Tuesday, April 16, 2024

स्मृति शेष: मोहनदास के महात्मा गांधी बनने की प्रमाणिक कथा लिखने वाले लेखक गिरिराज किशोर

अपने वृहद उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ के जरिए महात्मा गांधी के ‘महात्मा’ होने से पहले की जीवन प्रक्रिया के अनगिनत अनछुए पहलू विस्तार से व्याख्ति करने वाले गिरिराज किशोर उस वक्त विदा हुए हैं जब एक विचारधारा विशेष से वाबस्ता लोगों की पूरी एक जमात देश के एक से दूसरे कोने तक रोज गांधी को मार रही है। नाथूराम गोडसे के हाथों कत्ल हुए गांधी अब फिर बार-बार कत्ल किए जा रहे हैं और जीवनकाल की संध्या में गिरिराज किशोर इस सबसे गहरे तक विचलित थे और अपने गहन शोध के आधार पर गांधी पर वैचारिक लेखन की श्रृंखला को नए संदर्भों के साथ नए आकार दे रहे थे।

उनके फिलहाल तक 15 उपन्यास प्रकाशित हैं। सब अपनी-अपनी खुसूसियतों की वजह से चर्चा में रहे। सबको मिली कम-ज्यादा मान्यता के आधार पर उनका विशिष्ट पाठक वर्ग बना, लेकिन उन्हें सर्वाधिक मकबूलियत हासिल हुई गांधी जी के दक्षिण अफ्रीकी जीवन पर केंद्रित उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ से। हिंदी साहित्य में स्थापित परंपरा है कि एक या एकाधिक रचनाओं के आधार पर बड़े लेखकों को ‘सर्वमान्यता’ और ‘अमरत्व’ (!) हासिल होता है। गिरिराज जी को यह ‘पहला गिरमिटिया’ से हासिल हुआ। वह सदैव 900 पृष्ठों के इस वृहद तथा शोधपरक महत्वपूर्ण उपन्यास के लिए विशेष तौर से रेखांकित किए जाएंगे।

कस्तूरबा गांधी के जीवन पर गहन शोध के बाद लिखे गए उपन्यास ‘बा’ के लिए भी। हालांकि गिरिराज किशोर गांधीवादी नहीं थे और ‘गांधीवाद’ को लेकर उनके कुछ प्रकट संशय थे। गांधी और बा पर नायाब एवं उच्च दर्जे के उपन्यास लिखने के बावजूद। गिरिराज किशोर के निर्मम आलोचकों ने भी बाकायदा स्वीकार किया है कि ‘पहला गिरमिटिया’ मोहनदास करमचंद गांधी की महात्मा गांधी बनने की प्रक्रिया को समझने के लिए एक अपरिहार्य कृति है। गांधी पर लिखे रचनात्मक लेखन में सर्वश्रेष्ठ।

इसे लिखने के लिए गिरिराज जी ने आठ-नौ वर्ष अथक परिश्रम किया। उपन्यास का केंद्रीय बिंदु गांधी जी का अफ्रीकी-युग है। इसके लिए उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की कई यात्राएं कीं, हजारों किताबों से गुजर कर लंबा शोध किया और उन लगभग तमाम जगहों को अपनी गहरी रचनात्मक दृष्टि से स्पर्श किया, जहां-जहां गांधी दक्षिण-अफ्रीका में विचरे। उस जमीन पर जाकर तमाम घटनाक्रम को इतिहास से निकालकर वर्तमान में ले जाना असाधारण कार्य है। उसे गिरिराज किशोर ने बखूबी से किया। फिर नौ सौ छपे पृष्ठों का लंबा उपन्यास बतौर सौगात हिंदी साहित्य समाज को दिया।

अपने कथा-कौशल की नई गहराई और ऊंचाई को विलक्षणता के साथ सिद्ध किया। इतनी विस्तृत रचना को बगैर ऊब के पढ़वा ले जाना और शुरू से अंत तक पठनीयता को बरकरार रखना बेहद मुश्किल है लेकिन ‘पहला गिरमिटिया’ के हाथों-हाथ  लिए जाने तथा एक के बाद एक उसके कई संस्करण आना इसकी पुख्ता मिसाल है कि उनमें निरंतर विकसित होती अद्भुत प्रतिभा थी। जिन्होंने घोर निंदकों और आलोचकों को भी उनका कायल बनाया। ‘बा’ के संबंध में भी यही हुआ। इस उपन्यास को उनकी क्षमता और प्रतिभा के विकास के तौर पर भी लिया गया।

अपने समय के अनूठे पत्रकार-संपादक प्रभाष जोशी गांधी जी के प्रति गहरे आस्थावान थे। गांधी जी के महीन अध्येता भी। ‘पहला गिरमिटिया’ जब प्रकाशित हुआ तो प्रभाष जी की पत्रकारीय सक्रियता उन्हें कहां इतना समय देती होगी कि वह 900 पेज के इस विशुद्ध साहित्यिक उपन्यास को पढ़ें। पर साहित्य के प्रति गहरे अनुराग और गांधी जी के प्रति समर्पण ने उन्हें ‘पहला गिरमिटिया’ पढ़ाया। टुकड़ों में नहीं, निरंतरता में। तब प्रभाष जोशी ने टिप्पणी लिखी: ‘संक्रमण में पढ़ने योग्य महाभारत से श्रेष्ठ कोई महाकाव्य नहीं है। और कहूं कि भीतरी और बाहरी संक्रमण को समझने में ‘पहला गिरमिटिया’ से ज्यादा प्रेरक कोई उपन्यास नहीं है।

मोहनदास करमचंद गांधी के कुली बैरिस्टर से महात्मा गांधी बनने की प्रक्रिया और विलक्षण कहानी जैसी ‘पहला गिरमिटिया’ में से बनकर निकली है वैसी मैंने पहले कहीं और नहीं पढ़ी।’ एक शीर्ष गांधीवादी पत्रकार-चिंतक और सामाजिक बुद्धिजीवी की ऐसी टिप्पणी इस उपन्यास की सार्थकता पर बहुत कुछ कह जाती है और लिखने वाले के श्रम का बेहद गरिमामयी सत्कार-सम्मान करती है।

गिरिराज किशोर के समकालीन श्रीलाल शुक्ल ने ‘पहला गिरमिटिया’ पर पहले-पहल प्रतिक्रिया दी थी कि यह उपन्यास अंग्रेजी में लिखा जाता तो गिरिराज को अकूत रॉयल्टी मिलती। तब इसे श्रीलालजी का कटाक्ष कहा गया था, लेकिन बाद में स्पष्ट हुआ कि इसके मायने नकारात्मक नहीं, सकारात्मक थे। कटाक्ष था भी तो ईर्ष्याजनित और रचना को रद्द करने वाला कतई नहीं था। बाद में श्रीलाल शुक्ल ने कहा: ‘मेरी दृष्टि में, यह उपन्यास समकालीन हिंदी साहित्य की एक असाधारण घटना है। यही नहीं, यह गिरिराज किशोर के दीर्घकालीन लेखन की चरम सार्थकता भी है। …यह कृति निश्चय ही हमारे-विशेषत: नई पीढ़ी के लिए आश्चर्यपुरुष (महात्मा गांधी) के जटिल जीवन और दर्शन को संवेदना और समझ के साथ पहचानने में मदद करेगी।’ 

हर चर्चित-बहुचर्चित रचना की निर्मम चीरफाड़ करने वाले और गिरिराज किशोर के अधिकांश साहित्य से (निजी दोस्ती और आत्मीयता के बावजूद) असहमति जताते रहने वाले राजेंद्र यादव ने पहली बार उनकी इतनी खुलकर प्रशंसा की तथा ‘पहला गिरमिटिया’ को उनका महत्वाकांक्षी तथा बड़ा उपन्यास करार दिया। यह एक तरह से राजेंद्र यादव का गिरिराज किशोर को अपनी शैली में ‘हार्दिक नमस्कार’ था। बल्कि उनकी कलम को। सामर्थ्य को भी! प्रभाष जोशी, श्रीलाल शुक्ल और राजेंद्र यादव सरीखी बेशुमार उल्लेखनीय और अमूल्य प्रतिक्रियाएं ‘पहला गिरमिटिया’ के लिए गिरिराज किशोर को मुतवातर मिलती रहीं। उन्होंने इस वृहद उपन्यास की पठनीयता और प्रामाणिकता बनाए रखने की यथासामर्थ्य सफल कोशिश की। 

‘पहला गिरमिटिया’ लिखने के लिए गिरिराज किशोर ने दक्षिण-अफ्रीका, लंदन और मॉरीशस की कई यात्राएं कीं। इन महंगी यात्राओं के लिए आर्थिक संसाधनों का कतिपय राजनेताओं से सहयोग लेने के चलते उन्हें आरोपों के कटघरे में भी खड़ा किया गया, लेकिन इतनी बड़ी रचना के आगे वे तमाम आरोप गौण हो गए। हालांकि तब ‘जनसत्ता’ में उन्होंने इस बाबत अपना तार्किक पक्ष भी मजबूती से रखा। आखिर में अहम रह गया ‘पहला गिरमिटिया’ का कालजयी प्रभाव और उसके दीर्घकालीन सरोकार।

विस्तृत शोध, लंबी यात्राओं और निरंतर कलमघिसाई के बाद इसकी पांडुलिपि को अंतिम रूप गिरिराज किशोर ने 30 मई, 1998 में कानपुर में दिया। पांडुलिपि में आवश्यक संशोधन-सुधार के लिए उन्होंने इतिहास की गहरी समझ रखने वाले प्रख्यात लेखक प्रियंवद, राजेंद्र यादव, नरेश सक्सेना और शैलेश मटियानी की सहायता ली। उपन्यास की रचना प्रक्रिया के दौरान अप्रीतम कथाकार-उपन्यासकार शैलेश मटियानी ने उनसे कहा था, ‘गिरिराज जी, गांधी जी की लाठी लगने की बात है, अगर छू गई तो उपन्यास पूरा हो जाएगा…!’

उपन्यास के औपचारिक परिचय के तौर पर कहा गया है: ‘गिरमिटिया’ अंग्रेजी के शब्द ‘एग्रीमेंट’ का बिगड़ा हुआ रूप है। यह वह एग्रीमेंट या ‘गिरमिट’ है जिसके तहत हजारों भारतीय मजदूर आज से डेढ़ सौ साल पहले दक्षिण अफ्रीका में काम की तलाश में गए थे। एक अजनबी देश, जिस के लोग, भाषा, रहन-सहन, खान-पान एकदम अलग… और सारे दिन की कड़ी मेहनत के बाद न उनके पास कोई सुविधा, न कोई अधिकार। तभी इंग्लैंड से वकालत की पढ़ाई पूरी कर 1893 में मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका पहुंचते हैं।

रेलगाड़ी का टिकट होने के बावजूद उन्हें रेल के डिब्बे से सामान समेत बाहर निकाल फेंका जाता है। इस रंगभेद नीति के पहले अनुभव ने युवा गांधी पर गहरी छाप छोड़ी। रंगभेद नीति की आड़ में दक्षिण अफ्रीका में काम कर रहे भारतीय मजदूरों पर हो रहे अन्याय गांधी को बर्दाश्त नहीं होते और वे उन्हें उनके अधिकार दिलाने के संघर्ष में पूरी तरह जुट जाते हैं। बंधुआ मजदूरों के साथ अपनी एकता को प्रदर्शित करने के लिए अपने आप को ‘पहला गिरमिटिया’ कहते हैं।

19वीं और 20वीं सदी के दक्षिण अफ्रीका की सामाजिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास को सन 2000 के व्यास सम्मान से पुरस्कृत किया गया। ‘शतदल सम्मान’ और ‘गांधी सम्मान’ से सुसज्जित ‘पहला गिरमिटिया’ गांधी जी को समझने का एक सफल प्रयास है।’

‘पहला गिरमिटिया’ का प्रथम संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था। बाद में लेखकों और भारतीय ज्ञानपीठ के बीच हुए वैचारिक मतभेद के चलते गिरिराज किशोर ने यह उपन्यास अपने सर्वाधिकार का इस्तेमाल करते हुए वहां से वापस ले लिया। इसमें उन्हें काफी मुश्किलें आई। उन्हें मनाने और अंततः सताने की कवायद की गई, लेकिन लगभग लड़ाई और ज़िद के साथ वह डटे रहे और उपन्यास भारतीय ज्ञानपीठ से वापस ले ही लिया। तब से इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं और ताजा संस्करण ‘राजपाल एंड सन्ज़’ से है।

गिरिराज किशोर के अनुसार महात्मा गांधी के जीवन के तीन पक्ष हैं- एक मोहनिया पक्ष, दूसरा मोहनदास पक्ष और तीसरा महात्मा गांधी पक्ष। उन्होंने ‘मोहनदास पक्ष’ चुना। जिसके बाद मोहनदास करमचंद गांधी भारत आकर महात्मा गांधी बने।

‘पहला गिरमिटिया’ के बाद गिरिराज किशोर गांधी जी की जीवनसंगिनी कस्तूरबा गांधी की ओर मुड़े, जो महज गांधी जी की पत्नी ही नहीं बल्कि देश की आजादी के लिए लड़ने वाली एक प्रतिबद्ध महिला भी थीं। इसे लिखने के लिए भी गहन शोध और यात्राएं कीं। वह उन बेशुमार लोगों से मिले, जिनके पास कस्तूरबा गांधी से संबंधित कोई भी सूचना मिल सकती थी। फिर गहरी मेहनत से लिखा गया उपन्यास- ‘बा’। यह उपन्यास बापू के बापू बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया में हमेशा एक खामोशी ईंट की तरह नींव बनी रहीं बा के अनछुए पहलुओं को शिद्दत से उजागर करता है। और उस व्यक्तित्व को भी जिसने घर और देश की जिम्मेदारियों को एक दूरी पर साधा।

उन्नीसवीं सदी के भारत में एक कम उम्र की लड़की का पत्नी रूप में होना और फिर धीरे-धीरे पत्नी होना सीखना, उस पति के साथ जुड़ी उसकी इच्छाएं, कामनाएं और फिर इतिहास के एक बड़े चक्र के फलस्वरुप यह कैसे व्यक्ति की पत्नी के रूप में खुद को पाना जिसकी ऊंचाई उनके समकालीनों के लिए भी एक पहेली थी। यह यात्रा लगता है कि कई लोगों के हिस्से की थी, जिसे बा ने अकेले पूरा किया। यह उपन्यास इस यात्रा के हर पड़ाव को इतिहास की तरह रेखांकित भी करता है और कथा की तरह हमारी स्मृति का हिस्सा भी बनता है।

उपन्यास ‘बा’ में हम खुद बापू के भी एक भिन्न रूप से परिचित होते हैं। उनका पति और पिता का रूप। घर के भीतर वह व्यक्ति कैसा रहा होगा, जिसे इतिहास ने पहले देश और फिर पूरे विश्व का मार्गदर्शक बनते देखा, उपन्यास के कथा-फ्रेम में यह महसूस करना भी एक अनुभव है। इस उपन्यास के भी कई संस्करण आए हैं। 

बहरहाल गांधी के ‘गांधी’ बनने और कस्तूरबा के ‘बा’ बनने की ऐतिहासिक कथा इतनी यथार्थपरकता के साथ पहले कभी नहीं लिखी गई। आगे कभी लिखी गई तो कैसी लिखी जाएगी, कोई नहीं कह सकता। जबकि महात्मा गांधी पर हजारों और कस्तूरबा गांधी पर सैकड़ों किताबें दुनिया की विभिन्न ज्ञात भाषाओं में लिखी गई हैं और लिखी जाती रहेंगी, लेकिन जो गिरिराज किशोर ने ‘पहला गिरमिटिया’ और ‘बा’ के जरिए अपनी भाषा हिंदी में लिखा, वह गांधी और बापू को समझने के लिए नायाब ऐतिहासिक साहित्यिक दस्तावेज है।

सो उनके इन दोनों उपन्यासों की प्रासंगिकता सदा रहेगी। उनके बाकी साहित्य का भविष्य में क्या और कैसा मूल्यांकन होगा, यह दीगर है लेकिन ये दो उपन्यास हिंदी साहित्य के इतिहास में अपनी विशिष्ट जगह बनाए रखेंगे; उम्मीद की जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और जालंधर में रहते हैं।)

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