न्यूज़ चैनल “आज तक” के स्टिंग ने जेएनयू हमलावरों के चहरों पर लगे नकाब को खींच दिया है। और उनके पीछे छुपी लंपट और गुंडा ताकतों की असलियत सामने आ गयी है। स्टिंग में विद्यार्थी परिषद के छात्र की स्वीकारोक्ति के बाद अब किसी दूसरी गवाही की दरकार नहीं है। सब कुछ उसने एक पिक्चर की तरह पेश कर दिया है। और सिलसिलेवार तरीके से सिर्फ यह नहीं बताया कि क्या हुआ और कौन लोग उसमें शामिल थे बल्कि किसको और कैसे निशाना बनाया गया। सब कुछ कैमरे में कैद हो चुका है।
आज तक पर दिखाए गए दूसरे स्टिंग का हवाला देकर जिसमें गीता कुमारी के हवाले से सर्वर जाम करने की बात सामने आयी है, दोनों मामलों की तुलना की कोशिश बेमानी है। दरअसल दोनों अलग-अलग घटनाएं हैं और उनका अपना स्वतंत्र गतिविज्ञान है। एक तरफ पिछले 70 दिनों से चुने गए छात्रसंघ के नेतृत्व में फीस वृद्धि के खिलाफ छात्रों का आंदोलन चल रहा था जिसमें विश्वविद्यालय का वीसी और एक तरीके से छात्रों का अभिभावक कोई सुनवाई करने के लिए तैयार नहीं था। न ही उसने छात्रों से एक बार मिलने की जरूरत समझी और न ही प्रशासन की तरफ से कोई पहल हुई। बल्कि वह लगातार छात्रों के रजिस्ट्रेशन के काम को आगे बढ़ा रहा था। इस बीच परिसर के भीतर कोई रास्ता निकलता न देख बाहर जाकर छात्रों ने एचआरडी मंत्रालय और विश्वविद्यालय के पैट्रन राष्ट्रपति से भी गुहार लगाने की कोशिश की। एक बार राष्ट्रपति से मिलने जाने के आह्वान पर छात्र जब सड़कों पर निकले तो उनकी बेरहमी से पिटायी की गयी जिसमें ढेर सारे छात्रों को गंभीर चोटें आयीं और कई को तो फ्रैक्चर हो गया।
बीच में एचआरडी मंत्रालय ने जब सचिव के जरिये एक वार्ता शुरू की और चीजें सकारात्मक दिशा में जा रही थीं तो सरकार ने उस सचिव का ही तबादला कर दिया। इससे समझा जा सकता है कि जेएनयू के आंदोलन के प्रति सरकार की क्या मंशा है।
लिहाजा दो महीने लगातार आंदोलन से परेशान छात्रों के लिए भी अब कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। ऐसे में उन्हें सर्वर को ठप करने और उसके जरिये काम को रोकने की कुछ छात्रों ने कोशिश की। हालांकि यह छात्रसंघ का न तो घोषित कार्यक्रम था और न ही उसकी अगुआई में हुआ। दूसरी बात जेएनयू की वेबसाइट पर यह बात बिल्कुल साफ-साफ लिखी है कि सर्वर के काम न करने या फिर उसके डैमेज हो जाने पर डाटा के किसी भी तरह से क्षति पहुंचने की कोई आशंका नहीं है। क्योंकि जेएनयू प्रशासन ने उसकी वैकल्पिक व्यवस्था कर रखी है। उसका पूरा डाटा क्लाउड में होता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सर्वर को कहीं रखने की जरूरत नहीं पड़ती है बल्कि उससे जुड़ा डाटा क्लाउड में सुरक्षित रहता है। लिहाजा जेएनयू प्रशासन सर्वर के मुद्दे को जिस तरह से खींच रहा है उसका कोई मतलब ही नहीं है। पहली बात तो यह छात्रों के अपने आंदोलन की आंतरिक रणनीति और उसके तथा प्रशासन के बीच पैदा होने वाले संकट का सवाल है। और उससे दोनों पक्षों एक दूसरे से आंतरिक तौर पर निपटना चाहिए।
लेकिन इसके नाम पर बाहर से गुंडों को बुलाकर भीतर के छात्र और छात्राओं पर हिंसक हमले को न तो किसी भी रूप में जायज ठहराया जा सकता है और न ही उसकी किसी को इजाजत दी जा सकती है। इस मामले में सवालों के घेरे में कोई एक पक्ष नहीं है। बल्कि एक तरफ सीधे-सीधे बाहर के वो लंपट तत्व तो जिम्मेदार हैं ही जिन्होंने हमले में सीधे हिस्सेदारी की। लिहाजा उनकी पहचान कर-कर के उनके खिलाफ 307 से लेकर तमाम आपराधिक धाराओं के तहत मुकदमा बनता है। लेकिन इसके साथ ही विश्वविद्यालय के सुरक्षा गार्ड से लेकर प्रशासन तक की क्या भूमिका रही उसकी भी जांच पड़ताल होनी जरूरी है। और तकरीबन तीन घंटे गुंडे परिसर के अंदर लड़कियों पर राडों और बर्छियों से हमला करते रहे।
प्रशासन न केवल सोता रहा बल्कि बाहर विश्वविद्यालय के गेट पर मौजूद होने के बावजूद पुलिस ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। यह मामला केवल पुलिस-प्रशासन तक सीमित नहीं है। इसके तार उस शख्स तक जाते हैं जिसके तहत दिल्ली पुलिस आती है। लिहाजा गृहमंत्रालय का रवैया भी स्कैनिंग के दायरे में आ जाता है। और कुल मिलाकर फिर विश्वविद्यालय प्रशासन-पुलिस-गृहमंत्रालय और परिसर में घुसे लंपटों के बीच एक गठजोड़ काम करता हुआ दिखता है। और इस मामले की जांच किसी पुलिस या फिर गृह मंत्रालय से जुड़ी किसी एजेंसी को नहीं दी जा सकती है जो खुद सवालों के घेरे में है। लिहाजा इससे अलग हटकर किसी तीसरी एजेंसी को जांच की जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए जिससे पूरे मामले की स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से जांच हो सके।
दरअसल केंद्र जेएनयू को एक मोहरे के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। वह दिल्ली विधानसभा का चुनाव हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून दोनों मामले में उसके जरिये सूबे और देश में ध्रुवीकरण करने की फिराक में है। और जामिया से लेकर एएमयू और दूसरे अल्पसंख्यक बहुल इलाकों को इसी कड़ी के हिस्से के तौर पर देखा जाना चाहिए।
लेकिन कहते हैं कि जैसा कोई सोचता है उसी तरह से चीजें आगे नहीं बढ़ पाती हैं। नागरिकता संशोधन कानून के साथ भी वही हुआ। सेंट स्टीफेंस और हंसराज समेत तमाम दिल्ली विश्वविद्यालय के उम्दा कालेजों के छात्रों का जेएनयू के पक्ष में खड़ा होना साथ ही बॉलीवुड के मुख्यधारा के कलाकारों के उसमें शामिल हो जाने से सरकार के इरादों पर घड़ों पानी गिर गया।
हालांकि सरकार अभी हारी नहीं है और न ही वह पीछे हटने के लिए तैयार है। और उसको अभी भी बाजी के अपने पक्ष में पलट जाने की उम्मीद है। इस बात में कोई शक नहीं कि सीएए पर अभी निर्णायक लड़ाई होनी बाकी है। और एकबारगी भले ही सरकार पीछे जाती दिख रही हो लेकिन जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए उसने अपना पूरा एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है। जमीनी स्तर पर रैलियों से लेकर जागरूकता अभियान उसके हिस्से बने हुए हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि सीएए विरोधी आंदोलन अभी तक स्वत:स्फूर्तता का शिकार रहा है। और अगर उसे एक सुचिंतत और योजनाबद्ध तरीके से आगे नहीं बढ़ाया गया तो सरकार अपने मंसूबों में सफल हो सकती है। लेकिन इस मामले में विरोधियों के पास नई और ऊर्जावान पीढ़ी की न केवल समझदारी बल्कि हौसला भी साथ है। लिहाजा इसके बहुत पीछे जाने की संभावना तो नजर नहीं आती है। फिर भी अगर सचमुच में सत्ता के किले पर मर्मांतक हथौड़ा मारना है तो इस आंदोलन को राजनीतिक स्वरूप देना उसकी पहली और आखिरी शर्त बन जाती है।
(लेखक महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)