Tuesday, March 19, 2024

राजस्थान प्रकरण: कांग्रेस, व्यक्ति और संगठन के प्रश्न

यह कांग्रेस का जगत है । सचमुच, भारत की राजनीति के परम ऐश्वर्य का जगत । राजनेताओें के अच्छे-बुरे, सारे लक्षणों की लीला-भूमि का राजनीतिक जगत । आलाकमान की आत्म रति और क्षत्रपों की स्वतंत्र मति-गति । सब साथ-साथ । राजनीति के दुखांत और प्रहसन, अर्थात् उदात्तता और क्षुद्रता, सबके साथ-साथ प्रदर्शन का एक खुला रंगमंच । राजा, वज़ीर, घोड़ों, हाथियों, ऊँटों और प्यादों की अपनी-अपनी चालों और गतियों के शह और मात के अनोखे खेल वाला राजनीति की अनंत संभावनाओं का शतरंज ।

दक्षिण के एक छोर पर भारत के जन-मन को आलोड़ित करती ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और उत्तर के पश्चिमी किनारे पर राजनीति में महलों की काली साज़िशों वाला ‘राजस्थान’ । राजनीति के ‘जन’ और ‘तंत्र’ के दोनों ही रूप साथ-साथ । जिस गहलोत को कल तक पूरी कांग्रेस की बागडोर थमाया जाना तय था, वही अचानक एक अनुशासनहीन बाग़ी कहलाने लगे । और जो पायलट चंद रोज पहले ही घोषित बाग़ी की शत्रु की भूमिका में दिखाई दिया था, उसे ही कांग्रेस में अपनी धुरी की धुन में खोया हुआ आलाकमान अपनी ऑंख का तारा बन कर बिना नींव के महल का राजा बनाने पर आमादा है । परिणाम सामने हैं । एक ओर जहां भारत जोड़ो यात्रा जारी है और दूसरी ओर कांग्रेस के अध्यक्ष की तलाश भी जारी है । लेकिन इस समग्र जनतांत्रिक और राजनीतिक चर्वणा के बीच जो तय हो चुका है वह यह कि आलाकमान और क्षत्रप, कांग्रेस में दोनों अपनी-अपनी जगह बदस्तूर कायम हैं और रहेंगे । पार्टी का आलाकमान होने का अर्थ है उसका परम तत्त्व, उसका परमेश्वर और उसके क्षत्रप देश-काल की सीमाओं में उस परमेश्वर की स्वतंत्रता के नाना रूप । कांग्रेस हमेशा से कमोबेश इसी प्रकार केंद्रीयता और संघवाद, स्थानीयतावाद के बीच के संतुलन को साधती रही है । गांधी जी भी कभी अपने को कांग्रेस का अधिनायक कह चुके हैं ।

अभी के कांग्रेस के नए अध्यक्ष के चुनाव और राजस्थान संकट के संदर्भ में निश्चय के साथ सिर्फ यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस को जल्द ही अपना एक नया अध्यक्ष मिलेगा, और अगर यात्रा इसी प्रकार पांच महीनों के लंबे और कठिन रास्ते को तय करती हुई अपने गंतव्य तक पहुंचती है तो उसी के बीच से कांग्रेस ही नहीं, देश के लिए भी निश्चित तौर आगे के नए रास्ते खुलते दिखाई देंगे ।

और, जहां तक राजस्थान का सवाल है, देखने की बात होगी कि कांग्रेस के पुनरोदय के वर्तमान साफ संकेतों, उसके अंदर यात्रा के जरिए नए कार्यकर्ता-नेताओं के निर्माण की संघर्षशील धारा के बीच भी पार्टी के अंदर का संघवाद (क्षत्रपवाद) और अभी के विधायकों आदि का व्यक्तिवाद, उनके तथाकथित जातिवादी और स्थानीय समूहों के समीकरण आगे किस रूप और किस हद तक अपने को बनाए रख पायेंगे । यह सबक सिर्फ कांग्रेस नहीं, सभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक राजनीतिक पार्टियों के लिए काफी उपयोगी साबित होगा ।

कांग्रेस में आज ‘यात्रा’ और ‘क्षत्रपवाद‘ को लेकर जो चर्वणा चल रही है, वह हमें गांधीजी की उस बात की याद दिलाता जो 12 मार्च 1930 के दिन साबरमती आश्रम से डांडी मार्च के लिए कूच करने के पूर्व कांग्रेस वर्किंग कमेटी के अपने साथियों से उन्होंने कही थी कि — “जब तक मैं शुरू न करूं, प्रतीक्षा कीजिए । मेरे प्रस्थान के साथ ही इसके पीछे का विचार सामने आ जायेगा ।” (D.G.Tendulkar, Mahatma, Life of Mohandas Karamchand Gandhi, Vol.3, page, 20)

तब से अब की यात्रा में एक बुनियादी फर्क यह है कि वस्तुतः कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व अभी यात्रा में, अर्थात् संघर्ष की जमीन पर है और उसके क्षत्रप जन-प्रतिनिधि अपनी सत्ताओं की चिंता में। लेकिन समानता यह है कि यात्रा के अंत तक आते-आते हर हाल में इन दोनों के बीच की दीवार यात्रा के राजनीतिक परिणामों से ही ढहेगी, जैसा सन् ’20 में खिलाफत के सवाल से शुरू हुए गांधी जी के असहयोग आंदोलन से लेकर डांडी मार्च के परिणाम के बीच से हुआ था । निस्संदेह, कांग्रेस भारत की राजनीति के जनतांत्रिक सवालों पर संघर्ष की एक सबसे पुरानी प्रमुख पार्टी की अपनी प्रतिष्ठा को फिर से हासिल करेगी ।

यात्रा अभी केरल से निकल कर कर्नाटक में प्रवेश करेगी, और फिर बीस दिनों बाद तेलंगाना, आंध्र होते हुए महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश में जायेगी । और कहना न होगा, यह यात्रा ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेगी, यात्रा का संदेश उतना ही अधिक, अपने अनेक आयामों के साथ प्रकट होता चला जायेगा, जैसा गांधीजी ने कहा था कि ‘मुझे प्रस्थान करने दीजिए, इस यात्रा के पीछे के विचार सामने आते जायेंगे’ ।

आजादी की लड़ाई के इतिहास से अवगत लोग जानते हैं कि सविनय अवज्ञा की डांडी यात्रा का बीज वास्तव में सन् ’20 के ‘असहयोग आंदोलन’ के समय पड़ गए थे । 1 अगस्त 2020 को गांधी जी ने वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र लिख कर अपने उन सब ख़िताबों को लौटा देने की घोषणा की थी जो उन्हें अंग्रेजों ने मानवता की सेवा में दक्षिण अफ़्रीका में उनके कामों के लिए उन्हें दिए थे । अपने उस कदम को उन्होंने ‘ख़िलाफ़त’ के प्रति ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार के ‘विवेकहीन, अनैतिक और अन्यायी रवैये और इस अनैतिकता के पक्ष में उसके एक के बाद एक ग़लत कामों के विरोध में अपने असहयोग का प्रारंभ कहा था’। उन दिनों कांग्रेस के अंदर मालवीय जी जैसे पुराने लोगों ने गांधीजी के फैसले का विरोध किया था । उनके जवाब में गांधीजी ने लिखा कि “एक उच्चतर कर्त्तव्य का मुझसे तकाजा है कि असहयोग समिति (जिसका गठन मेसोपोटामिया पर ब्रिटेन के कब्जे की योजना की खिलाफत के प्रश्न को केंद्र में रख कर गठित किया गया था — अ.मा.) ने जो कार्यक्रम निश्चित कर दिया है, उससे मैं पीछे न हटूँ । जीवन में कुछ ऐसे क्षण आते हैं जब आपके लिए कोई ऐसा काम करना भी जरूरी हो जाता है जिसमें आपके अच्छे से अच्छे मित्र भी आपका साथ न दे सकें । जब कभी कर्त्तव्य को लेकर आपके मन में द्वंद्व पैदा हो जाये उस समय आपको अपने अन्तर की शान्त और क्षीण आवाज पर ही निर्णय छोड़ देना चाहिए ।”

इसके अलावा इस लेख में उन्होंने दिलचस्प ढंग से व्यक्ति और संगठन के बीच के संबंध को व्याख्यायित करते हुए कांग्रेस और उसके सदस्यों के बीच संबंधों के बारे में लिखा था — “कांग्रेस तो आखिरकार राष्ट्र के विचारों को वाणी देने वाली संस्था है । और जब किसी के पास ऐसी कोई सुविचारित नीति या कार्यक्रम हो जिसे वह चाहे कि सब लोग स्वीकार करें या अपनायें, लेकिन साथ ही वह उसके पक्ष में जनमत भी तैयार करना चाहता हो, तो स्वभावतः वह कांग्रेस से उस पर विचार करने और उसके सम्बन्ध में अपना मत स्थिर करने को कहेगा । लेकिन जब किसी को किसी नीति विशेष या कार्य विशेष में अडिग विश्वास हो तब उस पर कांग्रेस के मत की प्रतीक्षा करना भूल होगा, ऐसे व्यक्ति को तो उस नीति या कार्यक्रम के अनुसार काम करके उसकी कार्य-साधकता सिद्ध कर देनी चाहिए ताकि सम्पूर्ण राष्ट्र उससे स्वीकार ले ।”

गांधीजी अपने स्वतंत्र मत के विषय को आगे और व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि “किसी भी संस्था में सदा तीन श्रेणियों के लोग आते हैं : एक तो वे जिनके विचार अमुक नीति के पक्ष में हैं, दूसरे वे जिनकी राय उस नीति पर सुनिश्चित किन्तु विपक्ष में होती है और तीसरे वे जिनके इस सम्बन्ध में कोई निश्चित विचार ही नहीं हैं । कांग्रेस इसी तीसरी और बड़ी श्रेणी के लोगों के एवज में निर्णय लेती है । असहयोग के सम्बन्ध में मैं एक निश्चित विचार रखता हूँ ।”(सम्पूर्ण गांधी वांग्मय, खण्ड 18, ‘कांग्रेस और असहयोग’,  पृष्ठ-122-123)

यह है कांग्रेस संगठनात्मक सिद्धांत का एक मूलभूत सच । आजादी के पहले और बाद में भी कांग्रेस के इतिहास में व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह और कांग्रेस नेतृत्व के बीच सीधी टकराहटों के अनेक उदाहरण मिलते हैं । इसमें आलाकमान भी होता है और क्षत्रप और व्यक्तिगत विचार रखने वाला सदस्य भी । बहुमत की अधीनता को मान कर चलने का ऐसा कोई अटल सिद्धांत नहीं है, जिसमें आलाकमान को चुनौती देने वाले का कोई स्थान नहीं होता है । संगठन में आलाकमान की हैसियत एक नैतिक शक्ति की तरह की ज्यादा होती है ।

यही कारण है कि कांग्रेस में बहुत कुछ ऐसा चलता है जो उस दल की आंतरिक संहति को संदेहास्पद बनाता है, पर शायद इसकी यही तरलता उसके सदस्यों की बीच और आमजन से कांग्रेस के संगठन के बीच अन्तर्क्रिया को ज्यादा आसान और व्यापक भी बनाता है । ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का पूरा स्वरूप, जिसे डांडी मार्च की तरह ही स्थानीय लोगों के तमाम हिस्सों के साथ संवाद की एक प्रक्रिया के रूप में स्थिर किया गया है और जिसके साथ ही साथ देश के और भी कई हिस्सों में ऐसी ही यात्राओं के आयोजन की घोषणा की गई है, उन सबसे देश भर में शुरू होने वाले राजनीतिक जन-संवाद के सामने राजस्थान की तरह की घटना और कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव भी शायद बहुत ज्यादा मायने नहीं रखेगी ।

आज के समय में सांप्रदायिक फासीवाद की कठिन चुनौती के मुकाबले में सक्षम एक नई कांग्रेस का उदय जरूरी है और वह ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तरह के जन-संवाद के प्रभावशाली कार्यक्रमों के बीच से ही संभव हो सकता है ।   

(अरुण माहेश्वरी लेखक और चिंतक हैं। आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)  

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