Saturday, April 20, 2024

अमेरिका बनाम चीनः लोकतंत्र पर छिड़ा वैचारिक संग्राम

अमेरिकी राजनीति-शास्त्री फ्रांसिस फुकुयामा की मशहूर किताब ‘The End of History and the Last Man’ 29 साल पहले प्रकाशित हुई थी। उसके एक साल पहले यानि 1991 में सोवियत संघ का विखंडन हुआ था। उसके पहले 1989 में फुकुयामा ने ‘The End of History?’ शीर्षक के साथ एक लेख लिखा था। उसी साल बर्लिन की दीवार गिरी थी, जिसे सोवियत खेमे के अंत का प्रतीक समझा गया था। तो कुल मिला कर सोवियत समाजवादी व्यवस्था के ढहने से उत्साहित फुकुयामा ने यह घोषणा कर दी थी कि अब इतिहास का अंत हो गया है। यानि सोवियत संघ की समाप्ति के साथ ही इतिहास का वह (वैचारिक और वर्ग) संघर्ष खत्म हो गया है, जिससे मानव सभ्यता अपने विकासक्रम में एक से दूसरे युग में पहुंचती रही है।

फुकुयामा ने लिखा- ‘यह मानवता के वैचारिक विकासक्रम का अंतिम बिंदु है। यह पश्चिमी उदारवादी लोकतंत्र का सार्वभौमिकरण (universalization) है, यही मानव शासन व्यवस्था का अंतिम रूप है।’ स्पष्टतः फुकुयामा की दलील थी कि समाजवादी राज्य-व्यवस्था के खत्म होने के बाद अब पश्चिमी ढंग का पूंजीवादी लोकतंत्र अकेला ऐसा विकल्प बचा है, जिसे देर-सबेर दुनिया के सभी देश अपना लेंगे। फुकुयामा ने जिस समय यह दावा किया, उस समय न सिर्फ सोवियत संघ बिखर गया था, बल्कि चीन की समाजवादी व्यवस्था भी लड़खड़ाती हुई लग रही थी। चीन बाजारवादी अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ा चुका था और यह माना जा रहा था कि देर-सबेर वह पश्चिमी ढंग की राजनीतिक व्यवस्था को भी अपना लेगा।

यह सच है कि उसके बाद से लेकर इस वर्ष तक किसी दूसरी व्यवस्था या देश ने पश्चिमी पूंजीवादी लोकतंत्र के सामने कोई ठोस वैचारिक चुनौती पेश नहीं की। सांस्कृतिक या परंपराओं के आधार पर इस्लामी व्यवस्थाएं जरूर पश्चिमी उसूलों को अस्वीकार करती रहीं, लेकिन सामाजिक-आर्थिक विकास की आधुनिक कसौटियों पर पश्चिमी व्यवस्था को चुनौती देने में वे कभी सक्षम नहीं दिखीं। इस बीच चीन, क्यूबा, वियतनाम आदि में कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता कायम रही। लेकिन वैचारिक संघर्ष के मोर्चे पर वहां की सत्ताधारी पार्टी और सरकारें बचाव की मुद्रा में ही नजर आती रहीं। कई लैटिन अमेरिकी देशों- खासकर वेनेजुएला, बोलिविया और निकरागुआ- में इस दौरान समाजवादी पार्टियां सत्ता में आईं। उन्होंने कुछ खास सफल प्रयोग भी किए। लेकिन अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों ने लोकतंत्र और मानव अधिकारों के मुद्दों पर ऐसा प्रचार युद्ध छेड़े रखा, जिसके बीच अक्सर उन्हें भी बचाव की मुद्रा अपनाने को मजबूर होना पड़ा। 

इस रूप में लगभग तीन दशक तक पश्चिमी पूंजीवादी लोकतंत्र को वैश्विक मुख्यधारा विमर्श में कोई चुनौती मिलती नजर नहीं आई। लेकिन 2021 में आकर सूरत बिल्कुल बदल गई है। वैसे ऐसा होने के संकेत 2020 में ही मिलने लगे थे, लेकिन इस वर्ष चीन ने पश्चिमी ढंग के लोकतंत्र की उपयोगिता और प्रासंगिकता को जैसी वैचारिक चुनौती दी है, वैसा कभी होगा, इसका अंदाजा भी पश्चिम में हाल तक बहुत कम लोगों रहा होगा। वैसे जिन लोगों को वहां ऐसा होने का कुछ आभास हुआ, उनमें एक प्रमख नाम फुकुयामा का ही है। 2018 अपनी नई किताब Identity: The Demand for Dignity and the Politics of Resentment में फुकुयामा ने यह स्वीकार कर लिया था कि उनकी तीन दशक पहले की भविष्यवाणी गलत साबित हो गई है। लेकिन इसकी वजह उन्होंने दुनिया में अपनी पहचान की बढ़ी मांग (demand for recognition) को माना। उन्होंने identity (अस्मिता) के सवाल को आधुनिक समय की मुख्य अवधारणा (master concept) बताया और कहा कि पश्चिम उदारवादी लोकतंत्र के लिए ये अवधारणा प्रमुख चुनौती बन कर उभरी है।

इस मौके पर यह याद करना प्रासंगिक होगा कि पूरे 1990 के दशक में फुकुयामा की तब की किताब खास चर्चा में रही। पश्चिमी बुद्धिजीवी और नेता अक्सर इसका हवाला देते रहे। end of history बहुचर्चित जुमला बना रहा। लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक में जब खुद पश्चिमी व्यवस्थाएं उथल-पुथल का शिकार होती दिखीं, तो वहां के बुद्धिजीवियों को यह अहसास होने लगा था कि अपने ‘लोकतंत्र’ की सर्वोच्चता के उनके भरोसे की जमीन हिल रही है। फुकुयामा ने 2018 की अपनी किताब में कहा- वैश्विक उदारवादी व्यवस्था के प्रति तमाम मौजूदा असंतोष के पीछे कारण पहचान की मांग हैः व्लादीमीर पुतिन, ओसामा बिन लादेन, शी जिनपिंग, ब्लैक लाइव्स मैटर, #MeToo, समलैंगिक विवाह, आईएसआईएस, ब्रेग्जिट, उभर रहा यूरोपीय राष्ट्रवाद, आव्रजक विरोधी राजनीतिक आंदोलन, यूनिवर्सिटी कैंपस की राजनीति, और डॉनल्ड ट्रंप के निर्वाचन को उन्होंने इसी वजह से पैदा हुए असंतोष का परिणाम माना।

संभवतः पश्चिमी उदारवादी बौद्धिक विमर्श में प्रशिक्षित होने की वजह से फुकुयामा की दृष्टि नव-उदारवाद के गहराते बुनियादी संकट तक नहीं पहुंच सकी। इसी वजह से वे और ज्यादातर दूसरे पश्चिमी बुद्धिजीवी यह देखने में अक्षम बने रहे हैं कि जिस आर्थिक व्यवस्था पर उनका उदारवाद और लोकतंत्र टिका है, उसने कैसे खुद अपने को संकटग्रस्त कर लिया है। हालांकि इस संकट के लक्षण पहले भी जाहिर हो रहे थे, लेकिन 2020 में कोविड-19 महामारी ने इसे पूरी तरह बेनकाब कर दिया। फुकुयामा और दूसरे पश्चिमी बुद्धिजीवी अपनी उसी ट्रेनिंग के कारण चीन के उदय और उसके पीछे के मूलभूत कारण को भी समय पर नहीं पहचान पाए।

दरअसल, पश्चिमी लोकतंत्र का संकट इस मौके पर इसलिए भी बेनकाब हो गया है, क्योंकि राजनीतिक संगठन के अपने एक अलग सिस्टम के साथ चल रहे चीन ने महामारी को अधिक कुशलता और कम इंसानी नुकसान के साथ अब तक नियंत्रित किए रखा है। अपनी जनता को सुरक्षित रखने में वियतनाम और क्यूबा की अपेक्षाकृत बेहतर सफलता ने भी पश्चिमी उदारवाद की कमजोरियों को उजागर किया है।

इस पृष्ठभूमि में सबसे बेहतर शासन व्यवस्था के रूप में पश्चिमी उदारवादी लोकतंत्र के दावे को देर-सबेर चुनौती मिलनी ही थी। लेकिन पश्चिमी देशों- खासकर अमेरिका ने अपनी इस कमजोरी या नाकामी पर आत्म-निरीक्षण करने के बजाय उलटे जिस तरह चीन के खिलाफ एक नए तरह के शीत युद्ध की शुरुआत कर दी है, उसने इस प्रक्रिया को तेज कर दिया है। नतीजा यह है कि 2021 की समाप्ति से पहले ही चीन ने लोकतंत्र और मानव अधिकार जैसे मुद्दों पर जवाबी हमला बोल दिया है। हालांकि 2020 में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने जब चीन के खिलाफ कई तरह के व्यापार प्रतिबंध लगाने के साथ-साथ सामरिक मुद्दों पर भी मुहिम छेड़ी, तभी से चीन ने इस बहस की शुरुआत कर दी थी, लेकिन इसे एक पूरे वैचारिक संग्राम का रूप देने के लिए उसे मौका वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने दिया है।

बाइडेन ने 2020 में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के समय ही यह वादा किया था कि अगर वे जीते, तो अपने कार्यकाल के प्रथम वर्ष में ही ‘summit of democracies’ (लोकतांत्रिक देशों के शिखर सम्मेलन) का आयोजन करेंगे। लेकिन तब यह समझा गया था कि ट्रंप के कार्यकाल में जिस तरह अमेरिकी लोकतंत्र के लिए चुनौतियां खड़ी हुईं, उससे परेशान बाइडेन लोकतंत्र की कसौटियों पर नीचे जा रहे देशों के नेताओं के साथ बैठ कर उन परिघटनाओं की चर्चा करेंगे, जिनकी वजह से इन देशों में ऐसा प्रतिगामी दौर आया है। इसके विपरीत राष्ट्रपति बनने के बाद बाइडेन ने प्रस्तावित शिखर सम्मेलन को ‘तानाशाही व्यवस्था वाले देशों’ (मतलब चीन और रूस) के खिलाफ ‘लोकतांत्रिक देशों’ (मतलब जिन देशों को अमेरिका अपने खेमे में मानता है) की गोलबंदी का मौका बना दिया। अब ये शिखर सम्मेलन वर्चुअल माध्यम से 9 और 10 दिसंबर को होने जा रहा है, जिसमें भारत समेत 110 देशों को आमंत्रित किया गया है।

चीन ने उचित ही यह समझा कि ये शिखर सम्मेलन असल में उसे घेरने की अमेरिकी रणनीति का हिस्सा है। तो इस मौके पर रक्षात्मक होने के बजाय उसने आक्रामक रुख अपनाया है। इस मौके पर चीन ने आधिकारिक रूप से दो लंबे दस्तावेज जारी किए हैं। साथ ही चीनी मीडिया पर लोकतंत्र के प्रश्न पर बहस छेड़ दी गई है। चीनी विश्वविद्यालयों से जुड़े थिंक टैंक्स ने इस मौके पर विशेष दस्तावेज या पुस्तिकाएं प्रकाशित की हैं। चीन का एक आधिकारिक दस्तावेज ‘चीनः एक कारगर लोकतंत्र’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इसमें चीन ने अपनी व्यवस्था को ‘समग्र प्रक्रिया लोकतंत्र’ (whole process democracy) कहा है। उसने कहा है कि इस व्यवस्था के केंद्र में आमजन हैं और यह व्यवस्था लोगों के लिए काम करती है। चीन का दूसरा आधिकारिक दस्तावेज ‘अमेरिका में लोकतंत्र की स्थिति’ है। इसमें अमेरिकी लोकतंत्र की कमियों और संकट का विस्तार से वर्णन किया गया है।

सोवियत संघ के दौर में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन प्रमुख जोसेफ स्टालिन ने दावा किया था कि समाजवाद ही लोकतंत्र का सर्वोत्तम प्रकार है। चीन अपनी व्यवस्था को ‘चीनी प्रकार का समाजवाद’ कहता है। लेकिन इस बहस में उसने इस उल्लेख पर जोर नहीं दिया है। बल्कि उसने अपनी व्यवस्था को समग्र प्रक्रिया लोकतंत्र कहते हुए उसे अमेरिकी शैली के लोकतंत्र से बेहतर साबित करने की कोशिश की है। इस दलील को चीन की रेनमिन यूनिवर्सिटी में स्थित थिंक टैंक चोंगयांग इंस्टीट्यूट फॉर फाइनेंशियल स्टडीज ने अपनी पुस्तिका में सूत्रबद्ध किया है। उस पुस्तिका का नाम ही ‘अमेरिकी लोकतंत्र से दस सवाल’ रखा गया है। ये सवाल हैः

●         अमेरिकी लोकतंत्र बहुसंख्यक जन के लिए है या मुट्ठी भर लोगों के लिए?

●         अमेरिका में अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था सत्ता को संतुलित करती है या सत्ता के दुरुपयोग को बढ़ावा देती है?

●         व्यवस्था लोगों के कल्याण के लिए है या उनकी मुसीबत बढ़ा रही है?

●         अमेरिकी व्यवस्था स्वतंत्रता की रक्षा करती है या उसमें बाधक बन रही है?

●         वह मानव अधिकार का संरक्षण करती है या उसका उल्लंघन?

●         अमेरिकी व्यवस्था जनता में एकता की भावना को बढ़ाती है या बंटवारे की भावना को?

●         वह सपनों (American dream) को साकार कर रही या दुःस्वप्न बन गई है?

●         अमेरिकी लोकतंत्र ने राष्ट्रीय शासन व्यवस्था में सुधार किया है या सिस्टम को नाकामी की तरफ ले गया है?

●         अमेरिकी व्यवस्था दूसरे देशों में विकास और समृद्धि का स्रोत है या विनाश और उथल-पुथल का?

●         अमेरिका विश्व शांति और विकास की रक्षा कर रहा है या अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की अनदेखी कर रहा है?

दस्तावेज में इन सवालों के नकारात्मक जवाब के पक्ष में अनेक तर्क और संदर्भ स्रोतों का उल्लेख किया गया है। 

अपनी व्यवस्था की खूबियां बताते हुए चीन ने अपने यहां गरीबी मिटाने और महामारी को नियंत्रित रखने में मिली सफलताओं का खास जिक्र किया है। जबकि दूसरे दस्तावेज में अमेरिकी में मौजूद नस्लभेद और राजनीतिक ध्रुवीकरण का उल्लेख किया है। साथ ही इस साल छह जनवरी को कैपिटॉल हिल (अमेरिकी संसद भवन) पर हुए ट्रंप समर्थकों के हमले का जिक्र किया गया है और उसे अमेरिका में बढ़ रहे उथल-पुथल का संकेत बताया गया है।

जाहिर है, अमेरिका की तरफ से आयोजित summit of democracies में तानाशाही और मानव अधिकार की चर्चा करते हुए चीन (साथ ही रूस और ईरान जैसे अमेरिका विरोधी देशों) को निशाना बनाया जाएगा। लेकिन उससे पहले ही चीन ने यह साफ कर दिया है कि इस वैचारिक संग्राम में वह रक्षात्मक मुद्रा में नहीं है। संभवतः चीन का यह आकलन है कि अपनी व्यवस्था की श्रेष्ठता का दावा करने और अपने तथ्य और तर्कों को प्रचारित करने का अनुकूल मौका उसके पास है। उसने अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और वैक्सीन सहायता के जरिए दुनिया भर में अपने लिए समर्थक देशों की कतार खड़ी कर ली है। उसने एशिया से अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक के देशों के सामने पश्चिमी देशों के दबदबे से निकलने का एक मौका पेश किया है। इस बीच उसने अपने प्रचार माध्यम को भी सशक्त किया है, जिससे वह दुनिया भर में अपनी बात पहुंचाने में सफल हो रहा है।

दूसरी तरफ पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था 13 साल से संकटग्रस्त है। उनके स्वास्थ्य तंत्र और इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमजोरियां अब खुल कर दुनिया के सामने आ चुकी हैं। ऐसे में चीन ने उनके सैनिक और तकनीकी वर्चस्व को चुनौती देने के बाद अब वैचारिक और नैतिक मोर्चे पर भी उनका आमना-सामना करने का फैसला कर लिया है।

इस नई बनी स्थिति का परिणाम यह होगा कि दुनिया में फिर से वैचारिक विभाजन तीखा हो जाएगा। पिछली बार यह तीखा वैचारिक विभाजन पश्चिमी देशों और सोवियत संघ के बीच टकराव से पैदा हुआ था। तब पश्चिमी उदारवाद की जीत हुई। लेकिन इस बार पश्चिम के लिए स्थितियां अनुकूल नहीं हैं। नए वैचारिक संग्राम (और शीत युद्ध) का क्या परिणाम होगा, इसकी भविष्यवाणी तो अभी नहीं की जा सकती, लेकिन मुमकिन है कि पश्चिमी देश लोकतंत्र और मानव अधिकारों को उस तरह का कारगर हथियार ना बना पाएं, जैसा वे पिछले शीत युद्ध के समय करने में सफल रहे थे। तब ये हथियार सोवियत खेमे को परास्त करने में काफी उपयोगी साबित हुए। लेकिन इस बार पश्चिम के हाथ में ये हथियार कुछ जंग खाये हुए नजर आ रहे हैं, जबकि चीन इनकी नई और अलग परिभाषा के साथ आक्रामक मुद्रा अपनाने में फिलहाल सफल होता दिख रहा है। 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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