कॉलेजियम पर बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम प्रणाली लागू होने के बाद जजों के नाम की सिफारिश होने पर केंद्र सरकार सिफारिश को स्वीकार या फिर वापस कर सकती थी। दोबारा भेजे जाने की स्थिति में सरकार नियुक्ति करने को बाध्य होती है। मगर, नियुक्तियों को रोकना केंद्र सरकार का नियमित अभ्यास बन गया है। कॉलेजियम की दोबारा भेजी गयी सिफारिशों को भी रोक दिया जाने लगा है। यही टकराव का प्रत्यक्ष कारण है। लेकिन यहां सवाल है कि जब से सुप्रीमकोर्ट कालेजियम प्रणाली लागू हुई है तब से क्या जजों की नियुक्ति केवल मेरिट के आधार पर हो रही है? क्या कमजोर चीफ जस्टिस या सरकार के मनोनुकूल चीफ जस्टिस होने पर कालेजियम की सिफारिशों में सरकार का अघोषित दखल नहीं रहता? जैसे आज घोषित आपातस्थिति नहीं है पर क्या भारत के नागरिक कह सकते हैं कि वे अघोषित आपातकाल में नहीं हैं? मीसा का स्थान पीएमएलए ने नहीं ले लिया है?

अगर सरकार का दखल नहीं होता तो क्या मनीलॉंडरिंग का आरोप झेलने के दौरान जस्टिस हेमंत गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के जज बन पाते। सरकार का दखल नहीं होता तो क्या जब कालेजियम में जस्टिस मदन बी लोकुर शामिल थे तब कॉलेजियम की 10 जनवरी 2019 की बैठक में संकल्प, जब 31 दिसंबर18 को जस्टिस लोकुर के सेवानिवृत्त होने के बाद नये कॉलेजियम द्वारा बदला जा सकता था?  

कॉलेजियम ने 12 दिसंबर, 2018 को बैठक में राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रदीप नंदराजोग और दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र मेनन को उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाये जाने को लेकर नाम फाइनल किया गया था पर इसे तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने अपलोड नहीं करने दिया था। लेकिन कॉलेजियम ने 10 जनवरी के प्रस्ताव में इन फैसलों को पलट दिया। इनकी जगह दिनेश महेश्वरी और जस्टिस संजीव खन्ना के नाम की सिफारिश कर दी गयी। विधिक क्षेत्रों में सभी को मालूम हो कि इनके वैचारिक रुझान किस तरफ हैं।

जस्टिस (सेवानिवृत्त) मदन लोकुर (जनवरी 2019 में) द्वारा दिसंबर 2018 के कॉलेजियम के प्रस्ताव को अपलोड नहीं किए जाने पर एक साक्षात्कार में अपनी निराशा व्यक्त की।

आज जस्टिस लोकुर पर चौतरफा हमले हो रहे हैं ।यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट में कालेजियम के इन्हीं बैठकों को लेकर चल रहे मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस एमआर शाह ने शुक्रवार को कहा कि कॉलेजियम द्वारा लिए गए पहले के फैसलों के बारे में टिप्पणी करना सेवानिवृत्त जजों के लिए एक “फैशन” बन गया है, जिसमें वे भी शामिल थे। जस्टिस एमआर शाह ने कहा कि हम उस पर टिप्पणी नहीं करना चाहते जो पूर्व सदस्य (सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के) अब कहते हैं।

जज ने यह टिप्‍पणी एडवोकेट प्रशांत भूषण के यह कहने के बाद की कि सेवानिवृत्त जस्टिस मदन लोकुर, जो 2018 में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम का हिस्सा थे, उन्होंने कहा था कि निकाय के फैसलों में से एक सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किया जाना चाहिए था। जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस सीटी रविकुमार की पीठ आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज द्वारा दायर एक विशेष अनुमति याचिका पर विचार कर रही थी, जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत 12 दिसंबर, 2018 को हुई बैठक में कॉलेजियम द्वारा लिए गए निर्णयों के संबंध में सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत सूचना के लिए उनकी याचिका को खारिज कर दिया गया था।

मामले का तथ्यात्मक मैट्रिक्स देते हुए एडवोकेट प्रशांत भूषण ने खंडपीठ को अवगत कराया कि याचिकाकर्ता तीन विशिष्ट दस्तावेजों की मांग कर रही थी। “सवाल यह है कि क्या कॉलेजियम का निर्णय आरटीआई द्वारा अनुमन्य है। बाद की बैठक (12 दिसंबर को लिया गया) में निर्णय का उल्लेख है।

पीठ ने कहा कि यह लिखित नहीं था। यह एक मौखिक निर्णय था। इस पर भूषण ने पूछा वे कहां कहते हैं कि यह एक लिखित निर्णय नहीं था? पीठ ने कहा कि वह मौजूदा व्यवस्था को पटरी से नहीं उतारना चाहती।

दरअसल ये दस्तावेज सामने आ जाएं तो पूरी तरह स्पष्ट हो जायेगा कि कॉलेजियम प्रणाली में सरकार का कितना अप्रत्यक्ष दखल है। 

कॉलेजियम द्वारा जस्टिस दिनेश माहेश्वरी को उच्चतम न्यायालय का जज बनाने की सिफारिश भी विवाद में थी। मार्च 2018 में उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन वरिष्ठतम जज चेलमेश्वर ने कर्नाटक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस दिनेश माहेश्वरी के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए थे और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को खत लिखा था। लेकिन तत्कालीन कॉलेजियम ने जस्टिस माहेश्वरी को उच्चतम न्यायालय जज बनाने की सिफारिश की और वे सुप्रीमकोर्ट जज बन भी गये।क्या यह राजनितिक हस्तक्षेप के बिना सम्भव था?

कॉलेजियम में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई,जस्टिस ए के सीकरी, जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस एनवी रमना और जस्टिस अरुण मिश्र शामिल थे।

दरअसल जस्टिस माहेश्वरी ने सेक्शुअल हैरसमेंट से जुड़ी एक लंबित शिकायत पर एक डिस्ट्रिक्ट जज से स्पष्टीकरण मांगा था। वह भी तब जब उच्चतम न्यायालय ने उस डिस्ट्रिक्ट जज को क्लीन चीट दे दी थी। उसके बाद जस्टिस चेलमेश्वर ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को लिखा था कि हमारी पीठ के पीछे कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जरूरत से ज्यादा सक्रियता दिखाते लग रहे हैं। इसके बावजूद कॉलेजियम ने इस पर ध्यान देना क्यों उचित नहीं समझा, यह शोध का विषय है।

जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी को उच्चतम न्यायालय का जज बनाने को लेकर कॉलेजियम की सिफारिश पर आपत्ति जताते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज और वरिष्ठ वकील कैलाश गंभीर ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी थी। जस्टिस गंभीर ने इस चिट्ठी के जरिए वरिष्ठता की अनदेखी का मुद्दा उठाया था।

जस्टिस गंभीर ने यह भी कहा कि जस्टिस संजीव खन्ना के नाम की सिफारिश में ना सिर्फ दिल्ली हाईकोर्ट के तीन वरिष्ठ जजों की अनदेखी हुई बल्कि आल इंडिया सीनियरिटी मे 30 से ज़्यादा वरिष्ठ जजों की अनदेखी हुई है। जस्टिस गंभीर ने इस पत्र में यह भी कहा कि जस्टिस खन्ना योग्य हैं, लेकिन उच्चतम न्यायालय के जज के तौर पर उनके नाम की सिफारिश में जिन 32 वरिष्ठ जजों की अनदेखी हुई उसमें हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस भी शामिल हैं।

उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढ़ा दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एपी शाह ने भी कॉलेजियम की सिफारिशों को बदले जाने पर गम्भीर आपत्ति व्यक्त की थी और पूर्व न्यायाधीश जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा था कि जो हो रहा है उसी के कारण मैंने 2016 में कॉलेजियम की बैठकों में भाग लेने से इनकार कर दिया था।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने एक संस्थान के रूप में कॉलेजियम के तौर तरीकों पर हैरानी जताई थी। कॉलेजियम एक संस्था है, इसे एकरूपता में काम करना चाहिए। कॉलेजियम द्वारा लिए गए निर्णयों को उनके तार्किक परिणति तक ले जाना चाहिए। केवल एक न्यायाधीश सेवानिवृत्त हुआ था, यदि परामर्श की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई थी, तो यह होनी चाहिए थी। निर्णय को पूरी तरह से क्यों पलटा गया और किसी को बताया नहीं गया?

दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एपी शाह ने कहा कॉलेजियम में जो कुछ हुआ उससे पता चलता है कि कॉलेजियम प्रणाली अपारदर्शी, गुप्त और अस्वीकार्य बनी हुई है। दिसंबर और जनवरी के बीच क्या हुआ? कॉलेजियम में केवल एक जज बदल गया। बिना स्पष्टीकरण दिए एक कॉलेजियम द्वारा लिए गए निर्णय मनमाने ढंग से इस तरह नहीं पलटे जा सकते हैं। मैंने जस्टिस नंदराजोग के साथ काम किया है और वह बहुत ही उम्दा जज हैं, जैसा कि अन्य लोग हैं। जस्टिस मेनन पर फैसला क्यों पलट दिया गया, यह भी एक रहस्य है। इससे इस प्रणाली पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

इस बीच सुप्रीम कोर्ट के केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी (सीपीआईओ) ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस हेमंत गुप्ता पर आय से अधिक संपत्ति के आरोप के मामले में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर को 2017 में प्राप्त एक पत्र के संबंध में उठाए गए कदमों पर सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत जानकारी देने से इनकार कर दिया है।

कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) ने तत्कालीन सीजेआई खेहर को पत्र लिखकर आरोप लगाया था कि जस्टिस गुप्ता के खिलाफ आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति अर्जित करने के गंभीर आरोप हैं। यह भी आरोप लगाया गया कि जस्टिस गुप्ता मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों के लिए अपनी पत्नी के खिलाफ चल रही जांच को प्रभावित कर रहे थे, बिक्री के लिए जाली समझौते बनाकर अवैध रूप से संपत्तियां अर्जित कर रहे थे, स्टांप शुल्क से बचने, विशिष्ट प्रदर्शन के लिए साठगांठ का मुकदमा दायर करने और लेयरिंग के लिए शेल कंपनियों के माध्यम से लेन-देन कर रहे थे। ऐसे में यह सुप्रीमकोर्ट के जज कैसे बने?

दरअसल जज की नियुक्ति के मामले में केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच चल रहा विवाद गंभीर होता जा रहा है। दोनों के बीच सार्वजनिक बयानबाजी जारी है और उपराष्ट्रपति धनकड़ भी इसमें कूद पड़े हैं। अनुच्छेद 124 (2) और 217 (1) की व्याख्या को लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच गहरे मतभेद हैं।

चालीस साल की प्रथा यह थी कि राज्य सरकार संबंधित उच्च न्यायालय से परामर्श करके नामों को केंद्र सरकार के पास भेजा करती थी। फिर केंद्र सरकार अनुच्छेद 217 में वर्णित प्रक्रिया का पालन करते हुए उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति किया करती थी। इसी तरह केंद्र सरकार नामों का प्रस्ताव करती और अनुच्छेद 124 में वर्णित प्रक्रिया का पालन करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती।

सुप्रीमकोर्ट द्वारा 1993 और 1998 में न्यायिक व्याख्या के बाद स्थिति बदली। कॉलेजियम प्रणाली बनी,जिसने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के लिए न्यायाधीशों के चयन की शक्ति अपने हाथों में ले ली।

अब केंद्र सरकार सिफारिश को स्वीकार या फिर वापस कर सकती थी। दोबारा भेजे जाने की स्थिति में सरकार नियुक्ति करने को बाध्य होती है। मगर, नियुक्तियों को रोकना केंद्र सरकार का नियमित अभ्यास बन गया है। कॉलेजियम की दोबारा भेजी गयी सिफारिशों को भी रोक दिया जाने लगा है।

कार्यपालिका का तर्क यह है कि दुनिया के किसी भी अन्य देश में खुद न्यायाधीश, नए न्यायाधीशों का चयन नहीं करते हैं। वहीं, न्यायपालिका का मजबूत तर्क यह है कि सेवारत न्यायाधीश वकालत करने वाले वकीलों और सेवारत जिला न्यायाधीशों के बारे में सबसे अच्छी तरह जानते हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

जेपी सिंह
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