Friday, April 26, 2024

शिक्षक दिवस पर विशेष: शिक्षक से पहले उसकी जाति आ जाती है

दो महीना पहले गुरु पूर्णिमा (आषाढ़ पूर्णिमा) बीती है और आज पेन व ग्रीटिंग कॉर्ड वाला शिक्षक दिवस भी आ पहुंचा है। धार्मिक ग्रंथों में गुरु को ईश्वर-तुल्य बताया गया है, साहित्य में भी गुरु की महिमा का बखान है। पर हक़ीक़त की ज़मीन पर गुरु ईश्वर के समकक्ष है? विशेषकर यदि शिक्षक, अध्यापक दलित या आदिवासी हो तो? इस संदर्भ में जनचौक संवदादाता से विस्तृत बातचीत की इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास के प्रोफ़ेसर डॉ. विक्रम ने।

सवाल: क्या सभी वर्गों और जातियों के छात्रों द्वारा गुरु को वैसा ही सम्मान दिया जाता है जैसा कि वैदिक साहित्य या भक्तिकालीन साहित्य में कहा गया है या मामला कुछ अलग है?

प्रोफ़ेसर विक्रम: नहीं, नहीं मामला बेहद अलग है। पूर्वांचल एरिया में गुरु की पहचान में पहले उसकी जाति आती है तब गुरु आता है। बेसिकली गुरु तो होता ही नहीं है, पहले लोग पूछते हैं कि कौन सी जाति का है। उसी आधार पर उनकी पहचान होती है, उसी आधार पर उनका सम्मान भी होता है। ब्राह्मण अध्यापक है तो सम्मान ज़्यादा है दलित शिक्षक है तो सम्मान कम है। अपवादों में नहीं जाता पर ज़्यादातर मामलों में ऐसा होता है। जैसे समाज में पॉवर तय होती है वैसे ही शिक्षकों में जाति के आधार पर पॉवर तय होती है यूनिवर्सिटी स्तर पर।   

प्राथमिक विद्यालय के स्तर पर बच्चों में उतनी जातीय चेतना नहीं होती। पर यूनिवर्सिटी के बच्चे मेच्योर हो चुके होते हैं। वो समझते हैं कि कौन सा अध्यापक किस जाति का है। छात्रों में ग्रुपिंग होती है। जैसे कि यादव बच्चों का अलग है, ब्राह्मण बच्चों का ग्रुप अलग है, उनकी ग्रुपिंग के आधार पर वो शिक्षकों से बातचीत करते हैं। मसलन यूनिवर्सिटी में शिक्षक दिवस पर गिफ्ट देने की परंपरा जो विकसित हुई है उसमें जो सवर्ण अध्यापक हैं उनको गिफ्त ज्यादा मिलता है, जो दलित जाति का है उसे उनके एक दो बच्चों को छोड़कर कोई गिफ्ट नहीं देता। तो छात्रों तक पहले अध्यापक नहीं पहुंचता, पहली उसकी जाति पहुंच जाती है। और उनकी जाति के आधार पर ही छात्र निर्णय लेते हैं कि उनके साथ कैसा बात, व्यवहार करना है।   

सवाल: चार अलग-अलग जाति के शिक्षक (उसमें दलित और ब्राह्मण भी हैं) एक साथ कैंपस में कहीं खड़े हैं या बैठे हुये हैं तो सवर्ण छात्र क्या सबके पैर छूते हैं?

प्रोफेसर विक्रम: नहीं एकदम नहीं है। पहले तो मेरा मानना है कि यह एक ब्राह्मणवादी परंपरा है लेकिन चूंकि यूनिवर्सिटी में पैर छूने की परंपरा है तो सभी अध्यापकों के पैर छुए जाने चाहिये। पर मैंने ये पाया है कि छात्र सवर्ण प्रोफेसर के पैर छूने आते हैं। दलित छात्र सबके पैर छुएगा। सवर्ण छात्र है तो सबके पैर नहीं छुएगा, या जिनके पास पॉवर होगा उनका वो छुएगा।

प्रोफेसर विक्रम थेसिस पर हस्ताक्षर पर करते हुए

कई बार ऐसा होता है वो दलित अध्यापक के पैर नहीं छूते और सवर्ण अध्यापक के पैर छूकर बग़ल से निकल लेते हैं। ये घटनायें बहुत आम हैं। बाबा साहेब जानते थे कि मंदिर में प्रवेश करने वाली बात ब्राह्मणवादी है लेकिन वो वहां भी बराबरी चाहते थे। तो मेरे साथ भी यही है कि ये परंपरा भले ब्राह्मणवादी है लेकिन यदि आप सबका पैर छू रहे हैं तो मेरा भी पैर छूना चाहिए। पर ये नहीं होता। जानबूझ कर फील कराया जाता है छात्रों द्वारा कि आप अध्यापक हैं तो क्या हुआ आप दलित हैं, आप इसके लायक नहीं हैं।

सवाल: पटना यूनिवर्सिटी में शिक्षकों द्वारा एक जगह नोटिस लगाया गया है कि छात्र अध्यापकों के पैर नहीं छुएं तो ग़ैरबराबरी वाले इस परंपरा को ऐसी कोई मुहिम आप लोग क्यों नहीं चलाते ?

प्रोफ़ेसर विक्रम: आइडियली मैं भी यह मानता हूं कि पैर छूने की परंपरा नहीं होनी चाहिए। लेकिन यदि मैं ये मुहिम चलाऊंगा तो वो बच्चे मुझे और इग्नोर करेंगे, और सम्मान नहीं करेंगे, कहेंगे कि ये हमारी परंपरा का विरोध कर रहा है। तो बेहतर हो कि ये मुहिम ब्राह्मण अध्यापक चलायें, वो बात करें तो माहौल अलग हो।

सवाल: महामारी के बाद चीजें एकदम से बदलीं। सड़कों पर जब चलते हैं तो जूते चप्पल में थूक, बलगम, पान गुटखे की पीक, आदि लिपट जाती है। पुरुषों में खड़े होकर यूरिनेशन का चलन है मूत्र के छींटे घुटने तक पैंट पर तो आते ही हैं तो ऐसे में पैर छूने के बाद हाथ धोने या सैनिटाइज करने का चलन हमारे यहां नहीं है तो छात्रों की या किसी की भी जान जोखिम में डालने वाले अनहाईजीनिक संस्कारों को क्या औचित्य।  

प्रोफ़ेसर विक्रम: ये तो आप बहुत एडवांस लेवल की बात बता रहे हैं। यहाँ तक भारत अभी नहीं पहुंचा है। भारत अभी बहुत पीछे है। मैं व्यक्तिगत स्तर पर पांव छूने की परंपरा का विरोध करता हूँ। आइसा के बच्चे किसी के भी पांव नहीं छूते तो वो बुरा नहीं लगता। जेएनयू में पांव छूने का कल्चर नहीं है।

सवाल: कथित आज़ादी के 75 साल के सफ़र में शिक्षक-छात्र संबंधों में कितना बदलाव आया है? छात्र के स्तर पर कितना बदलाव आया है और अध्यापक के स्तर पर कितना बदलाव आया है?

प्रोफ़ेसर विक्रम: बहुत बदलाव आया है। ‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय’ वाली बात अब नहीं रही। आज के हालात में शिक्षक अध्यापक बच्चों से बहुत डरते हैं। इलाहाबाद, पूर्वांचल के क्षेत्रों में तो विशेष तौर पर। छात्र बहुत ज़्यादा उग्र हो चुके हैं। आमतौर पर छात्र अध्यापकों का सम्मान नहीं करते। यह बदलाव कई कारणों से आया है। राजनैतिक, समाजिक, आर्थिक, आदि कारणों से। बच्चों को जो आज़ादी व अधिकार मिले हैं उसका वो बहुत ज़्यादा दुरुपयोग करने लग गये हैं। पूर्वांचल के एक छात्रनेता हैं वो अध्यापकों के मां बहन की गाली देते हैं। यूनिवर्सिटी में कोई घटना होती है तो छात्र सीधे अध्यापकों का कॉलर पकड़कर गाली-गलौज, मार-पीट करने लगते हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ही छात्रों ने एक ब्राह्मण प्रोफ़ेसर को जो वाइस चांसलर भी रहे हैं को मारा पीटा था। इलाहाबाद के एक प्रोफेसर को नंगा करके उनकी परेड करवायी गई छात्रों द्वारा।

मान लीजिये किसी रिसर्च स्कॉलर को हमने कहा कि इसमें कुछ बदलाव लाइये तो वो सुधार करने के बजाय अपने ईगो पर ले लेता है कि प्रोफ़ेसर हमको बतायेंगे कि बदलाव लाओ। थोड़ा सा अध्यापक कठोर हुआ तो छात्र उसकी प्राइवेट कहानियों बातों को वायरल करके बदनाम करने का हथकंडा अपनाते हैं। छात्र अध्यापक की हर बात को फोन में रिकॉर्ड करते हैं कि आप कुछ भी अनऑफिशियल बातें बोले तो वो क्लाउड पर स्टोर कर लेते हैं और समय आने पर उन्हें ब्लैकमेल करना शुरु कर देते हैं। अध्यापक भी एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिये उनकी बातें रिकॉर्ड करते हैं, बच्चे तो शिक्षक से ही सीखते हैं, तो परंपरा चल पड़ी है।

सवाल: छात्रों की असल समस्या क्या है?

प्रोफ़ेसर विक्रम: शिक्षकों में भी छात्रों के सम्मान की भावना कम हो गई है। स्कूल कॉलेज यूनिवर्सिटी तो बने बच्चों के लिये ही हैं। बच्चों की समस्या ही हमारी प्रमुख समस्या है। किसी छात्र का प्यार मोहब्बत चल रहा है, किसी को आर्थिक दिक्क़त है। कोई डिप्रेसन में फांसी लगा रहा है, कोई मां बाप से परेशान है। किसी छात्रा के माता-पिता पीछे पड़े हैं कि पढ़ाई छोड़ दो शादी कर लो। इस तरह की सारी समस्या छात्रों की यूनिवर्सिटी को समझना चाहिये और पढ़ाई से कहीं ज़्यादा वो डिप्रेसन के शिकार हैं। ये चांसलर और अध्यापकों को समझना होगा। जो आउट ऑफ सिलेबस की बात है, ऑउट ऑफ एजुकेशन की बात है वो बड़ी समस्या है। कितने बच्चों ने इलाहाबाद में ही फांसी लगा लिया। मान लीजिये की अभी परीक्षा का समय है और ठीक इसी समय बाढ़ आ गई है तो बच्चा बाढ़ में अस्त व्यस्त है। तो वो अध्यापक के पास जायेगा अपनी समस्या लेकर अगर अध्यापक उसकी समस्या का समाधान नहीं देता है तो छात्र उसको सम्मान नहीं देगा।

आज के समय में यूनिवर्सिटी तो केवल डिग्री के लिये रह गई है। दिल्ली, इलाहाबाद, पटना, कोटा जैसे तमाम शहरों में जो कोचिंग संस्थान खुले हैं उन्होंने यूनिवर्सिटी को रिप्लेस कर दिया है। बच्चे किसी न किसी प्रतिस्पर्धी परीक्षा की कोंचिंग कर रहे हैं और डिग्री के लिये यूनिवर्सिटी या कॉलेज में दाख़िला भी करा लिया है। यूनिवर्सिटी कॉलेज में जो अध्यापक-छात्र रिश्ता होता है वो कोचिंग में नहीं होता। वहां तो व्यवसायिक संबंध है। आज बच्चों के लिये कोचिंग महत्वपूर्ण है, क्योंकि उन्हें नौकरी चाहिए। 70 प्रतिशत बच्चे जो कोचिंग जाते हैं वो यूनिवर्सिटी कॉलेज में क्लास नहीं लेने जाते। सिर्फ़ स्नातक, परास्नातक ही नहीं रिसर्च के बच्चों का भी यही हाल है। वो भी कोचिंग जाते हैं। तो कोचिंग आज एक जटिल समस्या है।

जेएनयू के एक प्रोफेसर ने कांस्टीट्यूशनल मोरलिटी के नाम से एक आर्टिकल लिखा था वो ईपीडब्ल्यू में प्रकाशित हुआ था। भारत में संवैधानिक नैतिकता खत्म हो गई है। मानवाधिकार, समाजिक न्याय, आरक्षण जैसी नैतिकता वाली बात बच्चों की समझ में नहीं आती। भारत सरकार बच्चों में वो नैतिकता की बात डालने में नाकाम हुई है। झारखंड में नंबर कम आने पर छात्रों ने शिक्षक को बांधकर पीटा। शिक्षक ने सजा दी तो बच्चा कट्टा लेकर चला आया। शिक्षकों का सम्मान नहीं रहा। भारत सरकार जातिवादी सिलेबस, ब्राह्मणवादी सिलेबस रखेगी तो बच्चों में नैतिक मूल्य कहां से आएगा। 

‘अब्राहम लिंकन का पत्र अपने बेटे के शिक्षक के नाम’ की मेरी कविता में लिंकन शिक्षकों से कहते हैं कि शिक्षकों मेरे बेटे को डिग्रीवाला मत बनाना , मेरे बेटे को ईमनदार, नैतिक बनाना। लेकिन जब बच्चा स्कूल कॉलेज नहीं आएगा तो शिक्षक क्या खाक बनाएगा। आज बच्चे नंबर के लिये, असाइनमेंट के लिये ग्रुप बनाकर अध्यापक पर दबाव बनाते हैं। नहीं मानने पर मारते पीटते हैं। गाली गलौज करते हैं कैंपस में। अध्यापकों पर एक दबाव रहता है कि उन्हें अधिक नंबर दे।

सवाल: प्रबंधन या प्रशासनिक स्तर की मैकेनिकल मीटिंग छोड़कर क्या छात्रों की समस्याओं को लेकर कभी आप अध्यापकों ने कोई आपस में मीटिंग की है कि कैसे छात्रों की समस्याओं को हल किया जाये? 

प्रोफ़ेसर विक्रम: नहीं ऐसी कोई मीटिग नहीं की। हां आपस में बात करते हैं, चर्चा करते हैं पर कनक्ल्युड नहीं कर पाते। किसी छात्र या उसकी समस्या को लेकर और निजी स्तर पर जो कर सकते हैं, कर देते हैं। लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर कोई एक प्रोफ़ेसर कितनी किसकी मदद करेगा।

सवाल: शिक्षक-छात्र संबंधों में गिरावट को लेकर आपकी बातों में नैतिकता एक बड़े कारक के रूप में निकलकर आया है। नैतिकता के सबसे बड़े पैरोकार मोहनदास कर्मचंद गांधी आज हर विचारधारा के निशाने पर हैं। हर कोई उनको गाली दे रहा है। ख़ैर। तीन साल पहले दिल्ली में एक सरकारी बस ड्राईवर को सड़क पर मूत्र विसर्जन करने से रोकने पर हिंदी भाषी कवि देवी प्रसाद मिश्र को उक्त कंडक्टर ने बुरी तरह मारा था। लेकिन देवी प्रसाद ने यह कहते हुये कोई भी पुलिसिया कार्रवाई करने से मना कर दिया कि वो कंडक्टर मेरा वर्ग बंधु है। ग़लती की है उसने लेकिन मैं उसकी ग़लती क्षमा कर रहा हूं। वहीं दूसरी ओर अभी हाल ही में लखनऊ यूनिवर्सिटी प्रशासन ने प्रोफ़ेसर रविकांत पर जानलेवा हमला करने वाले छात्र को यूनिवर्सिटी और उससे संबद्ध किसी भी कॉलेज में किसी भी कोर्स में दाखिला लेने के लिये भी पाबंदी लगा दी है। प्रशासनिक कार्रवाई अपनी जगह एकदम सही व दुरुस्त थी। लेकिन बतौर अध्यापक रविकांत जी का स्टैंड क्या सही था?

प्रोफ़ेसर विक्रम: नैतिकता के नाते उन्हें उस छात्र को माफ़ कर देना चाहिये। अध्यापक छात्र को रास्ता दिखाते हैं। रविकांत जी उसे माफ़ कर देते तो उस छात्र में ज़्यादा सुधार आता। क़ानूनी कार्रवाई से किसी का दिल नहीं बदलता। दिल माफ़ी देने से बदलता है।

सवाल: आख़िरी सवाल है कि क्या होना चाहिये। कैसे सही हो सकता है छात्र और अध्यापक का संबंध?

प्रोफेसर विक्रम: जब तक जातिगत चेतना, धार्मिक और वर्गीय चेतना समाप्त नहीं होगी तब तक छात्र और अध्यापक का संबंध नहीं सुधरेगा। नैतिकता की बात भी झूठी रहेगी। इन्हीं चेतनाओं ने छात्र व अध्यापक दोनों डिग्रेड किया है।

आख़िर में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की वो कविता जिसका जिक्र अपनी बात-चीत में प्रोफ़ेसर विक्रम ने किया है-

हे शिक्षक!

मैं जानता हूं और मानता हूं

कि न तो हर आदमी सही होता है

और न ही होता है सच्चा;

किंतु तुम्हें सिखाना होगा कि

कौन बुरा है और कौन अच्छा

दुष्ट व्यक्तियों के साथ-साथ आदर्श प्रणेता भी होते हैं,

स्वार्थी राजनीतिज्ञों के साथ-साथ समर्पित नेता भी होते हैं

दुश्मनों के साथ-साथ मित्र भी होते हैं

हर विरूपता के साथ सुंदर चित्र भी होते हैं

समय भले ही लग जाए, पर

यदि सिखा सको तो उसे सिखाना

कि पाए हुए पांच से अधिक मूल्यवान है –

स्वयं एक कमाना

पाई हुई हार को कैसे झेले, उसे यह भी सिखाना

और साथ ही सिखाना, जीत की ख़ुशियां मनाना।

यदि हो सके तो उसे ईर्ष्या या द्वेष से परे हटाना

और जीवन में छुपी मौन मुस्कान का पाठ पढ़ाना।

जितनी जल्दी हो सके उसे जानने देना

कि दूसरों को आतंकित करने वाला स्वयं कमज़ोर होता है,

वह भयभीत व चिंतित है

क्योंकि उसके मन में स्वयं चोर होता है।

उसे दिखा सको तो दिखाना –

किताबों में छिपा खजाना।

और उसे वक़्त देना चिंता करने के लिए

कि आकाश के परे उड़ते पंछियों का आह्लाद

सूर्य के प्रकाश में मधुमक्खियों का निनाद

हरी-भरी पहाड़ियों से झांकते फूलों का संवाद

कितना विलक्षण होता है – अविस्मरणीय, अगाध

उसे यह भी सिखाना –

धोखे से सफ़लता पाने से असफ़ल होना सम्माननीय है

और अपने विचारों पर भरोसा रखना अधिक विश्वसनीय है

चाहे अन्य सभी उनको ग़लत ठहराएं

परंतु स्वयं पर अपनी आस्था बनी रहे, यह विचारणीय है।

उसे यह भी सिखाना कि वह सदय का साथ सदय हो

किंतु कठोर के साथ हो कठोर।

और लकीर का फ़कीर बनकर

उस भीड़ के पीछे न भागे जो करती हो – निरर्थक शोर।

उसे सिखाना

कि वह सबकी सुनते हुए अपने मन की भी सुन सके,

हर तथ्य को सत्य की कसौटी पर कसकर गुन सके।

यदि सिखा सको तो सिखाना कि वह दुख में भी मुस्कुरा सके,

घनी वेदना से आहत हो, पर ख़ुशी के गीत गा सके।

उसे यह भी सिखाना कि आंसू बहते हों तो उन्हें बहने दे,

इसमें कोई शर्म नहीं, कोई कुछ भी कहता हो, कहने दे।

उसे सिखाना –

कि वह सनकियों को कनखियों से हंसकर टाल सके

पर अत्यंत मृदुभाषी से बचने का खयाल रखे।

वह अपने बाहुबल व बुद्धिबल का अधिकतम मोल पहचान पाए,

परंतु अपने ह्र्दय व आत्मा की बोली न लगवाए।

वह भीड़ के शोर में भी अपने कान बंद कर सके

और स्वत: की अंतरात्मा की सही आवाज़ सुन सके।

सच के लिए लड़ सके और सच के लिए अड़ सके।

उसे सहानुभूति से समझाना,

पर प्यार के अतिरेक से मत बहलाना।

क्योंकि तप-तप कर ही लोहा खरा बनता है,

ताप पाकर ही सोना निखरता है।

उसे साहस देना ताकि वक़्त पड़ने पर अधीर बने

सहनशील बनाना ताकि वह वीर बने।

उसे सिखाना कि वह स्वयं पर असीम विश्वास करे,

ताकि समस्त मानव जाति पर भरोसा व आस धरे।

यह एक बड़ा सा लंबा-चौड़ा अनुरोध है,

पर तुम कर सकते हो, क्या इसका तुम्हें बोध है?

मेरे और तुम्हारे… दोनों के साथ उसका रिश्ता है;

सच मानो, मेरा बेटा एक प्यारा-सा नन्हा सा फ़रिश्ता है।

(हिंदी भावानुवाद अमर उजाला के लिए- मधु पंत)

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