Friday, March 29, 2024

स्पेशल रिपोर्ट: बेहिसाब पानी होने के बावजूद आखिर बिहार के लोग मछली के लिए आंध्रा और बंगाल पर क्यों हैं निर्भर?

सुपौल, बिहार। बिहार मत्स्य निदेशालय के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में सालाना मछली उत्पादन करीब साढ़े पांच लाख मीट्रिक टन है, जबकि खपत 8 लाख मीट्रिक टन है। बाकी मछली के लिए बिहार को आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल पर निर्भर रहना पड़ता है। जबकि बिहार में हजारों हेक्टेयर ऐसी भूमि है, जहां 5 से 6 माह पानी जमा रहता है। इसके बावजूद भी बिहार के लोग मछली के लिए आंध्र प्रदेश समेत दूसरे राज्यों पर निर्भर हैं। बिहार मत्स्य निदेशालय की वेबसाइट के मुताबिक (साल 2016-17) प्रदेश सभी स्रोतों से 5.9 लाख मीट्रिक टन मछली का उत्पादन हुआ था, जबकि 1.23 लाख मीट्रिक टन का आयात और 0.40 लाख मीट्रिक टन का निर्यात हुआ था।

“एक तो भू-माफियाओं का आतंक है। आधा से अधिक पोखर विवादित हैं। सब्सिडी और अनुदान का प्रावधान सही जगह तक नहीं पहुंच पा रहा है। साथ ही मछली पालकों के लिए सरकार की असफल योजनाओं की वजह से बिहार में मछली व्यवसाय का ये हाल है कि इतने पानी होने के बावजूद बिहारी मछली के लिए आंध्र प्रदेश और बंगाल पर निर्भर हैं।” बिहार के थोक मछली विक्रेता संघ के अध्यक्ष सुनील कुमार सिंह बताते हैं।

बिहार के सुपौल जिले के बीना पंचायत के सुंदरपुर गांव में रेलवे स्टेशन के पास ही लगभग 120 कट्ठा में फैले चाप(मछली पालन के लिए किया गया गड्ढा) में अबतक लगभग 40 कट्ठा मिट्टी से भर दिया गया है।

दिनों-दिन कम होती जा रही है मछुआरों की संख्या

कई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बिहार राज्य में बिंद, नाविक और मछुआरों की कुछ संख्या लगभग 01 करोड़ 75 लाख है, जबकि बिहार मत्स्य निदेशालय के आंकड़े के मुताबिक 2003 में सिर्फ 60 लाख मछुआरे ही मत्स्यपालन से जुड़े हैं। इसकी संख्या दिनों-दिन घटती ही गई है। जो पलायन कर दूसरे राज्यों में मजदूरी या जीविका के दूसरे काम कर रहे हैं।

“एक तो बिहार में तालाब और नदी अतिक्रमण का शिकार बहुत तेजी से हो रहा है। वहीं बिहार की लगभग 40% पोखर विवादित हैं। जहां मछली व्यवसाय या तो नहीं हो रहा, या हो भी रहा है तो बहुत ही कम संख्या में। इस सब के साथ नदी में मछली मारने वाले मछुआरों के साथ रंगदारी मांगने की घटनाएं अक्सर आती रहती हैं। इन सब वजहों से मछुआरे मछली पालन छोड़कर अन्य रोजगार की तलाश में हैं।” मछुआरा आयोग के सदस्य सुरेंद्र निषाद बताते हैं।

सुपौल के बीना बभनगामा गांव में लगभग 8 बीघा पोखर में मखाना और मछली की खेती करने वाले अरविंद शर्मा बताते हैं कि, “8 बीघा में से 3 बीघा जमीन मेरी है। बाक़ी बटिया पर है। पहले सिर्फ मछली का व्यवसाय करता था। एक तो मछली की सुरक्षा के लिए 24 घंटे एक आदमी को रखना पड़ता था। इसके बावजूद भी कुछ लोग मछली मार लेते थे.. रात में या पोखर में जहर दे देते थे। जब लागत भी वसूल नहीं होने लगा तब मछली के साथ मखाना की खेती मैं शुरू कर दिया।”

मछुआरों का दर्द

बिहार के सहरसा जिले के महिषी पंचायत के रहने वाले झक्कस, शीतल और रामू मुख्य रूप से मछली व्यवसाय पर ही निर्भर हैं। शीतल बताते हैं कि, “बांध के भीतर रहने के कारण गांव में अधिकांश लोगों का खेत गड्ढा बना हुआ है। जिस वजह से कभी-कभी बरसात के मौसम में मछलियां नदी से गड्ढे में आ जाती हैं। जब हम लोगों को मछली मारने के लिए बुलाया जाता है, तब गड्ढे का 40% हम लोग लेते हैं बाकी जमीन वाला। अगर गड्ढे में मछली नहीं निकला तो हमारी मेहनत बेकार चली जाती है। विवादित पोखर में मछली मारने की वजह से कई बार हम लोगों को मार भी खाना पड़ा है। गांव में लगभग 60% पोखर विवादित है।”

सुपौल के एक तालाब में मछली मारते लोग

मुआवजा और अनुदान सही जगह तक नहीं पहुंचता

साल 2021-22 के लिए बिहार सरकार ने मछली पालन और पशुपालन के लिए 1561.72 करोड़ का बजट प्रस्तावित किया था जो पिछले वर्ष (2020-21) की तुलना में 32.47 फीसदी अधिक था। राज्य में मछली पालकों की आय में बढ़ोत्तरी करने के लिए नीतीश सरकार द्वारा की कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। केंद्र प्रायोजित मत्स्य संपदा योजना के अलावा समेकित चौर विकास योजना और आद्र भूमि विकास समेत कई योजनाओं के जरिए मछली उत्पादकों को भारी सब्सिडी देने का प्रावधान है। हालांकि जमीनी स्तर पर सब्सिडी और अनुदान मछली किसानों और मछुआरों तक नहीं पहुंच पा रहा है।

“डेढ़ साल पहले लॉकडाउन के वक्त हमने सरकारी योजनाओं को देखते हुए दो यूनिट यानी 10 टैंक मछली पालन की शुरुआत किया था। जिसमें उस वक्त लगभग डेढ़ लाख रुपया खर्च हुआ था। कई बार सरकारी ऑफिस जा चुका हूं लेकिन अभी तक सरकार की तरफ से कोई मुआवजा और अनुदान नहीं मिला। अगर इस एक साल में फायदा की बात की जाए तो लागत छोड़कर सिर्फ 40 से 50 हजार रुपया हाथ में आया होगा। ऐसे में संभव नहीं है कि मैं आगे मछली व्यवसाय को ले जाऊं।” पिछले लॉकडाउन यानी 4 फरवरी, 2021 को माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय से मास कम्युनिकेशन करके बिहार के शिवहर जिला के बभनटोली में बायो प्लॉग तकनीक से मछली पालन की शुरुआत करने वाले वेदांत राहुल बताते हैं।

सुपौल के बीना बभनगामा गांव में लगभग 8 बीघा पोखर में मखाना और मछली की खेती करने वाले अरविंद शर्मा बताते हैं कि, ” अगर सरकारी बाबू और नेताओं से पहचान नहीं है तो शायद ही आपको सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सके। कई लोग पोखर सरकारी योजनाओं को देखकर बनाते तो हैं लेकिन बाद में सिर पीट लेते हैं। कई गांव में देखा जाता है कि 1-1 जनप्रतिनिधि 10-12 पोखर खुदवा कर सरकारी योजनाओं का लाभ ले रहे हैं।”

“ऊपर बिजली, नीचे मछली” योजना नहीं उतरी धरातल पर

राष्ट्रीय मात्स्यिकी बोर्ड के द्वारा 2013 में तालाब के ऊपर सोलर प्लेट से बिजली उत्पादन और नीचे मत्स्य पालन की परियोजना बनायी थी। इस परियोजना का उद्देश्य मत्स्य पालकों की आय बढ़ाने और पर्यावरण संरक्षण का उद्देश्य था। 2013 में ही गाइडलाइन भी जारी की गई थी। 9 साल के बाद भी इस योजना में एक भी प्लांट नहीं लगाया जा सका है।

बिहार राज्य मत्स्यजीवी सहकारी संघ के अध्यक्ष ऋषिकेश कश्यप कहते हैं कि, “इसके लिए बिहार राज्य मत्स्यजीवी सहकारी संघ और राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्ड के बीच एमओयू भी हो चुका है। इसके बाद भी योजना में एक भी प्लांट नहीं लगाया जा सका है। अभी 2021 के दिसंबर महीने में सुपौल जिले के पिपरा प्रखंड के दीनापट्टी पंचायत के सखुआ गांव स्थित राजा पोखर में फ्लोटिंग सोलर पावर प्लांट कार्य की शुरुआत की गई है। उसका काम भी विगत 6 महीने से चल रहा है। देखिए 9 साल से अटकी यह योजना कब तक तैयार होती है?”

मनरेगा के तहत बन रहे पोखर चंद लोगों तक सीमित

2009 में सत्ता में लौटने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने जीत की उपलब्‍धि का सेहरा मनरेगा के सिर बांधा। इसी मनरेगा के तहत तालाब खुदाई योजना सरकार के द्वारा चलाई जाती है। इसका उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ जल संरक्षण भी है। इसके लिए प्रत्येक ग्राम पंचायतों में कम से कम 5 छोटे-बड़े आकार के तालाब निर्माण का लक्ष्य रखा गया है। मनरेगा की आधिकारिक जानकारी के मुताबिक मनरेगा के तहत सरकारी व निजी भूमि पर भी तालाब का निर्माण कराया जाना है।

“मनरेगा के तहत जिस भी तालाब और पोखर का निर्माण किया गया है। उसमें 80% से ज्यादा तालाबों के मालिक गांव के ही जनप्रतिनिधि हैं। जनप्रतिनिधि के द्वारा पूर्व से निर्मित तालाब को दिखाकर तालाब निर्माण मद की राशि डकारी जा रही है। सियासत के लिहाज से मनरेगा ने देश की तासीर बदल दी लेकिन इसका असल सच एक ऐसी लूट का है जो महालूट में बदल चुकी है।” आरटीआई एक्टिविस्ट और अधिवक्ता विद्याकर झा बताते हैं।

(बिहार के सुपौल से राहुल की रिपोर्ट।)

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