जनचौक स्पेशल: नफरत का कैराना नहीं, जीतेगा प्रेम का ‘किराना’

कैराना। पंडित भीमसेन जोशी की पुण्यतिथि पर आए साहित्यकार शैलेंद्र चौहान के लेख में ‘किराना घराना’ के जिक्र के साथ ही मेरे जेहन में कैराना जाने की ख्वाहिश पैदा हो गयी थी। और वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनावी दौरे के साथ पूरी हो गयी। दरअसल कैराना की जो मौजूदा तस्वीर पेश की जा रही है उससे बिल्कुल उलट उसकी एक दूसरी न केवल पहचान है बल्कि उसकी विरासत पूरी दुनिया में फैली हुई है जिसे संगीत के ‘किराना घराना’ के नाम से जाना जाता है। संगीत की यह धारा लोगों को जोड़ने का काम करती है। जबकि मौजूदा सांप्रदायिक पहचान बांटती है। पहली देश की गंगा जमनी तहजीब की विरासत को आगे बढ़ाती है तो दूसरी समाज को दो फांक करती है।

संगीत जेहनी तौर पर लोगों में प्रेम, भाईचारा और सद्भाव पैदा करता है जबकि सांप्रदायिकता घृणा, नफरत और भेद का भंडार है। लेकिन इस पहचान को न केवल छुपा दी गयी बल्कि उसकी हर चंद कोशिश की जा रही है कि उसे बाहर न आने दिया जाए।

लिहाजा इस गायब हो चुके कैराना की तलाश में हम निकल पड़े सहयोगी और पत्रकार शेखर आजाद के साथ। मुजफ्फरनगर से शामली और फिर वहां से कैराना की यात्रा हम दोनों ने बस से की। कैराना बस स्टैंड कहने को तो बस स्टैंड था लेकिन वहां न बस खड़ी हो सकती थी और न ही स्टैंड जैसा कुछ था। एक पतली ईंट की रोड जो एक जगह से घुसती है और यू का आकार बनाती हुई दूसरी तरफ निकल जाती है। और जगह इतनी कम कि दो बसों का भी आगे-पीछे खड़ा हो पाना मुश्किल। यह निजीकरण की अलग ही कस्बाई तस्वीर थी।

बहरहाल वहां अवाम-ए हिंद अखबार के स्थानीय प्रतिनिधि वाज़िद अली साहब हम लोगों का इंतजार कर रहे थे। उनके हम लोगों से जुड़ने के रिश्ते की दो और कड़ियों के रूप में मित्र और पत्रकार धीरेश सैनी और उनके परिचित स्थानीय पत्रकार संदीप शामिल थे।वहां से वाज़िद साहब अपनी बाइक से हम दोनों को लेकर एक ऐसे सफर पर निकल गए जो हम लोगों के लिए बिल्कुल नया था। तीन लोगों के एक साथ सवारी के मसले पर किसी एतराज से बेफिक्र वाज़िद ने भीड़ भरे रास्ते और कई गलियों से गुजरते हुए बाइक एक जगह ले जाकर रोक दी। सामने एक पुराना अधखुला हवेलीनुमा दरवाजा था। पता चला कि यह किराना घराने से ताल्लुक रखने वाले अब्दुल वाहिद खां का घर है।

उस्ताद वाहिद अली खां का पुश्तैनी मकान।

कैराना और किराना घराने के बीच का रिश्ता

बताया गया कि अब्दुल वाहिद खां साहब और किराना घराने के जन्मदाता अब्दुल करीम खां के बीच जीजा-साले का रिश्ता था। और अब्दुल वाहिद खां ने भी कई शिष्यों को संगीत की शिक्षा दी थी जिन्होंने न केवल अपना बल्कि पूरे घराने का नाम दुनिया में रौशन किया। यहां उनकी मौजूदा पीढ़ी के लोग रहते हैं। और उसी में पास खड़े एक पतले युवक ने बताया कि “मैं उनका पोता हूं”। बहरहाल वह उनके बारे में ज्यादा जानकारी देने की स्थिति में नहीं था। लेकिन इसकी कमी मौके पर मौजूद एक बुजुर्ग ने पूरी कर दी। मोहम्मद मुस्तफा ने बताया कि “मशहूर गायक मोहम्मद रफी यहां आए थे। इतना ही नहीं वहीद खां ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ विदेश की कई यात्राएं की थीं”। और इन यात्राओं के दौरान वहीद खां ने विदेशों में अपने संगीत का हुनर दिखाया था। लेकिन यह उस घराने से परिचय की शुरुआत भर थी। लिहाजा पूरा जानने के लिए हम लोगों को असली ठिकाने की तलाश थी। जो वहीद खां की हवेली से महज एक फर्लांग दूर जाने पर पूरा हो गया। यह एक शख्स को पैदा करने वाली वह जगह थी जिसने संगीत का एक पूरा घराना ही पैदा कर दिया। उस शख्स का नाम था अब्दुल करीम खां। और उन्होंने जिस घराने को पैदा किया उसका नाम रखा ‘किराना घराना’। यह उन्होंने कैराना के नाम पर रखा।

अब्दुल करीम खां की पैदाइश 1872 की थी और बताया जाता है कि 7-8 साल का होने पर ही उन्होंने संगीत की बुनियादी समझ हासिल कर ली थी। जिसमें गीत और वाद्य दोनों शामिल थे। उनके जीवन परिचय के मुताबिक 20 साल की उम्र में शादी होने के साथ ही उन्होंने कैराना छोड़ दिया। इसके पीछे शायद उनकी उम्मीदों के मुताबिक उनकी संगीत साधना का न हो पाना प्रमुख वजह थी। यहां से जाने के बाद वह जयपुर, मैसूर और बड़ौदा राजघराने से जुड़े।

 और वहां रहकर संगीत के अपने ‘किराना घराने’ को समृद्ध किया। जिसमें खयाल गायकी, ठुमरी, दादरा, भजन और मराठी नाट्य संगीत गायन आदि क्षेत्र शामिल हैं। और फिर अपने समेत अब्दुल वहीद खां, सारंगी वादक शकूर खां, अब्दुल लतीफ, मजीद खां और मशकूर खां सरीखी एक लंबी विरासत पैदा की। इसके साथ ही इस घराने ने देश में उन विभूतियों को पैदा किया जिन्होंने देश और दुनिया में संगीत को नई बुलंदियां दीं। इसमें मल्लिका-ए-तरन्नुम बेगम अख्तर, भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी, मोहम्मद रफी, खय्याम, मन्ना डे, माणिक वर्मा, पद्म विभूषण प्रभा आत्रे, प्रवीण सुल्ताना, सलमा आगा समेत तमाम शख्सियतों की लंबी फेहरिस्त है।

पुराना मकान

बहरहाल अब उस्ताद करीम खां की पुरानी हवेली तो नहीं रह गयी है। उसकी जगह सफेद सीमेंटेड मकान ने ले ली है। लेकिन उसे भी यहां तक का रास्ता तय करने में प्रधानमंत्री आवास योजना का सहारा लेना पड़ा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उनकी खुशबू यहां से चली गयी है। या फिर उस विरासत को कोई छीन सकता है जिसको इस जगह ने पैदा की है।

लेकिन शायद इस बात का रंज हमेशा बना रहेगा कि उसकी कीमत न तो कैराना के लोगों ने समझी और न ही सूबे और देश में मौजूद सत्ता ने। क्योंकि इस घराने और उसके जन्मदाता को समर्पित न तो यहां कोई स्मारक है और न ही कोई दूसरी उसकी पहचान। लिहाजा ‘किराना घराना’ कैराना में लोगों की जुबान और कुछ टूटी-फूटी कहानियों में ही जिंदा है। लेकिन बाहर यह कितना मजबूत है। उसकी एक नहीं अनगिनत बानगियां हैं। मौजूदा समय में उस घर में रहने वाले अयाज अहमद खुद को उस्ताद करीम खां के दधियाल पक्ष से बताते हैं।

पकी दाढ़ी उनकी ढलती उम्र की बयानी कर रही थी लेकिन गला उनके खून में संगीत की ताज़गी का गवाह था। जिसे उन्होंने हम लोगों के सामने खुद लिखी अपनी एक गजल के चंद मिसरे बेहद सुरीले अंदाज में पेश कर साबित भी कर दिया। और फिर इसी बातचीत में उन्होंने बताया कि “अब्दुल करीम खां और उनकी पत्नी के कोई बच्चा नहीं था।” उनका कहना था कि मल्लिका-ए-तरन्नुम बेगम अख्तर के परिवार से उनका बेहद नजदीकी रिश्ता था। और बाद में वह उनकी शिष्या बनीं। क्या विडंबना है। बेगम अख्तर की पैदाइश फैजाबाद की थी जिसका नाम बदलकर योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या कर दिया और मौजूदा गृहमंत्री चुनाव प्रचार में जब कैराना आते हैं तो उन्हें करीम खां की हवेली नहीं बल्कि समाज में बंटवारे को और तीखा करने वाले कथित पलायन वाले घर याद आते हैं।

लेकिन ये नहीं जानते कि संगीत की विरासत किसी राजनैतिक कृपा की मोहताज नहीं होती। यह तमाम सीमाओं को भी पार कर जाती है। भला 20वीं सदी की शुरुआत में कैराना और कर्नाटक का आपस में क्या रिश्ता हो सकता है? एक उत्तर भारत का तकरीबन गुमनाम कस्बा? तब शायद कैराना कस्बा भी न रहा हो! दूसरा दक्षिण का एक सूबा। दोनों के बीच दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं। लेकिन उस्ताद करीम खां का बनाया एक गीत कर्नाटक के एक गांव के पास स्थित एक ग्रामोफोन की दुकान पर बजता है। ब्रज पर लिखे इस गीत को सुनने के लिए अपने घर से स्कूल निकला एक बालक रोजाना वहां खड़ा हो जाता है।

नया मकान।

वह बालक कोई और नहीं बल्कि भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी थे। संगीत के प्रति उनका रुझान उसी गीत को सुनने के बाद हुआ। और बचपन में ही उन्होंने संगीत की शिक्षा लेने का प्रण ले लिया। जिसका नतीजा यह रहा कि वह घर से भाग गए। और उस कड़ी में बगैर टिकट उन्होंने पहले पुणे और फिर ग्वालियर की रेल यात्रा की। दो साल रहने के बाद जब वह घर वापस लौटे तो संगीत के प्रति अपने बच्चे की रुझान देख कर उनके घर वालों ने बाकायदा संगीत की शिक्षा दिलवाने में उनकी भरपूर मदद की। इन्हीं पंडित भीमसेन जोशी को बाद में भारत रत्न से नवाजा गया। लेकिन जोशी ने भी कभी अपने गुरू और उनकी धरती को नहीं भुलाया। और वह सम्मान दिया जिसके वो हकदार थे। बताया जाता है कि 1970 में जब वह कैराना आए तो उन्होंने न केवल करीम खां की इसी हवेली के दरवाजे पर गायन किया बल्कि हवेली पर श्रद्धा स्वरूप रुपये भी चढ़ाये।

मशहूर गायक मन्ना डे 1964 में जब एक संगीत समारोह में हिस्सा लेने कैराना आए तो उन्होंने अपना चप्पल कार में रख दिया और नंगे पैर कैराना की सड़कों पर चले। पूछने पर उन्होंने कहा कि यह गुरु की धरती है भला चप्पल पहन कर हम कैसे उनकी शान में गुस्ताखी कर सकते हैं? यह हर संगीतकार के लिए तीर्थ के समान है। लेकिन मौजूदा सत्ता ने सम्मान करने को कौन कहे अपनी घृणा और नफरत को फैलाने के लिए उसे अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया है। क्योंकि सियासत को संगीत नहीं अपनी सत्ता प्यारी होती है। और उसे हासिल करने के लिए वह समाज तो क्या भाई-भाई को आपस में लड़ाने के लिए तैयार हो जाती है।

अनायास नहीं संगीत के जरिये प्रेम और भाईचारा बांटने वाले ‘किराना घराने’ की धरती सांप्रदायिक खूनी जंग का केंद्र बन गयी है। बहरहाल किराना घराने की विरासत न तो खत्म हुई है और न ही उसकी ताकत में कमी आयी है। कोलकाता से लेकर दिल्ली और मुजफ्फरनगर से लेकर मुंबई तक फैले इसके तमाम वारिस उसको संभाले हुए हैं। इसमें किसी को राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजा जा चुका है तो किसी ने टीवी में चल रहे टैलेंट शो में अव्वल आकर अपनी प्रतिभा साबित किया है। अयाज खां ने बताया कि कोलकाता में रहने वाले मशकूर अली खां संगीत रिसर्च अकादमी में प्रवक्ता हैं तो दिल्ली में रहने वाला एक वारिस अपना संगीत का विद्यालय चला रहा है। इस परिवार की नयी पौध भी इस मामले में पीछे नहीं है।

मुजफ्फरनगर में रहने वाले जैद अली ने सोनी टीवी के टैलेंट शो में किराना घराने को उस समय बुलंदियों पर पहुंचा दिया जब अपने गाने मौला-मौला के जरिये उसने सामने मौजूद जजों अलका याज्ञनिक, कुमार सानू और उदित नारायण को नतमस्तक कर दिया। इसलिए कैराना को भी निराश होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि नफरत और घृणा की उम्र ज्यादा नहीं होती। अंत में जीतता प्रेम और भाईचारा ही है। इसलिए अंधेरे की इन काली ताकतों को भी आज नहीं तो कल कथित पलायन के कैराना नहीं बल्कि प्रेम और सद्भाव के ‘किराना घराने’ के सामने सजदा होना ही पड़ेगा।

(कैराना से आजाद शेखर के साथ महेंद्र मिश्र की रिपोर्ट।)

महेंद्र मिश्र
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