Saturday, April 27, 2024

पंकज बिष्ट के योगदान का मूल्यांकन

पंकज बिष्ट पर यह विशेषांक क्यों?… इस सवाल का जवाब देने से पहले संक्षेप में ‘बया’ के पंद्रहवें वर्ष में प्रवेश तक के सफ़र में विशेषांक निकालने को लेकर जो हमारी संपादकीय सोच रही है, उसके बाबत बताना ज़रूरी लगता है…

‘बया’ एक सीमित संसाधन वाली पत्रिका है। इसलिए हमने शुरू से तय कर रखा है कि जो काम हिंदी की अधिकांश पत्रिकाएं कर रही हैं हम उनको दुहराने के बजाय कुछ नया और अलग करने का प्रयास करेंगे, इसलिए हमने उन महान साहित्यकारों की सौवीं-सवा सौवीं जयंती पर कोई विशेषांक नहीं निकाला, जिन पर दूसरी कई पत्रिकाओं ने बड़े-बड़े विशेषांक निकाले। इसी तरह ख़ूब चर्चित-प्रशंसित रहे उन रचनाकारों पर हमने कोई विशेषांक की ज़रूरत नहीं समझी और न ही ‘अवदान’ स्तंभ के अंतर्गत उन पर विशेष चर्चा ज़रूरी लगी, जिन पर प्राय: दूसरी पत्रिकाओं ने विशेष ध्यान दिया है।

ऐसा कहकर हम उनके कार्यों के प्रति कोई विरोध या असहमति नहीं जता रहे हैं, बस यह मानकर चल रहे हैं कि एक ज़रूरी काम किसी न किसी मंच/पत्रिका के ज़रिये हो गया। हम उनके कार्य को सहयोगी-प्रयास के रूप में देखते हैं। वरिष्ठ आलोचक सुरेंद्र चौधरी, प्रसिद्ध दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि और तुलसीराम, महत्त्वपूर्ण कथाकार-आलोचक अरुण प्रकाश पर निकले विशेषांक इसी सोच के परिणाम हैं, जिन पर उस तारीख़ तक मूल्यांकन की वैसी कोई कोशिश नहीं हुई थी जिनके वे हक़दार रहे।

अब पंकज बिष्ट पर प्रस्तुत इस विशेषांक के बाबत… पंकज बिष्ट 75 के हो रहे हैं। यह एक अवसर बनता है, लेकिन ऐसा अवसर अन्य कई दूसरे महत्त्वपूर्ण लेखकों से जुड़ा भी हो सकता है… फिर किसी अन्य पर नहीं और पंकज बिष्ट पर ही क्यों?… दरअसल, क़रीब पचास साल के हिंदी के साहित्यिक परिदृश्य को गौर से देखें तो हमें अपवादस्वरूप ही ऐसे कुछ लेखक-कवि-आलोचक मिलेंगे जिन्हें अपनी किताबों की चर्चा/समीक्षा की चिंता नहीं रही हो।

इसके उलट ऐसे ‘महान’ बहुत मिलेंगे जो अपनी किताबों की चर्चा/समीक्षा के लिए ख़ूब-ख़ूब प्रयासरत रहे, निजी ख़र्चे पर भी चर्चा प्रायोजित करवाते रहे, हर तरह के दंद-फंद और तिकड़म कर चर्चा में बने रहे। ‘लेकिन दरवाज़ा’ के नीलांबर की तरह साहित्य के बल पर हर सुविधा और यश हासिल करने में लगे रहकर उसके औचित्य को भी सिद्ध करते रहे। स्थिति तो इतनी विकट हो गई है कि आज नए-से-नए रचनाकारों की ख़राब-से-ख़राब किताबों की दर्जनों समीक्षाएं हो जाती हैं, क़रीबी आलोचकों के ज़रिए विमोचन-चर्चा के कार्यक्रम और विश्वविद्यालयों के ज़रिए एमफ़िल., पीएचडी तक जुगाड़ लिए जाते हैं। पुरस्कार की तो बात ही न करें…!

इस लिहाज से पंकज बिष्ट की किताबों पर प्रकाशित समीक्षा-लेख खोजने लगेंगे तो भीषण निराशा हाथ लगेगी। ‘हंस’, ‘पहल’, ‘वसुधा’ जैसी अरसे से निकल रही या बंद हो गईं अनेक प्रसिद्ध पत्रिकाओं की फाइल खंगाल डालिए! पंकज बिष्ट की किताबों की समीक्षा लगभग नहीं मिलेगी। गौरतलब है कि उस दौर की या इधर की पत्रिकाओं में भी उन पर बहुत ज़्यादा सामग्री हाथ नहीं आएगी। उनकी किताबों पर गिनती की कुछ समीक्षाएं मिलती हैं। ऐसा उनकी पीढ़ी के किसी और उपन्यासकार-कथाकार के साथ शायद ही हुआ हो।

आज़ादी के बाद के शुरुआती दस-पंद्रह सालों में भले ही कई बड़े उपन्यासकार हुए हैं और उनके कई महत्त्वपूर्ण उपन्यास आए हैं, लेकिन पिछले क़रीब पचास वर्षों में अरसे तक याद रह जाने वाले अच्छे उपन्यासों की संख्या बहुत कम है। इन पचास वर्षों में प्रकाशित उपन्यासों में से दस श्रेष्ठ/कालजयी उपन्यास चुना जाए तो निश्चय ही उनमें दो उपन्यास पंकज बिष्ट के होंगे—लेकिन दरवाज़ा’ (1982) और ‘उस चिड़िया का नाम’ (1989)। यूं बाद में उनका उपन्यास ‘पंखवाली नाव’ (2009) भी आया जो तब तक हिंदी के लिए अछूते विषय (समलैंगिकता) के लिहाज से एक गौरतलब उपन्यास है। इसी बीच बच्चों के लिए भी उनका एक उपन्यास आता है—’भोलू और गोलू’ (1994)।

उपन्यासकार के अलावा पंकज बिष्ट की पहचान कहानीकार के तौर पर भी रही है। ‘अंधेरे से’ (1976) असग़र वजाहत के साथ साझा कहानी-संग्रह है। ‘पंद्रह जमा पच्चीस’ (1980), ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’ (1985), ‘टुंड्रा प्रदेश तथा अन्य कहानियां’ (1995) उनके स्वतंत्र कहानी-संग्रह हैं। बीसवीं शताब्दी में प्रकाशित अन्य सभी कहानियों सहित कुल 32 कहानियों का संकलन है ‘शताब्दी से शेष’ (2013)।

इक्कीसवीं शताब्दी में अब तक उनकी दो कहानियां छपी हैं— ‘रूपकुंड और जंगल का रास्ता’ (‘हंस’, अक्टूबर, 2006) और ‘…ऐसी जगह…’ (‘नया ज्ञानोदय’, मई, 2019)। कथेतर गद्य में भी उनकी लगातार सक्रियता रही है। कथेतर गद्य/वैचारिक लेखों की उनकी पांच किताबें हैं—’हिंदी का पक्ष’ (2008), ‘कुछ सवाल कुछ जवाब’ (2008), ‘शब्दों के घर’ (2009), ‘ख़रामा-ख़रामा’ (2012), ‘शब्दों के लोग’ (2016)। इसके अलावा हर महीने ‘समयांतर’ के लिए उनका जो योगदान है—उससे कोई असहमत भले हो, उनके समर्पण और महत्व को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता।

हिंदी में कहानी-कविताओं को महत्त्व देने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या कभी कम नहीं रही, लेकिन हिंदी पट्टी के वैचारिक मसलों को लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श की ऐसी कोई पत्रिका जो लंबे समय से निकल रही हो, याद नहीं आ रही। अंग्रेज़ी में जिस तरह का काम ‘ईपीडब्ल्यू’, ‘फ्रंटियर’ वग़ैरह ने किया, हिंदी में ऐसी पत्रिका का लगभग अकाल ही रहा है। इस कमी को दूर करने का काम पंकज बिष्ट अपने निजी संसाधनों और प्रयासों के बूते पिछले बीस साल से लगातार ‘समयांतर’ के माध्यम से कर रहे हैं।

पंकज बिष्ट हिंदी साहित्य में पचास साल से भी ज़्यादा समय से सक्रिय हैं। उनकी पहली कहानी ‘सूली चढ़ा एक और मसीहा’ 52 साल पहले 1968 के ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपी थी। तब से वह न मात्र लेखन में निरंतर सक्रिय हैं, साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रकारिता भी किसी न किसी रूप में लगातार कर रहे हैं। सरकारी नौकरी के दौरान शुरू के 30 से ज़्यादा सालों तक ‘आजकल’ (बीच-बीच में कुछ समय के लिए ‘योजना’, ‘आकाशवाणी पत्रिका’, फ़िल्म डिवीज़न और समाचार प्रभाग में भी गए, मगर मुख्यत: ‘आजकल’ में ही रहे) के संपादन से जुड़े रहे। फिर 1998 में वहां से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर मनोनुकूल पत्रकारिता करने के उद्देश्य से ‘समयांतर’ की तैयारी में लग गए। अक्टूबर, 1999 से लगातार मासिक ‘समयांतर’ निकाल रहे हैं।

हमारी दृष्टि में पंकज बिष्ट का लेखन (ख़ासकर उपन्यासकार वाला पक्ष) और उनकी पत्रकारिता वाला (विशेष कर बाद वाला यानी ‘समयांतर’) पक्ष है—जिसके चलते वे अपने तमाम समकालीनों में सबसे अलग और विशिष्ट नज़र आते हैं और प्राय: इसीलिए हमें उनका योगदान उल्लेखनीय और विचारणीय लगता है। बात साफ़ है कि इसी वजह से हमने पंकज बिष्ट के 75वें वर्ष में प्रवेश के अवसर पर उनके योगदान के मूल्यांकन की दिशा में एक विनम्र प्रयास किया है।

‘बया’ के पाठकों तथा समस्त साहित्य प्रेमियों की ओर से हम पंकज जी को 75वें जन्मदिन पर हार्दिक बधाई देते हैं। पंकज जी इसी प्रकार स्वस्थ और सक्रिय बने रहें, हमारी यही कामना है। उम्मीद है, हिंदी के पाठकों, साहित्य प्रेमियों, छात्रों और साहित्य के अध्यापकों के लिए यह अंक कुछ सार्थक और मददगार सिद्ध हो।

इस अंक को हमने मुख्यत: चार खंडों में बांटा है: पहला खंड पंकज बिष्ट के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर केंद्रित है। इस खंड में पंकज बिष्ट के विस्तृत आत्मकथन के साथ ही उनसे लिया गया एक दीर्घ साक्षात्कार है। फिर उनके समकालीन और क़रीबी रहे—रामशरण जोशी, इब्बार रब्बी, असग़र वजाहत, मंगलेश डबराल, बटरोही, महेश दर्पण, मोहन आर्या जैसे मित्रों और उनकी पत्नी ज्योत्स्ना त्रिवेदी, बेटियां स्वाति और उत्तरा, बेटे वारिधि, बड़ी बहन विमल प्रतिभा के संस्मरण और टिप्पणियां हैं।

दूसरा खंड उपन्यासकार के रूप में पंकज बिष्ट के मूल्यांकन पर केंद्रित है जिसमें—आनंद प्रकाश, रविभूषण, प्रकाश कांत, कमलानंद झा, प्रेमकुमार मणि, जानकी प्रसाद शर्मा, वीरेंद्र यादव, विजय बहादुर सिंह, गिरधर राठी, अब्दुल बिस्मिल्लाह, चंद्ररेखा ढडवाल, रोहिणी अग्रवाल, जय प्रकाश कर्दम, मृत्युंजय प्रभाकर जैसे गंभीर रचनाकारों के आलोचनात्मक लेख हैं। तीसरे खंड में कहानीकार के रूप में पंकज बिष्ट के मूल्यांकन पर विचार किया गया है। इस खंड में—जानकीप्रसाद शर्मा, रोहिणी अग्रवाल, नीरज खरे, विपिन तिवारी, राकेश बिहारी, अजय वर्मा, उदय शंकर, वेद प्रकाश सिंह, श्रुति कुमुद जैसे महत्त्वपूर्ण आलोचकों के मूल्यांकनपरक लेख हैं।

चौथे खंड में पंकज बिष्ट के पत्रकार-व्यक्तित्व को सामने लाने वाले गोविंद प्रसाद, सुभाष गताडे, योगेन्द्र दत्त शर्मा, कृष्ण सिंह और प्रमोद कुमार बर्णवाल जैसे लेखकों के संस्मरणात्मक लेख हैं। इनमें से अधिकांश वे हैं जो उनकी पत्रकारिता के चश्मदीद, सहयोगी लेखक, सहयोगी संपादक या मित्र रहे हैं। इसी खंड में उनके कथेतर गद्य पर केंद्रित आनंद पांडेय का मूल्यांकनपरक लेख भी है। साथ ही पंकज बिष्ट की दो प्रसिद्ध कहानियों—’बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’ और ‘टुंड्रा प्रदेश’—के अलावा तिब्बत की यात्रा का उनका एक अद्भुत वृत्तांत है।

इस अंक के तमाम सहयोगी रचनाकारों के प्रति विशेष आभार जिनके सहयोग के बिना यह अंक संभव ही नहीं था। साक्षात्कार को संभव करवाने वाले सहयोगी साथी कृष्ण सिंह, जितेंद्र कुमार और सिद्धार्थ के साथ ही ‘बया’ परिवार के साथी अशोक भौमिक, बिपिन कुमार शर्मा, श्रीधरम, दीपक कुमार दिनकर के प्रति आभार जिनका योगदान इस अंक के साथ हमेशा याद रहेगा।

अभी नौ फरवरी को दिवंगत हुए महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार-कथाकार गिरिराज किशोर के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि। वे हमारे इतने क़रीबी रहे कि उनका जाना हमें निजी क्षति की तरह आहत कर गया है। उन पर विशेष लेख अगले अंक में रहेगा।
(बया पत्रिका में प्रकाशित संपादकीय)

गौरीनाथ
(लेखक साहित्यिक पत्रिका बया के संपादक हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles