Saturday, April 20, 2024

अमेरिका का ऑकुस दांवः Thucydides Trap की एक और मिसाल?

अमेरिकी टीवी चैनल सीएनएन के विश्लेषक फरीद जकरिया की पहचान अमेरिका के लिबरल खेमे की सोच को जुबान देने वाले टीकाकार की है। अमेरिकी सियासत में डॉनल्ड ट्रंप के उभार के बाद से मोटे तौर पर सीएनएन चैनल की पहचान डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक के रूप में बनी रही है। इसी चैनल पर फरीद जकरिया ने इस हफ्ते अपनी एक टिप्पणी में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की विदेश नीति की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति के रूप में अपने आठ महीनों में बाइडेन का ट्रैक रिकॉर्ड ट्रंप की विदेश नीति को नॉर्मालाइज करने (उसे ही सामान्य रूप देने) जैसा रहा है। अपनी इस बात के पक्ष में जकरिया ने कई तथ्य दिए।

यह इस बात का संकेत है कि अमेरिका के उदारवादी खेमे में जो बाइडेन की विदेश नीति को लेकर गहरी बेचैनी है। जकरिया की टिप्पणी का ताजा संदर्भ पिछले हफ्ते अचानक अमेरिका का ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिल कर एक नया रक्षा गठबंधन बना लेने का है। ऑस्ट्रेलिया-यूनाइटेड किंगडम-यूनाइटेड स्टेस्ट्स के इस नए गठबंधन को बोलचाल में ऑकुस नाम दिया गया है। इस गठबंधन के तहत हुआ पहला फैसला यह है कि अमेरिका और ब्रिटेन की टेक्नोलॉजी से ऑस्ट्रेलिया परमाणु क्षमता से लैस आठ पनडुब्बियों का निर्माण करेगा।

इस समझौते पर एतराज का सैद्धांतिक पक्ष यह है कि इसके साथ ही बाइडेन प्रशासन ने परमाणु अप्रसार की अमेरिका की नीति को, अगर क्रिकेट की भाषा में कहें तो, बाउंड्री के पार पहुंचा दिया है। आखिर जब एक परमाणु क्षमता से वंचित देश को परमाणु पनडुब्बी बनाने में खुद दो परमाणु हथियार वाले देश खुलेआम मदद करेंगे, तो आखिर किसी और देश को ऐसी क्षमता हासिल करने से रोकने का क्या तर्क होगा? दरअसल, ऐसा तर्क पहले भी मौजूद नहीं है, जिसका औचित्य समानता और न्याय के सिद्धांतों पर खरा हो। लेकिन अब तक इस बारे में जो भी कथित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था है, उसे इन दोनों देशों ने एक तरह से अब खुली चुनौती दी है। ये तथ्य से लिबरल खेमे के लिए असहज स्थिति बनना लाजिमी है, जो अमेरिकी स्वार्थ की रक्षा के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर सिद्धांत का मुलम्मा चढ़ाने में अपनी सारी बौद्धिक मेधा लगाए रखता है।

बहरहाल, आज अमेरिकी सत्ता तंत्र और मेनस्ट्रीम मीडिया पर वित्तीय पूंजी और सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठान का जैसा शिकंजा है, उसे देखते हुए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बात अगर सिर्फ सिद्धांत के उल्लंघन की होती, तो लिबरल खेमे के भीतर वैसी बेचैनी नहीं दिखती। लेकिन जिस गुपचुप और अप्रत्याशित तरीके से अमेरिका ने ये नया गठबंधन बनाया, उससे अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के आज के सबसे बड़े लक्ष्य के रास्ते में भी बाधा खड़ी हुई है। ये लक्ष्य है चीन के अभूतपूर्व उदय को रोकना। वैसे किसी देश के स्वतंत्र उदय को रोकना किसी अन्य देश का लक्ष्य क्यों होना चाहिए, यह अपने आप में बड़ा प्रश्न है। लेकिन अमेरिकी शासक वर्ग के बीच पिछली सदी में अमेरिका के सबसे बड़ी वैश्विक महाशक्ति बनने के बाद से इस बात पर हमेशा आम सहमति रही है कि अगर कोई देश इस तरह उठता हुआ नजर आए, जिससे भविष्य में अमेरिका के वैश्विक वर्चस्व को चुनौती मिलने की संभावना हो, तो उसे वहीं रोक दिया जाना चाहिए। चीन के मामले में अभी अमेरिकी शासक वर्ग की इसी आम सहमति का इजहार होता हम देख सकते हैं।

ऑकुस के साथ मुश्किल यह है कि ये करार यूरोप को नजरअंदाज करते हुए, यूरोपियन यूनियन को अंधेरे में रखते हुए, और फ्रांस के आर्थिक हितों पर गहरी चोट पहुंचाते हुए किया गया है। फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के बीच पनडुब्बियां बनाने का एक करार पहले से मौजूद था। मगर वे पनडुब्बियां परमाणु क्षमता से लैस नहीं होतीं। ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस को इस बारे में भनक तक नहीं लगने दी कि वह इस सौदे की कीमत पर कोई दूसरा करार करने की बातचीत में शामिल है। पिछले जून में ब्रिटेन में हुए जी-7 देशों के शिखर सम्मेलन के समय बाइडेन और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के बीच सीधी- व्यक्तिगत वार्ता हुई थी। वहां बाइडेन ने भी मैक्रों को ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि ऑस्ट्रेलिया के साथ अमेरिका किसी नए रक्षा समझौते की बातचीत में शामिल है।

जाहिर है, जब अचानक नए रक्षा करार का एलान हुआ, तो फ्रांस उस पर बिफर पड़ा। उसकी नाराजगी का अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि फ्रांस ने अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया दोनों में स्थित अपने राजदूतों को वापस बुला लिया। कूटनीति से परिचित किसी व्यक्ति के लिए इसका अर्थ समझना कठिन नहीं है। राजदूत वापस बुलाना विरोध जताने का सबसे सख्त तरीका माना जाता है। फ्रांस के विदेश मंत्री ने अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा कि उनके देश की पीठ में छुरा भोंका गया है। गौरतलब यह है कि ऐसी प्रतिक्रिया सिर्फ फ्रांस की नहीं है। पूरे यूरोपियन यूनियन में यह भाव है कि तीन देशों ने अपने स्वार्थ में उन देशों को धोखा दिया, जिन्हें वे अपना पार्टनर कहते हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार ट्रंप के दौर में इस पार्टनरशिप में दरार पैदा हुई थी। ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ यानी अमेरिकी हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की नीति ने अमेरिका के यूरोपीय सहयोगियों को गहरा झटका दिया था। बात यहां तक पहुंची कि दुखी यूरोपीय देश यह कहने लगे कि उन्हें अब अपनी सुरक्षा का इंतजाम खुद करना होगा, जिसका उन्होंने एक तरह से दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका को ठेका दे रखा था।

बाइडेन ने राष्ट्रपति बनने के बाद एलान किया था कि अमेरिका की विश्व कूटनीति में वापसी हो गई है। इससे यूरोप में उम्मीद की नई किरण जगी थी। लेकिन अब यूरोपीय देशों में यह भावना खुल कर जताई गई है कि बाइडेन असल में ट्रंप की नीति पर ही चल रहे हैं। ये बात ध्यान में रखने की है कि ऑकुस का एलान अफगानिस्तान से फौज वापस बुलाने के बाइडेन प्रशासन के एकतरफा फैसले के कुछ ही दिन बाद हुआ। यूरोप में इस बात को लेकर पहले से नाराजगी थी कि 20 साल पहले जब सेना भेजने की बात आई थी, तो अमेरिका ने सबसे योगदान लिया था। तब सबसे राय-मशविरा किया गया था। लेकिन जब सेना वापस बुलाने की बात आई, तो उसने ये फैसला अकेले कर लिया। जबकि इसका नुकसान यूरोपीय देशों को भी उठाना पड़ा है। उसके बाद हुए ऑकुस करार से उनमें ये भाव हुआ है कि अमेरिका पर भरोसा करना अब बेहद मुश्किल हो गया है। दरअसल, अमेरिका के जितने भी पूर्व या वर्तमान सहयोगी देश हैं, उन सब में ये भाव आज काफी गहरी जड़ें जमा चुका है। बाइडेन का दौर इस धारणा को गलत साबित करने के बजाय उसकी और पुष्टि करता जा रहा है।

यही वो पृष्ठभूमि है, जिसमें फरीद जकरिया जैसे अमेरिका के लिबरल बुद्धिजीवी भी बेचैनी महसूस कर रहे हैं। अमेरिका में सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठान से नियंत्रित राजनेता भले ऐसी धारणा बनने के फौरी और दूरगामी परिणामों के प्रति सचेत ना हों, लेकिन ये बुद्धिजीवी इसे भलिभांति समझते हैं कि अगर किसी देश की बड़ी मुश्किल गढ़ी गई “नैतिक आभा” ध्वस्त होती है, तो देर-सबेर उसके दुनियावी वर्चस्व में भी सेंध लगना तय है।

ये बुद्धिजीवी यह भी समझते हैं कि जिस चीन के उदय को रोकना अमेरिका का लक्ष्य है, उसने अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती उस मोर्चे पर दी है, जहां चीजें खुद अमेरिकी सत्ता तंत्र के हाथ में नहीं हैं। एक समय अमेरिकी प्रभुत्व का मुख्य आधार था उसकी आर्थिक और सैनिक ताकत। ये दोनों ताकतें अभी भी उसके पास हैं। लेकिन उसने अपनी आर्थिकी को ऐसा रूप दे दिया है, जिससे वहां की आम जनता और धनी तबके की खाईं लगातार बढ़ती जा रही है। इससे जो असंतोष पैदा हुआ है, वह वहां तीखे राजनीतिक और वैचारिक ध्रुवीकरण का रूप ले चुका है। ये ध्रुवीकरण ऐसा है, जिसमें अमेरिका कैसा हो, उसका सपना दोनों ध्रुवों के बीच सीधे टकरा रहा है। इस स्थिति को टालने में अमेरिकी सरकार खुद को अक्षम पा रही है, क्योंकि गुजरे वर्षों में उसने खुद ही धीरे-धीरे अपने अंगों का निजीकरण कर दिया है।

प्रश्न है कि इस स्थिति के बीच अमेरिका चीन का मुकाबला कैसे करेगा? सोवियत संघ के साथ चले शीत युद्ध की तरह अमेरिका की कोशिश चीन को हथियारों की होड़ में उलझाने और सैनिक टकराव की तरफ ले जाने की है। सोवियत संघ अमेरिका और उसके साथी देशों की इस चाल में फंस गया था, जो उसके लिए घातक साबित हुआ। लेकिन चीन ने अब तक इस मामले में संभल कर चलने की समझ दिखाई है। उसने सैनिक गुट बनाने के बजाय आर्थिक, व्यापारिक, और इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी पार्टनरशिप बनाने को प्राथमिकता दे रखी है।

यह अकारण नहीं है कि जिस समय अमेरिका ने ऑकुस का एलान किया, उसी समय चीन ने कॉम्प्रेहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) की सदस्यता के लिए औपचारिक अर्जी दे दी। इस मुक्त व्यापार समझौते में 11 देश शामिल हैं। एशिया और प्रशांत क्षेत्र के देशों के बीच हुए इस करार की परिकल्पना पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के समय की गई थी। लेकिन ट्रंप के समय अमेरिका इससे हट गया। बाइडेन ने भी इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई है। तो चीन ने इसकी सदस्यता ग्रहण करने की पहल कर ये संदेश दिया है कि उसकी प्राथमिकता का क्षेत्र कारोबारी संबंध हैं।

दूसरी तरफ ऑकुस का परिणाम यह हुआ है कि यूरोप के साथ अमेरिका की पार्टनरशिप में नए पेच पड़ गए हैं। फ्रांस ने प्रत्यक्ष रूप से और यूरोपियन यूनियन के अधिकारियों ने परोक्ष रूप से आरोप लगाया है कि अमेरिका ने एंग्लो-सैक्सन (अंग्रेजी भाषी) मूल के देशों पर भरोसा करते हुए चीन को घेरने के लिए अपनी नई गोलबंदी कर ली है। अमेरिका के आलोचकों ने नए करार को कॉलोनियल-सेटलर देशों का गठबंधन कहा है। यानी उन देशों का गठजोड़, जिनका इतिहास दूसरे देशों को गुलाम बनाने और उपनिवेशों में जाकर वहां के मूलवासी लोगों का खात्मा करते हुए उसे अपनी जमीन बना लेने का रहा है। संदेश यह है कि ऐसे साम्राज्यवादी नजरिए वाले देश अब उस एक देश के खिलाफ एकजुट हुए हैं, जिसने उपनिवेशवाद का दौर शुरू होने के बाद से पहली बार पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए आर्थिक क्षेत्र में चुनौती पैदा की है।

लेकिन मुश्किल यह है कि ये तीन देश चीन को कैसे घेरेंगे, यह साफ नहीं है। उलटे इसका असर यह हो सकता है कि यूरोपीय यूनियन में चीन के प्रति भाव नरम हो जाए, जिससे उन देशों से उसका आर्थिक रिश्ता मजबूत होगा। दरअसल, अमेरिका-ब्रिटेन-ऑस्ट्रेलिया में जो पनडुब्बी समझौता हुआ है, उसके तहत पहली पनडुब्बी बनने में कम से कम 15 साल लगेंगे। तो तुरंत इससे चीन के लिए क्या चुनौती पैदा होगी? तो आखिर ये करार किसके फायदे में है? आम बुद्धि से यही बात समझ में आती है कि इससे अमेरिका और ब्रिटेन की रक्षा कंपनियों के अलावा किसी का फायदा नहीं है, जिनकी जेब में ऑस्ट्रेलियाई करदाताओं के अरबों डॉलर इस समझौते की वजह से पहुंचेंगे। इन डॉलरों का एक बड़ा हिस्सा पहले फ्रांस की कंपनियों की जेब में पहुंचता। तो साफ है कि फ्रांस में जो गुस्सा है, उसके पीछे कारण यही है कि ऑस्ट्रेलिया के आम लोगों की गाढ़ी कमाई अब वहां की कंपनियों की तिजोरी में नहीं, बल्कि अमेरिकी-ब्रिटिश कंपनियों की तिजोरी में जाएगी।

दरअसल, अगर जहां तक अविश्वास और धोखे की भावना का सवाल है, तो ऐसा भारत और जापान के शासक वर्ग को भी महसूस होना चाहिए था। जिस समय अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया इन दोनों देशों को साथ लेकर क्वैड्रैंगुलर सिक्योरिटी डायलॉग (चतुष्कोणीय सुरक्षा वार्ता) नाम के नए बने गुट में शामिल हुए हैं और जिसकी आमने-सामने पहली शिखर बैठक 24 सितंबर को ह्वाइट हाउस में होनी तय हुई है, उससे ठीक पहले अमेरिका ने इन देशों को अंधेरे में रखते हुए उसी मकसद (यानी चीन को घेरना) से एक दूसरा गुट बना लिया, तो स्वाभाविक रूप से ऐसी प्रतिक्रिया अपेक्षित होती। लेकिन जापान अमेरिका का एक क्लाइंट स्टेट (अधीनस्थ देश) है। इसलिए अमेरिका उसके साथ क्या व्यवहार करता है, उस पर वह कुछ नहीं बोल सकता। लेकिन भारतीय शासक वर्ग में इस मुद्दे ने बेचैनी पैदा क्यों नहीं की, यह एक बड़ा और रहस्यमय प्रश्न है।

बहरहाल, दुनिया भर की आम जनता के लिए इस सारे प्रकरण का संदेश साफ है। किसी उभरते देश को घेरने की कोशिश जब कोई पराभव की दिशा में जा रही ताकत करती है, तो वह खुद ऐसी गलतियां करती जाती है, जिससे उसके पतन की गति और तेज हो जाती है। उस दौर में गिरावट की शिकार महाशक्ति बेहद आक्रामक रुख में नजर आती है। राजनीति शास्त्र में इसे Thucydides Trap (थुसीडिडिस ट्रैप) कहा जाता है। ये शब्द प्राचीन ग्रीक इतिहासकार Thucydides (ईसा पूर्व लगभग 460 इस्वी) के नाम पर है, जिन्होंने ईसा पूर्व पांचवीं सदी में एथेंस और स्पार्टा के बीच हुए युद्ध का इतिहास लिखा था। आज विश्व चर्चाओं में इस बात का उल्लेख किया जा रहा है कि अमेरिका फिलहाल Thucydides Trap का शिकार है। तो अब जो देश हाल में अविश्वास पैदा करने वाले तमाम अनुभवों के बावजूद इस समय उस पर अपना सारा दांव लगा रहे हैं, उनके शासक वर्ग की समझ के बारे में क्या कहा जाए, यह एक विचारणीय प्रश्न है?  

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)     

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