बर्बर हत्या की वीडियो खूब फैलायी जा रही है। अपनी तो बांछें खिल गयी हैं। निर्मम हत्या के वीभत्स दृश्यों को देखने, दिखाने और फैलाने में हमें गजब का आनंद मिल रहा है। हम आपदा में मिले इस अवसर को बिल्कुल खोना नहीं चाहते। हम हर समय डरे रह रहे हैं। कहीं कोई अवसर हाथ से निकल न जाए। सत्ता के लिए बहुत लंबा इंतजार करना पड़ा था। अब यह खतरा मोल नहीं ले सकते। सत्ता चीज ही ऐसी होती है। इसी के लिए तो दिन-रात नफरत बोने में लगे हुए हैं। यह फसल तो उसी का नतीजा है। इस फसल को जम के काटना है। अभी नहीं, तो कभी नहीं।
एक को दूसरे के खिलाफ जितना ज्यादा भड़का सकें, उतना ही फायदा। लोग एक-दूसरे की हत्याएं करने लगें, बलात्कार और दंगे-फसाद करने लगें, चारों ओर आग, धुंआ, जलती लाशों की चिरांध फैल जाए, अपनी सत्ता उतनी ही सुरक्षित हो जाएगी। हमें अपने ऊपर विश्वास ही नहीं हो पाता कि नफरत का कितना डोज पर्याप्त रहेगा। डरा हुआ आदमी ज्यादा फायदे के लिए डोज बढ़ाता जाता है। क्या पता कि डोज कहीं थोड़ा सा कम न पड़ जाए, और बना-बनाया खेल ही बिगड़ जाए।
समाज बचे चाहे भाड़ में जाए। देश रहे चाहे न रहे। इंसानियत कराह रही हो तो कराहती रहे। पाप-पुण्य के चक्कर में बिल्कुल नहीं पड़ना। उचित-अनुचित के बारे में तो सोचना ही नहीं। बिल्कुल पत्थर बने रहना है। मन में कहीं दुविधा न घुस जाए। आत्मा न जाग जाए। दुविधा आई, कि अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी दे मारे। आत्मा जगी, कि सत्ता हाथ से फिसली।
जितना कठिन सत्ता को पाना था, उससे भी ज्यादा चुनौती भरा काम इसे बचाये रखना है। कभी किसी को चैन से बैठने नहीं देना है। किसी को तटस्थ नहीं रहने देना है। तटस्थों से राजनीति की रोटी नहीं सिंकती। सोचने वाले सत्ता की राह के रोड़े होते हैं। ध्रुवीकरण जरूरी है। हर कोई या तो इस तरफ होगा, या उस तरफ। जो अपनी ओर नहीं, वह अपना विरोधी। जो अपना विरोधी, वह देश विरोधी। क्योंकि अपन ही देश हैं। अपनी पार्टी ही देश है। अपनी सरकार ही राष्ट्र है। सरकार के कामों का विरोध, मतलब राष्ट्रद्रोह।
सबको हर समय व्यस्त रखना होता है। दिमाग खाली रखने ही नहीं देना है। हर समय के लिए मुद्दा तैयार रखना होता है। इतिहास को इतिहास से लड़ाते रहना होता है। इतिहास से भूगोल को भिड़ाते रहना होता है। इतिहास और पुराण में घालमेल करके छोड़ देना होता है, ताकि अलग करने में लोगों को नानी याद आ जाए। धर्म और संस्कृति का घमंजा तैयार करके छोड़ देना होता है, लोग चीखने-चिल्लाने लगें, अपने बाल नोचने लगें।
लोगों को उलझाये तो रखना ही होता है, वो भी भावनात्मक मुद्दों में। रोजी-रोटी पर तो सोचने ही नहीं देना है। सभी सीमाओं को धुंधला कर देना है। कार्यपालिका को ही न्यायपालिका बना देना है। उसी को विधायिका भी बना देना है। लोकतंत्र को ठोकतंत्र में बदल देना है। मीडिया को कुकुर झों-झों में लगा देना है। ताकि लड़ते-लड़ते लोग पागल हो जाएं। सत्ता सुरक्षित रहनी चाहिए। इस पर काफी खर्च आता है। लाखों लोगों को खरीदना पड़ता है, उन्हें पाल-पोष कर स्वामिभक्त बनाये रखना होता है।
यह खर्च तो एक निवेश होता है। निवेशक अपनी तिजोरियां खोलकर बैठे हैं। वे सत्ता में निवेश करते हैं। बदले में उन्हें कुछ चीजें बेचनी होती हैं। कभी सेल, कभी तेल, कभी भेल, तो कभी रेल। कभी जमीन, तो कभी जमीर। वे इतने में ही संतुष्ट रहते हैं। यह सत्ता तो दरअसल उनकी ही होती है। वे मदारी हैं, अपन जमूरे, और जनता मंत्रमुग्ध दर्शक। यह खेला बंद नहीं होने देना है। खेला खतम, तो पइसा हजम। दर्शक मंत्रमुग्धता से बाहर आया, कि अपन पर खतरा मंड़राया। जब तक खेला है, तब तक मेला है। खेला चलाते रहना होगा, क़ीमत चाहे जो चुकानी पड़े।
(शिवमोहन का लेख।)