Friday, April 19, 2024

असम व उत्तरप्रदेश : जनसंख्या नियंत्रण तो एक बहाना है

लेखिका -नेहा दाबाड़े

उत्तरप्रदेश सरकार एक विधेयक लाने की तैयारी कर रही है। उत्तरप्रदेश विधि आयोग ने “उत्तरप्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण व कल्याण) विधेयक, 2021” का मसविदा जारी कर नागरिक समाज से उस पर सुझाव मांगे हैं। यह विधेयक दो बच्चों वाले परिवारों को मानक के रूप में प्रस्तावित करता है और इसमें यह प्रावधान है कि इस मानक का उल्लंघन करने वाले स्थानीय संस्थाओं के चुनाव नहीं लड़ सकेंगे, शासकीय नौकरियों के लिए आवेदन नहीं कर सकेंगे और किसी भी प्रकार के शासकीय अनुदान के लिए पात्र नहीं होंगे। असम के बाद, उत्तरप्रदेश इस तरह का कानून प्रस्तावित करने वाला दूसरा राज्य है। इस कानून को बनाने का घोषित उद्धेश्य है: “सभी नागरिकों को आवश्यक मानवीय सुविधाएं जैसे सस्ता भोजन, सुरक्षित पेयजल, उचित आवास, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, बिजली व जीवनयापन के अवसर उपलब्ध करवाना”। परंतु क्या विधेयक इन लक्ष्यों को प्राप्त कर सकेगा ? क्या जनसंख्या विस्फोट सचमुच इतनी बड़ी समस्या है जितनी उसे बताया जा रहा है ? क्या घोषित उद्धेश्य ही इस प्रस्तावित कानून के असली उद्धेश्य हैं ? इस नीति के पीछे क्या राजनीति है ?

असम और उत्तरप्रदेश की सरकारें चाहे जो कह रही हों परंतु तथ्य यह है कि विशेषज्ञों और आंकड़ों – दोनों के अनुसार – देश में जनसंख्या विस्फोट जैसी कोई स्थिति नहीं है। जनसंख्या में वृद्धि को प्रमाणित करने के लिए दो आंकड़ों का प्रयोग किया जाता है– पहला, सकल प्रजनन दर (टीएफआर) और दूसरा जनसंख्या वृद्धि दर। जनसंख्या के स्थिरीकरण के लिए टीएफआर 2.1 होना चाहिए, जो कि प्रतिस्थापन प्रजनन दर है। भारत की सकल प्रजनन दर सन् 2016 में 2.2 थी और उसी वर्ष देश के 18 राज्यों और पांच केन्द्र शासित प्रदेशों का टीएफआर 2.1 या उससे कम था। इसका अर्थ यह है कि अगर सकल प्रजनन दर इसी स्तर पर बनी रही तो सन् 2021 के बाद देश की जनसंख्या घटने लगेगी।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस-5) के अनुसार, सन् 2019-20 में असम का टीएफआर 1.9 था जो राष्ट्रीय औसत, 2.2 से भी कम है। एनएफएचएस-5 के अनुसार असम की 15 से 49 वर्ष आयुवर्ग की वर्तमान में विवाहित महिलाओं में से 77 प्रतिशत और पुरूषों में से 63 प्रतिशत को और बच्चे नहीं चाहिए और या तो स्वयं उन्होंने या उनके पति/पत्नि ने नसबंदी करा ली है। इन आंकड़ों से यह साफ है कि देश की प्रजनन योग्य आयु की महिलाएं स्वयं ही छोटे परिवारों को पसंद करती हैं और इसके लिए उनके साथ कोई जबरदस्ती किए जाने की आवश्यकता नहीं है। इस बात के सुबूत उपलब्ध हैं कि परिवार के आकार के निर्धारण में धर्म की भूमिका अत्यंत गौण होती है। देश के विभिन्न भागों में प्रजनन दरों में अंतर के पीछे आर्थिक-सामाजिक दर्जा, निर्धनता, शिक्षा के स्तर व रोजगार के अवसरों की उपलब्धता जैसे कारक हैं। भारत में सभी धर्मों के नागरिकों की प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर से कम है। हिन्दुओं में यह दर 1.7, मुसलमानों में 2.0, ईसाईयों में 1.7 और सिक्खों में 1.4 है। केरल में मुस्लिम महिलाओं का टीएफआर 1.86 और तमिलनाडु में 1.74 है। जबकि बिहार में हिन्दू महिलाओं का टीएफआर 3.29 और उत्तरप्रदेश में 2.67 है। पिछले तीन दशकों में मुसलमानों ने हिन्दुओं की तुलना में कहीं अधिक तेजी से परिवार नियोजन उपाय अपनाए हैं। इसके नतीजे में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच प्रजनन दर में अंतर 1.1 से घटकर 0.48 रह गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए हमें महिला शिक्षा, परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुंच और समग्र विकास पर फोकस करना होगा।

कई लेखकों और टिप्पणीकारों ने इस बात पर जोर दिया है कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए जोर-जबरदस्ती का नतीजा अक्सर प्रतिकूल होता है। चीन को ‘एक संतान’ की नीति वापस लेनी पड़ी और उसकी जगह दो संतानों की नीति लागू करनी पड़ी। भारत में भी आपातकाल के दौरान जबरिया नसबंदी के किस तरह के कुप्रभाव हुए थे यह सर्वज्ञात है। अगर भारत की आबादी स्थिरीकरण की ओर बढ़ रही है और अधिकांश दम्पत्ति दो से अधिक संतानों को जन्म नहीं दे रहे हैं तो फिर इन नीतियों को क्यों लागू किया जा रहा है ? क्या जनसंख्या विस्फोट कोई नई खोज है जिसके बारे में हमारी सरकारों को अभी-अभी पता चला है ? हमारी सरकारें अचानक जनसंख्या के मुद्दे पर इतनी गंभीर और चिंतित क्यों हो गई हैं ? इन प्रश्नों के पीछे है मुसलमानों की आबादी नियंत्रित करने की हिन्दुत्व की जबरदस्त सनक। असम के मुख्यमंत्री हिमंता विस्वा सरमा का कहना है कि जनसंख्या नीति “अल्पसंख्यकों के विकास के लिए आवश्यक है”। इस प्रकार उन्होंने यह साफ कर दिया है कि उनका फोकस मुसलमानों पर है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने सीधे मुस्लिम या किसी अन्य समुदाय का नाम नहीं लिया परंतु अगर प्रस्तावित विधेयक को भाजपा नेताओं के हालिया बयानों के साथ पढ़ा जाए तो असली मंतव्य स्पष्ट हो जाएगा। उन्नाव से भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने 2015 में कहा था, “चार पत्नियां और चालीस बच्चे भारत में नहीं चलेंगे। अब समय आ गया है कि हिन्दू धर्म की रक्षा करने के लिए हर हिन्दू महिला कम से कम चार बच्चे पैदा करे।” भाजपा विधायक सुरेन्द्र सिंह ने कहा, “हिन्दुओं के कम से कम पांच बच्चे होने चाहिए, दो पिता के, दो मां के और एक एक्स्ट्रा। बच्चे भगवान का प्रसाद होते हैं। भारत तभी मजबूत बन सकता है जब हिन्दू मजबूत हों। अगर हिन्दू कमजोर होंगे तो भारत भी कमजोर होगा।”

सत्ताधारी भाजपा के वैचारिक पथप्रदर्शक आरएसएस का हमेशा से यह मानना रहा है कि मुसलमानों और ईसाईयों की बढ़ती आबादी, हिन्दुत्व के वर्चस्व के लिए खतरा है। संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि “हिन्दुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने से रोकने वाला कोई कानून नहीं है”। संघ ने 2015 में रांची में आयोजित अपने अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल में एक प्रस्ताव पारित कर सरकार से जनसंख्या नीति को परिवर्तित करने की मांग की थी ताकि ‘जनसांख्यिकीय असंतुलन’ पर नियंत्रण पाया जा सके। यह महत्वपूर्ण है कि संघ और भाजपा के नेता सार्वजनिक मंचों से हिन्दुओं का ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने का आव्हान करते रहे हैं, परंतु न तो हिमंता विस्वा सरमा और ना ही योगी आदित्यनाथ ने इस पर कभी कोई आपत्ति उठाई। क्या उनकी चुप्पी इस बात की द्योतक नहीं है कि वे इन कथनों से सहमत हैं ?

मुसलमानों की आबादी हिन्दुओं से अधिक हो जाएगी यह भय पैदा कर जो उन्माद भड़काया जा रहा है उसमें कुछ भी नया नहीं है और तथ्यों और आंकड़ों से बहुत आसानी से इसका खंडन किया जा सकता है। परंतु इस बार मुसलमानों की आबादी के अत्यधिक तेजी से बढ़ने के मसले में राज्य हस्तक्षेप कर रहा है। नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं और अधिकारों पर इसी तरह के हमले नाजी जर्मनी और रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका में किए गए थे और हाल में चीन में उईगर मुसलमानों के मामले में किए जा रहे हैं। नाजी जर्मनी में यहूदियों पर जो अनेक अन्यायपूर्ण और अमानवीय कानून लादे गए थे उनमें यहूदियों और गैर-यहूदियों के बीच विवाह पर प्रतिबंध और ‘गैर-आर्य’ आबादी का जबरदस्ती बंध्यकरण शामिल था। चीन में जन्म दर को जबरदस्ती नियंत्रित करने के लिए जो नीतियां अपनाई जा रही हैं उनका उद्धेश्य अगले बीस वर्षों में दक्षिणी शिंजियांग प्रांत के अल्पसंख्यक उईगर मुसलमानों की आबादी में दो-तिहाई की कमी लाना है। दक्षिण अफ्रीका में सन् 1974 में, जब रंगभेद की नीति अपने चरम पर थी, सरकार ने एक नई परिवार नियोजन नीति अपनाई थी। यद्यपि इस नीति में किसी समुदाय का नाम नहीं लिया गया था परंतु यह स्पष्ट था कि इसके पीछे सरकार का यह डर था कि अश्वेतों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है।

असम में नागरिकों की राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बनाने की कवायद कथित तौर पर गैरकानूनी बांग्लादेशी प्रवासियों की पहचान करने के लिए की गई थी, परंतु इस उपक्रम के निशाने पर थे बंगाली मुसलमान। असम में जिस तरह के आख्यान प्रचारित किए जा रहे हैं और जिस तरह के कानून बनाए जा रहे हैं उनका लक्ष्य है असम की धरती से मुसलमानों की संस्कृति और इतिहास को मिटा देना। उनकी संस्कृति का उपहास बनाने के लिए उसे ‘मियां कल्चर’ कहा जाता है। सन् 2020 में असम सरकार ने एक कानून बनाकर राज्य शासन द्वारा संचालित मदरसों को सामान्य शैक्षणिक संस्थाओं में परिवर्तित कर दिया था। असम की सरकार, राज्य में मुसलमानों की पहचान और उनकी नागरिकता को समाप्त कर देना चाहती है ताकि वे राज्य-विहीन बन जाएं और उन्हें हर प्रकार की समस्याओें का सामना करना पड़े।

प्रस्तावित जनसंख्या कानूनों के जिस पहलू को नजरअंदाज किया जा रहा है वह लिंग से जुड़ा हुआ है। ये विधेयक जिस विचारधारा से प्रेरित हैं, वह विचारधारा महिलाओं को उनके जीवन और उनके शरीर पर अधिकार से वंचित करने में यकीन रखती है। पापुलेशन फांउडेशन ऑफ इंडिया के अनुसार, एनएफएचएस-4 से यह पता चलता है कि उत्तरप्रदेश में जहां संपूर्ण जनसंख्या का लिंगानुपात 995 है वहीं पिछले पांच वर्षों में हर एक हजार लड़कों पर मात्र 903 लड़कियों का जन्म हुआ है। इससे स्पष्ट है कि राज्य में अभिभावक अपने होने वाले बच्चे के लिंग का पूर्व निर्धारण करवाकर गर्भपात करवा रहे हैं। यह स्पष्ट है कि अगर दो बच्चों के नियम को कड़ाई से लागू किया जाएगा तो इससे जन्म पूर्व लिंग निर्धारण और कन्या भ्रूण हत्या बढ़ेगी। एनएफएचएस-4 के अनुसार, उत्तरप्रदेश में परिवार नियोजन उपायों की अपूरित मांग 18.1 प्रतिशत है जो कि राष्ट्रीय औसत (13 प्रतिशत) से कहीं ज्यादा है। कड़े जनसंख्या नियंत्रण उपायों से कन्या भ्रूण हत्या, कन्या शिशु हत्या, लिंग निर्धारण आधारित गर्भपात, पत्नियों के परित्याग और उन्हें तलाक देने की घटनाएं बढ़ेंगीं।

वैसे भी हिन्दुत्व के झंडाबरदार मानते हैं कि हिन्दू महिलाओं में अपने हित-अहित का विचार करने की क्षमता नहीं होती और इसलिए वे धूर्त मुस्लिम युवकों के जाल में आसानी से फंस जाती हैं। भगवा विचारधारा में दीक्षित लोगों की दृष्टि में महिलाएं बच्चे पैदा करने की मशीनें हैं जिन्हें हिन्दू धर्म की रक्षा और कल्याण के लिए ज्यादा से ज्यादा संख्या में बच्चे पैदा करने चाहिए। दोनों ही मामलों में महिलाओं को स्वयं के बारे में निर्णय लेने के काबिल नहीं समझने की प्रवृत्ति स्पष्ट नजर आती है। उन्हें पुरूषों के बराबर अधिकार देने के खतरों पर प्रकाश डालते हुए योगी आदित्यनाथ ने कहा था, “महिलाओं के महत्व और उनके सम्मान पर विचार करते हुए… हमारे धर्मग्रंथों में उन्हें सुरक्षा देने की बात कही गई है… जिस तरह स्वतंत्र और अनियंत्रित ऊर्जा व्यर्थ जा सकती है या नुकसान कर सकती है उसी तरह महिलाओं को भी स्वतंत्रता की नहीं बल्कि सुरक्षा की जरूरत है। बचपन में महिलाओं की सुरक्षा उनके पिता करते हैं, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र।” उत्तरप्रदेश में बलात्कार और महिलाओं के प्रति अन्य अपराधों की भारी संख्या को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि वहां के पिता, पति और पुत्र अपनी जिम्मेदारियों का उचित ढ़ंग से निर्वहन कर पा रहे हैं। उत्तरप्रदेश को आज जबरिया जनसंख्या नियंत्रण की बजाए बलात्कारों पर नियंत्रण करने की जरूरत है। भारत इंटरनेशल कान्फ्रेंस ऑन पापुलेशन एंड डेव्लपमेंट (आईसीपीडी, 1994) में हुए अंतर्राष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले शुरूआती राष्ट्रों में से एक था। इस समझौते में छोटे परिवार का लक्ष्य हासिल करने के लिए लैंगिंक समानता, महिलाओं के सशक्तिकरण व उनकी शिक्षा पर जोर देने की बात कही गई थी। इन प्रतिबद्धताओं को भूलकर आज हमारी कुछ राज्य सरकारें अपने राजनैतिक एजेंडे को लागू करने के लिए जनसंख्या नियंत्रण के मामले में जबरदस्ती करने पर उतारू हैं।

जनसंख्या नियंत्रण कानून को लागू करने के जो कारण बताए जा रहे हैं वे लोगों की आंख में धूल झोंकने का प्रयास हैं। इस कानून के असली उद्धेश्य राजनैतिक और विचारधारात्मक हैं। इस तरह के उपायों के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में विपुल साहित्य और वैज्ञानिक अध्ययनों की उपलब्धता के बाद भी ये कानून लाए जा रहे हैं ताकि मुसलमानों को नियंत्रित करने और उनके दमन को संस्थागत स्वरूप दिया जा सके और कानूनी जामा पहनाया जा सके। इसके पहले भी हिन्दुओं को मुसलमानों की बढ़ती आबादी के नाम पर डराया जाता रहा है परंतु यह पहली बार है कि समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों और भ्रमों को नए कानून बनाने का आधार बनाया जा रहा है। हमारी सरकारों की तानाशाही प्रवृंत्त बढ़ती जा रही है और हर तानाशाह की तरह सबसे पहले सबसे कमजोर के अधिकारों पर आक्रमण किया जा रहा है। हमें पूरी उम्मीद है कि हमारे देश के प्रबुद्ध नागरिक धुंध की दीवार के पार देख सकेंगे और यह समझ सकेंगे कि जो कुछ भी किया जा रहा है उससे राष्ट्र का कोई हित होने वाला नहीं है बल्कि यह सब हमारी शासकों के तानाशाह बनने और हमारे संवैधानिक प्रजातंत्र को कमजोर करने की दिशा में कदम है।

(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनूदित)

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