Friday, March 29, 2024

ग्राउंड रिपोर्ट पार्ट-2: जोशीमठ की दरारें कैसे बनीं ‘द लास्ट लीफ़’?

ओ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’तो सबने पढ़ी होगी। कहानी में एक लड़की जॉन्सी को निमोनिया हो जाता है और वो रोज़ अपने कमरे से एक बेल के गिरते पत्तों को देखती है। उसे लगता है जिस दिन आखिरी पत्ता गिरेगा, वो दिन उसकी ज़िंदगी का भी आखिरी दिन होगा।

धीरे-धीरे दरक रहे जोशीमठ की गलियों में घूमते हुए आपको ऐसा लगेगा कि आप जॉन्सी के गांव ग्रीनविच में हैं। यहां भी भोर होते ही लोग सबसे पहले अपने घरों के दीवारों की दरारों को देखते हैं और पाते हैं कि इनकी चौड़ाई बढ़ रही है, कहानी में बेहराम नाम के एक बूढ़े कलाकार ने बेल के आखिरी पत्ते को दीवार पर पेंट कर बीमार लड़की की जान बचा ली थी। लेकिन जोशीमठ के लोग जानते हैं उनकी कहानी में ऐसा कोई कलाकार नहीं, जो उन्हें उनकी जड़ों से उखड़ने से बचा ले।

एकाएक लोगों को घर बार छोड़ने के लिए कह दिया गया है। सालों-साल बसाई गृहस्थी को एकाएक कैसे शिफ्ट किया जा सकता है ? वो समझ नहीं पा रहे हैं। कितना सुंदर लेकिन अभिशप्त शहर है ये, आधे सीमेंट और आधे काठ के बने घर, सुंदर अलसाई सी गलियां जिन्हें हिमालय दूर से ताक रहे हैं। ऐसे सुंदर मुहल्लों की सड़कों पर लोगों के घरों के फ्रिज, टीवी, पलंग, बर्तन कमर पर लादे लोग चलते दिख जाएंगे।

जोशीमठ से पलायन

हालांकि ये शिफ्ट करना नहीं बल्कि उखड़ना है। उखड़ने की ये प्रक्रिया सड़कों की आबोहवा को तो असहज कर ही रही है, सामान को ताकने वाले पड़ोसियों को भी जैसे चिढ़ा कर कह रही है। आज हमारी बारी है तो कल तुम्हारी होगी।

इसी माहौल में हमें यहां के सिंहधार मुहल्ले में रहने वाले गौरव मिले, वो अपने छोटे से पुश्तैनी घर के बाहर खड़े थे। गौरव देहरादून से पढ़ाई कर जोशीमठ इसलिए लौटे थे कि अपने घर पर ही स्टार्ट-अप करेंगे, अपने पुरखों की ज़मीन पर ही बस जाएंगे, लेकिन नहीं मालूम था कि जोशीमठ उन्हें इस
तरह छोड़ना पड़ेगा।

वो बोले- मैं सुबह उठा तो देखा कि घर की दरारें और चौड़ी हो गई हैं, परिवार के सारे लोग ऊपर शिफ्ट हो चुके हैं। मुझे भी रात में यहां सोते डर लगता है। जानता हूं कि आज या कल में मुझे भी घर छोड़ना पड़ेगा, इस उम्मीद के साथ आया था कि पुरखों की ज़मीन पर नया काम काज शुरू करेंगे, लेकिन अब तो रहने तक का ठिकाना नहीं।

गौरव

जोशीमठ का मेन बाज़ार यूं तो किसी भी पहाड़ी कस्बे का आम बाज़ार ही लगता है, लेकिन ये बाज़ार आज का नहीं है, गढ़वाल हिमालय का गज़ेटियर लिखने वाले अंग्रेज अफ़सर एचची वॉल्टन ने अपने 1910 के ब्यौरे में इस बाज़ार का ज़िक्र एक संपन्न बाज़ार की तरह किया है। उस विवरण के मुताबिक कभी यहां तिब्बत के व्यापारी भी व्यापार करने आया करते थे।

बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी के लिए रास्ता इसी जगह से निकलता है तो बर्फ देखने की चाह में औली जाने वाले पर्यटक भी यहीं रुकते हैं, ज़ाहिर है शहर की इकोनामी का इंजन पर्यटन ही है, लेकिन दरारें सामने आने के बाद ये इंजन ठप हो गया है।

बाज़ार में दुकानदार खाली बैठे हैं और झुंडों में बात करते दिख जाते हैं। 65 साल के कमल किशोर अपनी फोटोकॉपी करने की दुकान पर बिना बोहनी के बैठे हैं, वो कहते हैं पहाड़ पर तो वैसे ही रोज़गार नहीं है, लड़कों के पास नौकरियां कहां है, कोई घर चलाने के लिए छोटी सी दुकान खोले बैठा है तो कोई उस दुकान में काम कर रहा है, यहां से जाने के बाद परिवार समेत भूखों मरना पड़ेगा।

कमल किशोर

ऐसा ही डर रमेश डीमरी भी जता रहे हैं, बाज़ार में उनकी ज्वेलर्स की दुकान है, 30 साल से दुकानदारी कर रहे श्रीराम बता रहे हैं कि ऐसा कभी नहीं देखा, वो कहते हैं- किसी के पास काम नहीं है। बोहनी करना मुश्किल है। टूरिस्ट बिल्कुल नहीं हैं, ठंड के सीज़न में लोग औली में बर्फ देखने आते थे, अब सब ठंडा है। सरकार लोगों को यहां से हटा रही है लेकिन कोई बताए कि अगर यहां से हटेंगे तो करेंगे क्या।

रमेश डीमरी

दरअसल सबसे ज्यादा मार टूरिज्म से जुड़े काम-धंधों पर ही पड़ी है। होटल और रेस्टोरेंट वाले अपनी प्रॉपर्टीज़ खाली कर रहे हैं, सीज़न होने के बावजूद पर्यटक पूरी तरह गायब हैं। सिंहधार में दिलबर सिंह कुंवर अपने घर में ही होमस्टे चलाते हैं। परिवार में बेटा और बहू है, जिनके दो छोटे बच्चे भी हैं। बेटा अनूप टैक्सी का काम करता है।

इनका पूरा परिवार टूरिस्टों की आवाभगत से ही चलता है। वो निराश आंखों से कहते हैं कि-”घर में किसी के पास स्थाई रोज़गार नहीं है, अभी हमारा घर सेफ़ ज़ोन में है लेकिन कभी ना कभी तो ये घर छोड़ना ही पड़ेगा, ऐसे में हमें घर नहीं, रोज़ी रोटी का इकलौता सहारा भी छोड़ना पड़ेगा”।

दिलबर सिंह कुंबर

करनजीत सिंह सालों से मेन बाज़ार में चश्मे की दुकान चला रहे हैं। रोज़ी-रोटी और गृहस्थी सब यहीं है।वो यहां किराए पर रहते हैं और कहते हैं कि उनका संकट दोहरा है। वो बताते हैं कि- किराएदारों के लिए तो सरकार के पास कोई योजना है ही नहीं। ज़िंदगी के इस पड़ाव पर फिर से सबकुछ बसाना पड़ेगा, पता नहीं हो पाएगा कि नहीं। फिलहाल तो किराए के जिस घर में रह रहे हैं उस में रहते हुए ही डर लग रहा है कि कहीं गिर ना पड़े।

करनजीत सिंह

कुछ ऐसा ही संकट रमेश का भी है। जोशीमठ बाज़ार के जिस कोने में वो बैठे हैं उस पर नज़र पड़ने के बाद आपकी नज़रें वहीं ठहर जाएंगी। वो जूते मरम्मत करने का काम करते हैं और उस माइलस्टोन की आड़ में बैठे हैं जिस पर नीचे पीपकोटी और ऊपर गाज़ियाबाद की दूरी लिखी है।

रमेश

40 साल पहले बिजनौर से रोजी-रोटी कमाने आए रमेश को अब उसी जगह वापस जाना होगा, जिसे छोड़कर वो खाने-कमाने जोशीमठ आए थे। वो कहते हैं- काम काज तो ठप है ही, साथ में डर के मारे नींद नहीं आ रही, भूख भी गायब हो गई है, अब जल्द वापस बिजनौर चले जाएंगे।

4 दशक से ढाबा चला रहे दिलबर सिंह के हाथ परांठा सेंकने के इतने अभ्यस्त हैं कि वो हमसे बात करते करते, परांठे भी सेंक रहे हैं। आदतन हाथ तवे पर बिना मेहनत ही चल रहे हैं, लेकिन ये पूछे जाने पर कि ढाबा बंद होने पर वो क्या करेंगे? उनकी आवाज़ में वो ठहराव नहीं दिख पाता। चेहरे पर चिंता की लकीरें आती हैं और कहते हैं- नहीं पता, यही सोचते हैं तब की तब देखेंगे।

दिलबर सिंह

हर शहर के बाज़ार में एक चौक मज़दूरों का भी होता है। जोशीमठ में भी ऐसे कुछ लोगों से मुलाकात हुई जो नेपाल से मज़दूरी करने जोशीमठ आए हैं। उनमें से एक दल बहादुर कहते हैं कि- शहर में फिलहाल इतनी अस्थिरता है कि सारे काम ठप हैं, सिर्फ शिफ्टिंग का काम चल रहा है, मैं सालों से यहां काम कर पेट भर रहा हूं।

ये पूछने पर कि क्या वो वापस नेपाल जाएंगे, वो जवाब में कहते हैं- इतना आसान नहीं है, अगर वहां पेट भर लेते तो यहां क्यों आते? हालत ये है कि जाना भी आसान नहीं, रहना भी आसान नहीं।

दल बहादुर

जोशीमठ में फिलहाल एक साथ बहुत कुछ दिख रहा है। लोग इस त्रासदी के बीच और भी बहुत कुछ देखने को मजबूर हैं। वो मुख्यमंत्री की पूजा देख रहे हैं। सरकार की उदासीनता देख रहे हैं और घरों की रोज़ चौड़ी होती दरारें भी देख रहे हैं। कहते हैं ज्यादा अनुभव इंसान को शब्दहीन बना देता है।

इसी उजड़ते बाज़ार में मुझे साहित्यकार उदय प्रकाश की कहानी मैंगोसिल भी याद आ गई, कहानी में एक किरदार है सूरी, जिसे ‘मैंगोसिल’ नाम की लाइलाज बीमारी है। मर्ज ये है कि बच्चे का सिर रोजाना अपने आप बड़ा होता रहता है। डॉक्टरों के पास बीमारी का कोई इलाज नहीं।

जादुई यथार्थवाद से जुड़ी इस कहानी का एक कोना, एक मेटाफर से भी जुड़ा है, जिसके मुताबिक सूरी रोज अपने आस-पास इतना गलत होते देखता है कि उसका सिर इन नकारात्मक घटनाओं को इकट्ठा करता रहता है, जो उसके सिर के आकार के बढ़ने की वजह बनती है।

जोशीमठ की दरारें
जोशीमठ की तस्वीर

जोशीमठ में पान की गुमटी चला रहे एक शख्स (नाम उनके कहने पर छुपाया गया है) को देखकर मैंगोसिल याद आ गई। मैंने विस्थापन से जुड़ा एक सवाल जब उनसे पूछा, तो वो पहले बिना अखबार से आंखें हटाए चुपचाप सुनते रहे। फिर ठंडी, खामोश निगाहों से मुझे देखा और एक सांस में बोलते चले गए।

उन्होंने कहा- मुझे इस बाज़ार में पान की दुकान चलाते 44 साल हो गए हैं। मैं साठ का हूं, अब कहां
जाऊंगा। घर में दोनों बच्चे बेरोज़गार हैं, सरकार क्या नौकरी दे सकती है किसी को, सब तमाशा हो रहा है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा क्या हो रहा है। कभी लगता है कि ज़हर खा लूं। ना मुझे परेशानी, ना सरकार को… वो कह देगी कि आत्महत्या कर मर गया।

पान की दुकान चलाने वाले सख्स

इतना बोल वो फिर चुप हो गए। सूरी के सिर की लाइलाज बीमारी मुझे उनकी आँखों में दिख गई, जिनमें कहे जाने के लिए इतना कुछ था कि बयां नहीं हो सकता था। इसीलिए वो खामोश हो गए थे। दरअसल वो जोशीमठ की एंट्री के उस कोने में बैठे हैं जहां से वो सब कुछ देखते हैं, टीवी चैनलों के कैमरे, राजनेताओं का आना-जाना। वीवीआईपी सेक्युरिटी का कारवां और धूल उड़ाती गाड़ियों का गुबार। अपनी छोटी सी गुमठी में बैठे वो खुद की और जोशीमठ की सच्चाई देखते हैं और फिर वो सब भी जिसे वो तमाशा कहते हैं।

(जोशीमठ से अल्पयू सिंह की ग्राउंड रिपोर्ट)

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