“…अन्यथा यह माना जाएगा कि वास्तव में आपको विधानसभा में बहुमत प्राप्त नहीं है।” यह उस चिट्ठी की आखिरी पंक्ति है जो राज्यपाल लाल जी टंडन ने मुख्यमंत्री कमलनाथ को लिखी है। इसी पंक्ति में इससे पहले 17 मार्च को बहुमत साबित करने का निर्देश एक बार फिर राज्यपाल ने दोहराया है। महामहिम ने एक चुनी हुई सरकार को काल्पनिक आधार पर ‘बहुमत प्राप्त नहीं है’ कहने का घनघोर अलोकतांत्रिक आचरण दिखाया है।
आश्चर्य की बात यह है कि इसी चिट्ठी में राज्यपाल सुप्रीम कोर्ट के हवाले से यह भी कहते हैं कि किसी सरकार के बहुमत का फैसला फ्लोर टेस्ट से ही हो सकता है। ऐसे में फ्लोर टेस्ट हुए बगैर राज्यपाल यह फैसला कैसे कर सकते हैं कि कमलनाथ सरकार के पास बहुमत नहीं है? बहुमत साबित करने का एकमात्र रास्ता फ्लोर टेस्ट को सुनिश्चित करना ही रह जाता है।
कमलनाथ सरकार ने विश्वासमत की पहल नहीं की, राज्यपाल के संदेश या निर्देश का पालन नहीं किया तो उसके बाद आगे का रास्ता क्या हो? क्या कमलनाथ सरकार ने जानबूझकर ऐसा नहीं किया या ऐसा नहीं करने के पीछे कोई विवशता रही? हो सकता है कि कोरोना संकट को राज्यपाल काल्पनिक मानते हों, लेकिन स्पीकर ने वास्तविक माना है। वजह किसी की नज़र में सही या गलत हो सकती है मगर राज्यपाल की इच्छा के अनुरूप अगर फ्लोर टेस्ट नहीं हुआ तो नये सिरे से फ्लोर टेस्ट के आदेश से यह संकट खत्म होगा या बढ़ेगा?
राज्यपाल लालजी टंडन यह फिक्र करते नहीं दिखे हैं कि 16 विधायकों के इस्तीफों पर फैसला लम्बित है। इस्तीफा मंजूर होने तक वे विधायक हैं। उनकी मौजूदगी और गैर मौजूदगी से सदन की वास्तविक ताकत कम या अधिक होती है। बहुमत के परीक्षण का आंकड़ा इस पर निर्भर करता है। कोई सदन बहुमत परीक्षण के अवसर पर वोटरों की गैर मौजूदगी को समझने की कोशिश ना करे, ऐसा कैसे हो सकता है? यह कोशिश बहुमत परीक्षण के पहले होनी चाहिए, यह भी जरूरी है। स्पीकर अपने सदन के सदस्यों की गैरमौजूदगी के कारण को समझे बगैर बहुमत परीक्षण के लिए आगे नहीं बढ़ सकता। राज्यपाल ने स्पीकर के इस अधिकार को देखने या समझने की जरूरत तक नहीं समझी।
स्पीकर अगर चाहते हैं कि इस्तीफा देने वाले विधायकों से वे मुलाकात करें और आश्वस्त हों कि किसी दबाव में इस्तीफा नहीं दिया गया है तो उनकी यह इच्छा उनके संतुष्ट होने के लिए जरूरी है। संतुष्ट हुए बगैर स्पीकर विधायकों के इस्तीफे स्वीकार नहीं कर सकते। और, जब तक इस्तीफे लंबित रहेंगे तब तक बहुमत परीक्षण बेमतलब या त्रुटिपूर्ण रहेगा।
हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ में विधायक मुन्ना लाल गोयल को लेकर बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका एडवोकेट उमेश कुमार बोहरे ने दायर की है। 8 दिन से मुन्नालाल का परिजनों से संपर्क नहीं है। याचिका में बीजेपी नेताओं पर उन्हें बंधक बनाने का आरोप है। परिजनों की ओर से मुन्ना लाल के साथ अनहोनी की आशंका जतायी गयी है। मामले की सुनवाई 19 मार्च को होनी है। हालांकि मुन्ना लाल गोयल और उनके बेटे के वीडियो सामने आए हैं जिनमें मुन्ना लाल के सुरक्षित होने की बात भी कही गयी है।
सवाल यह है कि ये वीडियो भी स्वेच्छा से हैं या किसी दबाव में, यह कैसे सुनिश्चित किया जाए? एक अन्य मामले में हाट पिपलिया से विधायक मनोज चौधरी के भाई ने राज्यपाल को चिट्ठी लिखी है। उन्होंने आशंका जताई है कि उनके भाई को बेंगलुरू में कहीं कैद करके रखा हुआ है। संपर्क नहीं होने की वजह से परिजन परेशान हैं। क्या कोई सदन अपने विधायकों के संदिग्ध रूप से लापता होने की ख़बरों से अनजान होकर बहुमत परीक्षण कर सकता है या करना चाहिए?
दो दिन के भीतर दूसरी बार कमलनाथ सरकार को बहुमत परीक्षण का संदेश या निर्देश देकर राज्यपाल ने स्पीकर के सदन को निलंबित करने के अधिकार को भी मानने से मना किया है। राज्यपाल चाहें तो राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा कर सकते हैं। यह उनका अधिकार है। मगर, स्पीकर को सदन चलाने के तरीके वे सिखाएं, ऐसा अधिकार उन्हें कतई नहीं है।
सदन जब 26 मार्च तक के लिए स्थगित किया जा चुका है तो राज्यपाल के पास स्पीकर के निर्देश को निरस्त करने वाला निर्देश देने का अधिकार नहीं रह जाता है। इस वजह से भी राज्यपाल की ओर से फ्लोर टेस्ट के लिए दिया गया दूसरा निर्देश सवालों के घेरे में आ जाता है। इस निर्देश में दी गयी धमकी कि अगर इस बार फ्लोर टेस्ट नहीं हुआ तो माना जाएगा कि कमलनाथ सरकार के पास बहुमत नहीं है, पूरी तरह से असंवैधानिक भी है और सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के प्रतिकूल भी, जिसमें बहुमत का परीक्षण सदन के फ्लोर पर करने को एकमात्र रास्ता बताया गया है। वास्तव में राज्यपाल कह रहे हैं कि फ्लोर टेस्ट के बगैर भी कमलनाथ सरकार बहुमत खो चुकी है, ऐसा वे मान लेंगे।
(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल विभिन्न न्यूज़ चैनलों के पैनल में उन्हें बहस करते देखा जा सकता है।)