मजदूर संगठनों को इस धारणा से भी लड़ना होगा।

उद्योग जगत ने यह बात सालों से प्रचारित की है कि इन कानूनों की वजह से विनिर्माण नहीं बढ़ रहा। इन लोगों ने यह नहीं बताया कि इन कानूनों का क्रियान्वयन बेहद लचर ढंग से हो रहा है और ठेके पर काम करने वाले ज्यादातर मजदूर इन कानूनों के दायरे से बाहर हैं।

संगठित श्रमिक वर्ग के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह सरकार पर इस बात के लिए दबाव बनाए कि वह उनके साथ बातचीत शुरू करे। इसमें एक उदाहरण सरकारी कंपनियों और बैंकों के कर्मचारी संगठनों का है। खराब कार्य संस्कृति का हवाला देकर सरकार विनिवेश कर रही है। लेकिन इन निर्णयों में शायद ही कभी इन संस्थाओं के कर्मचारी संगठनों को शामिल किया जाता है। सच्चाई तो यह है कि उन्हें विरोधी के तौर पर देखा जाता है।

हाल ही में सरकारी क्षेत्र के 10 बैंकों में पूंजी लगाने के सरकार के निर्णय की एक शर्त यह है कि कर्मचारियों को मिलने वाले फायदे कम किए जाएंगे। जब बैंक कर्मचारी संगठनों ने इसका विरोध किया तो मीडिया ने इसे गलत करार दिया। न्यूनतम मजदूरी और ठेका मजदूरी की समस्या से हर श्रमिक संगठन को जूझना होगा। ये समस्याएं हर जगह हैं और इनसे श्रम संगठनों की मोलभाव की क्षमता घटी है।

श्रम संगठनों को मजदूरों की चिंताओं को जनता की चिंता बनाने का बड़ा और मुश्किल काम करना होगा। यह साबित करना होगा कि श्रम सुधार के नाम पर जो चल रहा है, वह लोकतांत्रिक अधिकारों के खिलाफ है। इसका एक तरीका यह है कि प्रगतिशील राजनीतिक और सामाजिक अभियानों के साथ संपर्क साधा जाए।

(ईपीडब्लू से साभार)

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