Thursday, March 28, 2024

कॉरपोरेट की रीढ़ तोड़े बग़ैर किसान नहीं हो पाएंगे कामयाब

किसान आन्दोलन ने 100 दिन पूरा करके दुनिया में चले सबसे लम्बे प्रदर्शन का रिकॉर्ड बना लिया है। शायद, ये मानव इतिहास का ऐसा सबसे बड़ा शान्तिपूर्ण विरोध बन चुका है, जिसमें हरेक उम्र, लिंग, जाति और धर्म के लोग शामिल हैं, इसीलिए इन दिनों हर ख़ास-ओ-आम की ज़ुबान पर एक ही सवाल तैर रहा है कि किसान आन्दोलन का अंज़ाम किस ओर जाएगा? सवाल बेहद मौज़ूँ है। कौतूहल स्वाभाविक है, लेकिन जवाब आसान नहीं। जवाब को सिर्फ़ पूर्वानुमानों से ही समझ सकते हैं।

वजह साफ़ है कि उपरोक्त सवाल, गणित का नहीं बल्कि समाजशास्त्र का है। गणित का होता तो कोई भी दो और दो का जोड़ चार बता देता और बात ख़त्म हो जाती। समाज शास्त्र गणितीय नियमों और फ़ार्मूलों से नहीं चलता। इसमें स्वार्थ और साज़िश का बोलबाला होता है। किसान समुदायों पर लाँछन चाहे जितने लगें लेकिन उनके आन्दोलन रूपी तपस्या का स्वार्थ बिल्कुल स्पष्ट है कि संसद से जबरन पारित तीनों कृषि क़ानून उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं हैं। लिहाज़ा, सरकार इसे फ़ौरन वापस ले। रद्द करे। ख़ारिज़ करे। किसान बारम्बार दोहरा रहे हैं कि उन्हें इससे कम पर कुछ भी मंज़ूर नहीं।

सत्याग्रह काम नहीं आएगा
दूसरी ओर सर्वसत्ता-सम्पन्न, ज़िद्दी और कॉरपोरेट की हित-साधक सरकार है, जिसके संस्कार में ही लचीलापन, समन्वयवादी सोच, क़दम पीछे खींचने, फ़ैसलों पर पुनर्विचार करने और उन्हें सुधारने की कोशिश करने जैसी बातें नहीं हैं। किसी सर्वशक्तिमान सत्ता की तरह मौजूदा सरकार को आर-पार का फ़ैसला लेने में अद्भुत आनन्द मिलता रहा है।

उसे विध्वंसक और विनाशकारी फ़ैसले लेने और उसे ‘राष्ट्रहित’ में उपयुक्त ठहराने में अप्रतिम सुखानुभूति होती रही है। इसने न सिर्फ़ संसद को किसी लठैत की तरह हाँककर दिखाया है, बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया, न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को भी रीढ़-विहीन बनाकर दिखा दिया है। हालाँकि, इसके बावजूद इसे ‘टू मच डेमोक्रेसी’ की पीड़ा सताती रहती है।

लिहाज़ा, यदि आन्दोलनकारी किसानों को ये लगता है कि सरकार उनके शान्तिपूर्ण सत्याग्रह के आगे झुक जाएगी, तो वो सत्ता के ताज़ा अतीत को नज़रअन्दाज़ करने की गुस्ताख़ी कर रहे हैं। किसान कैसे भूल सकते हैं कि तेज़ी से कड़े फ़ैसले लेने वाली सरकार ने जिस तरह संसद से डंके की चोट पर कृषि क़ानून पारित करवाये उसी ढंग से संविधान के अनुच्छेद 370 का सफ़ाया किया, जम्मू-कश्मीर का विभाजन किया और नागरिकता क़ानून बनाया।

इससे पहले अधकचरे जीएसटी और नोटबन्दी का तेवर भी देश देख चुका है। महज़ चार घंटे के नोटिस पर कोरोना लॉकडाउन के ज़ख़्म तो अभी हरे ही हैं। इन सबका एक ही निचोड़ है कि ये सरकार सही करे या ग़लत, इसे अपने किये पर कभी कोई अफ़सोस नहीं होता। मलाल नहीं होता, और हो भी क्यों?

स्वाभाविक है सरकार का अहंकार
ये सत्ता चुनाव दर चुनाव अपने घातक फ़ैसलों पर भी जनादेश हासिल करती रही है। लिहाज़ा, पीछे मुड़कर देखने या जनाक्रोश के अल्पमत की परवाह ये भला क्यों करें! सरकार का अपने संख्या-बल पर इतराना या इसका अहंकार करना स्वाभाविक है। जिसके पास सम्पदा होगी, शक्ति होगी, वही तो इस पर इतराएगा। दुर्बल और निर्बल की परवाह तो सिर्फ़ उन्हें होती है जो दयालु और कृपालु होते हैं। यानी, बकौल रामधारी सिंह दिनकर ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसका क्या जो दन्तहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो’। सत्ता की नज़र में फ़िलहाल, 100 दिन से सड़कों पर आन्दोलन कर रहे किसानों की हैसियत ‘दन्तहीन, विषरहित, विनीत, सरल’ जैसी ही है।

सरकार की निष्ठुरता जगज़ाहिर है। वो अपनी उदार छवि बनाना भी नहीं चाहती। लिहाज़ा, किसान जिस अखाड़े में उतरे हैं उसमें यदि वो सरकार से किसी हमदर्दी की उम्मीद रखेंगे तो उनका कोई भला नहीं होने वाला। किसानों को इस लोकप्रिय जुमले का मतलब भी समझना होगा कि ‘लिखा परदेस किस्मत में तो वतन को याद क्या करना, जहाँ बेदर्द हाक़िम हो वहां फ़रियाद क्या करना!’ किसानों को भी ये समझना होगा कि वो ‘बेदर्द हाक़िम के आगे फ़रियाद’ कर रहे हैं। अब सवाल ये है कि क्या किसानों को थक-हार कर अपने घरों को लौटना होगा और कॉरपोरेट की दासता स्वीकार करनी होगी? या, उनके पास अपनी जीत सुनिश्चित करने का कोई और ज़रिया भी हो सकता है? क्योंकि लम्बे संघर्ष और बलिदान की भी कोई सीमा तो होनी ही चाहिए।

कितना लम्बा चलेगा संघर्ष?
अगला सवाल तो और भी कठिन है कि आख़िर कितना लम्बा संघर्ष और बलिदान किसानों को सफल बना पाएगा? इसका जवाब हमें स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास से मिलता है। वहाँ महात्मा गाँधी के नेतृत्व में जब आज़ादी के आन्दोलन की शुरुआत हुई थी तब क्या किसी को पता था कि आज़ादी कब मिलेगी? फ़िलहाल, वही दशा किसानों के सामने है। सरकार की ओर से आन्दोलन को दबाने के लिए जैसे हथकंडों और साज़िश का इस्तेमाल हो रहा है, वो हूबहू वैसी ही हैं जैसी तिकड़में अँग्रेज़ आज़माया करते थे या फिर जिसे सरकार ने हाल के वर्षों में विरोध की आवाज़ों को कुचलने के लिए अपनाया है।

हम चाहें तो नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ उमड़े शाहीन बाग़ों या 370 के विरोध में कश्मीर में बने हालात पर ग़ौर कर सकते हैं। शाहीन बाग़ का अंजाम दिल्ली के वीभत्स दंगे के रूप में सामने आया तो कश्मीर में विरोधी नेताओं का रातों-रात जेलों में ठूँसा जाना भी उतना ही दमनकारी था, जैसा अँग्रेज़ों के ज़माने में होता था या फिर जैसा इन्दिरा गाँधी के आपातकाल में हुआ था। किसानों के आन्दोलन से निपटने के लिए भी पहले आज़माये जा चुके हथकंडों का इस्तेमाल हो रहा है। मसलन, ये खालिस्तानी हैं, पाकिस्तानी हैं, राष्ट्रविरोधी हैं, नक़ली किसान हैं, ग़रीब किसान नहीं हैं, राजनीति से प्रेरित हैं, उग्र वामपन्थी हैं, असामाजिक तत्व हैं, काँग्रेस और अकालियों के एजेंट हैं, वग़ैरह-वग़ैरह।

अटपटा नहीं है सरकारी ‘नैरेटिव’
किसानों को सत्ता-पक्ष के ऐसे ‘नैरेटिव’ को अटपटा नहीं मानना चाहिए। कोई भी सरकार जब किसी आन्दोलन को कुचलना चाहती है तब ऐसी तिकड़में ही आज़माती है। सरकार का एक ही उद्देश्य होता है कि किसी भी तरह से आन्दोलन की साख या उसकी प्रतिष्ठा को गिराया जाए। इसके नेताओं और कार्यकर्ताओं का चरित्रहनन किया जाए। मौजूदा दौर में सरकार की मंशा को मेनस्ट्रीम मीडिया बहुत आसान बना चुका है क्योंकि न सिर्फ़ सरकार और उसकी पिछलग्गू मीडिया भी उन्हीं कॉरपोरेट्स के टुकड़ों पर पल रही है, जिनसे आन्दोलन कर रहे किसानों की जान पर बन आयी है।

किसान जैसे-जैसे अपने आन्दोलन को प्रखर और व्यापक बनाएँगे, वैसे-वैसे सरकारी तिकड़में भी तेज़ होंगी। आन्दोलन उग्र होगा तो उसमें हिंसा और सार्वजनिक सम्पत्ति के विनाश की हिस्सेदारी बढ़ेगी। आम किसान भले ही हिंसा से दूर रहें, लेकिन सरकार की शह पाकर उसके चहेते उपद्रवी तत्व आन्दोलन को हिंसक और विस्फोटक बनाने की कोशिश करेंगे, ताकि इसे आम जनता की हमदर्दी हासिल नहीं हो सके। 26 जनवरी के सारे घटनाक्रम का यही निचोड़ है।

अब तक सरकार देख चुकी है कि किसानों के दृढ़ संकल्प के सामने आँसू-गैस, लाठी-चार्ज़ और ‘वॉटर कैनन’ बेअसर साबित हुए हैं। लिहाज़ा, अब बारी है फ़ायरिंग, मौत और किसान-नेताओं की नज़रबन्दी या गिरफ़्तारी की। ये आलम पैदा होने में वक़्त जो भी लगे लेकिन जिस दिन सरकार, किसानों के आन्दोलन को कुचलने का मन बना लेगी, उसी दिन इसमें हिंसा का तड़का लगवा दिया जाएगा। फिर हिंसा पर काबू पाने के लिए सरकारी बर्बरता दिखायी जाएगी और अन्ततः आन्दोलन को कुचल दिया जाएगा। लिहाज़ा, आन्दोलन उतना ही लम्बा खिंचेंगा, जितना सरकार चाहेगी! बीच-बीच में बातचीत का खेल भी चलता रहेगा।

बहिष्कार ही है राम-बाण
अब सवाल ये है कि उपरोक्त सभी पहलुओं से किसानों के नेता और उनके रणनीतिकार अंजान तो हो नहीं सकते। सबके पास तमाम किस्म के तज़ुर्बे हैं, इसीलिए किसानों ने गाँधी जी के चिरपरिचित ब्रह्मास्त्र को आज़माने का रास्ता चुना। गाँधी जी ने अँग्रेज़ों की चूल हिलाने के लिए जैसे विदेशी कपड़ों की होली जलाने का नारा देश को दिया था, उसी तर्ज़ पर किसानों ने बिल्कुल सटीक रणनीति अपनायी है कि वो अम्बानी-अडानी और सरकार के तलवे चाटने वाले रामदेव जैसों के उत्पादों का बहिष्कार करेंगे। जियो मोबाइल का बहिष्कार इसकी पहली कड़ी थी।

किसान आन्दोलन की कामयाबी का रास्ता सिर्फ़ सरकार के चहेते कॉरपोरेट के उत्पादों के बहिष्कार से ही खुलेगा। जितनी जल्दी किसान और उनका समर्थन करने वाले भारतवासी, रिलायंस-अडानी और पतंजलि के उत्पादों के बहिष्कार करके उनके व्यापारिक और राजनीतिक हितों पर चोट पहुँचाएँगे उतनी जल्दी ही इनकी हितसाधक केन्द्र सरकार घुटने टेकने को मज़बूर होगी।

याद रखिए, अँग्रेज़ों ने भी भारत से जाने को तभी मज़बूर हुए जब वो समझ गये कि वो अब पुलिस और फ़ौज की बदौलत भी हिन्दुस्तान को अपने उत्पादों का बाज़ार बनाकर नहीं रख पाएँगे। बाज़ार ही कॉरपोरेट का अहंकार है। वही इसे अजेय बनाता है। इसलिए कॉरपोरेट को ध्वस्त करना है तो उसके बाज़ार, उत्पाद और ब्रॉन्ड का बहिष्कार कीजिए। यही राम-बाण इलाज है।

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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