Friday, March 29, 2024

इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और मोदी ने फिर उन्हें कॉरपोरेट को सौंप दिया

19 जुलाई के दिन को भारतीय बैंकिंग के इतिहास में एक सुनहरा दिन के तौर पर याद किया जाता है। 51 वर्ष पहले इसी दिन देश के 14 प्राइवेट बैंकों का इंदिरा गाँधी सरकार के शासन में राष्ट्रीयकरण किये जाने की घोषणा की गई थी।

इसी को ध्यान में रखते हुए आज के दिन ही बैंकों के सबसे बड़े कर्मचारी यूनियन आल इंडिया बैंक एम्पलाइज एसोसिएशन (एआईबीईए) की ओर से देश के बैंकों की बदहाली पर एक विस्फोटक सामग्री देश के सामने रखी जानी थी, लेकिन फिर कायर्क्रम में एकाएक बदलाव कर इसे एक दिन पहले अर्थात 18 जुलाई 2020 के दिन ही रिलीज कर दिया गया।

एआईबीईए ने शनिवार को प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से उन विलफुल डिफाल्टरों की सूची जारी कर दिया, जिन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का 1,47,350 करोड़ रुपया दबा लिया और अब चुकाने का नाम नहीं ले रहे हैं। एआईबीईए के अनुसार विलफुल डिफाल्टर की लिस्ट को सार्वजनिक तौर पर जारी करने के पीछे देशहित पर हो रहे कुठाराघात को किसी भी तरीके से रोकने का मकसद था। उन्होंने मांग की है कि इन विल्फुल डिफाल्टर को चुनावों में भाग लेने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए और ना ही किसी भी प्रकार के सार्वजनिक पदों पर इन्हें बैठाया जाना चाहिए। 

अपने विस्तृत बयान में AIBEA के राष्ट्रीय महासचिव सीए. वेंकटचलम ने मांग की है कि बैंकों को अपने सभी डिफाल्टर के नामों को उजागर करना चाहिए और इन सभी से वसूली के लिए कड़े से कड़े कदमों को तत्काल उठाने के साथ-साथ जानबूझकर बैंकों के पैसे को मारने को आपराधिक कृत्य के तौर पर देखा जाना चाहिए। AIBEA ने इस बात पर भी जोर दिया कि भारतीय बैंकों में कुल जमा धनराशि 138 लाख करोड़ को पार कर चुकी है और आम जन की खून पसीने की बचत बैंकों में सुरक्षित है।

अपने बयान में AIBEA ने कहा है, “आज देश के कोने-कोने में सार्वजनिक बैंकों का जाल फ़ैल चुका है। आज सभी व्यावसायिक बैंकों में कुल जमा राशि 138 लाख करोड़ से अधिक की हो चुकी है। आम जन की गाढ़ी कमाई का पैसा बैंकों में पूरी तरह से सुरक्षित है।”

AIBEA की जारी लिस्ट के अनुसार 30 सितम्बर, 2019 तक सार्वजनिक बैंकों के पास विल्फुल डिफाल्टर के कुल 2426 मामले थे, जिनमें इन बैंकों का कुल 1,47,350 करोड़ रूपये फंसे हुए हैं। यह सूची उन लोगों की है, जिन्होंने 5 करोड़ से ऊपर की धनराशि चुकता नहीं की है और इनके खिलाफ मामला न्यायालय में चल रहा है। इस लिस्ट में बहुचर्चित एनपीए श्रेणी को शामिल नहीं किया गया है। ज्ञात हो कि एनपीए की सूची में देश के कई नामी गिरामी कॉर्पोरेट शामिल हैं, और यह रकम 10 लाख करोड़ रूपये से ऊपर की बैठती है। एनपीए की सूची में अनिल अम्बानी समूह, अडानी ग्रुप, वीडियोकोन जैसे बड़े कॉर्पोरेट घराने शामिल हैं।

AIBEA द्वारा जारी इस सूची में जिन बैंकों का सबसे अधिक पैसा विल्फुल डिफाल्टर की श्रेणी में आया है उसमें भारतीय स्टेट बैंक सर्वप्रथम है। एसबीआई का कुल 43,887 करोड़ रूपये विल्फुल डिफाल्टर की श्रेणी में डूबा हुआ है, वहीं पंजाब नेशनल बैंक का 22,370  करोड़ और बैंक ऑफ़ बडौदा का 14,661 करोड़ रूपये बकाया है।

जिन कुल 2426 मामलों की सूची जारी की गई है, उनमें से 1365 मामले तो इन तीन बैंकों से ही सम्बद्ध हैं। जिन 33 चोटी के डिफाल्टरों के नाम इस सूची में हैं, उन्हें 500 करोड़ रुपयों से अधिक का बकाया देना है, जो कुल रकम 32,737 करोड़ बैठती है। इन नामचीन डिफ़ॉल्टरों में गीतांजली जेम्स, किंगफ़िशर एयरलाइन्स, रूचि सोया, रोटोमैक, स्टर्लिंग आयल रिसोर्सेज मुख्य हैं।

विल्फुल डिफाल्टर और बढ़ता एनपीए का संकट 

ज्ञात हो कि बैंकों के यूनियन की ओर से की गई इस घोषणा से एक दिन पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत और बैंकों के एनपीए को लेकर आरबीआई के पूर्व गवर्नर और आईएमएफ के मुख्य अर्थशास्त्री रहे रघुराम राजन की ओर से दी गई चेतावनी आर्थिक जगत की मीडिया में सुर्ख़ियों में थी। ये वही लब्धप्रतिष्ठ अर्थशास्त्री हैं, जिन्हें 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बारे में सबसे पहले और सटीक भविष्यवाणी के लिए जाना जाता है। इसके बाद ही यूपीए द्वितीय शासनकाल में रघुराम राजन को भारतीय रिज़र्व बैंक की सेवाओं के लिए तीन साल के लिए नियुक्त किया गया था, जिसे आमतौर पर 5 साल का करार कर दिया जाता है, लेकिन बीच में ही 2014 में एनडीए की सरकार के चलते, यह सेवा विस्तार नहीं मिला था, और राजन वापस विदेश चले गए थे।

बैंकिंग सेक्टर में अंदर ही अंदर दीमक की तरह कॉर्पोरेट और सत्ताधारी दलों की साठ गांठ में जिस प्रकार से लूट का क्रम चल रहा था और जिसमें बैंकों के उच्चाधिकारी पूरी तरह शामिल थे यह राजन के काल में ही संभव हो पाया था कि उसमें पारदर्शिता लाने के लिए आरबीआई की ओर से सख्त दिशानिर्देश दिए गए थे। तयशुदा समय पर हजारों करोड़ के लोन की रकम को न चुकाने के बाद भी बैंक अपने खातों में उसे बनाये हुए था, और एक तरह से बट्टे खाते की रकम को आगे हर साल सरकाते हुए अपनी वित्तीय स्थिति को लगातार स्वस्थ दिखाने का कार्यक्रम जोर-शोर से जारी था। इस बीच में जब राजन के शासन में रोक लगाई गई, तो देश का ध्यान इस पर गया था। लेकिन तत्कालीन एनडीए सरकार और वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ चली तनातनी और उस बीच कुछ नामी गिरामी कॉर्पोरेट हस्तियों के देश छोड़कर विदेशों में भाग जाने की घटनाएं सुनने में आने लगी थीं। 

इस एनपीए की बीमारी की पहचान करने, विल्फुल डिफाल्टर की सूची जारी करने और उन तमाम तरीकों को अपनाकर अधिकतम कर्जों की वसूली कर बैंकिंग ढाँचे को दुरुस्त करने का जो काम 2014 से 2019 के एनडीए के प्रथम काल में किया जा सकता था, वह रद्द कर दिया गया था। राजन के जाने के तीन महीनों के भीतर ही देश में इन सभी कामों पर पटाक्षेप करते हुए नोटबंदी की अचानक से घोषणा ने देश के समूचे आर्थिक परिदृश्य को ही बदलकर रख डाला था। यह कुछ इस प्रकार का था कि मरीज के टायफायड का इलाज चल रहा था, और बीच में उसे ठीक करने के बजाय बता दिया जाए कि उसे तो कैंसर भी है, और सारे इलाज को छोड़ देश कैंसर से निपटने में जुट गया।

लेकिन लाखों करोड़ का काला धन मिलना तो दूर रहा, पता चला कि जो काला धन था वह तो अब कहीं था ही नहीं, बल्कि तकरीबन सारा ही नकदी मुद्रा बैंकों में वापस आ चुकी थी और सरकार ने जिस 4 लाख करोड़ नकदी के बैंकों में न आने और उसे छाप कर, इस बीच बैंकों की बदहाली और एनपीए से थोड़ी राहत की सोची थी वह कहीं से होती नजर नहीं आई। इस प्रकार हम यदि गहराई से चिन्तन करें तो न हम बैंकों की खस्ताहाल होती बीमारी को लेकर कोई कारगर कदम उठा सके, और ना ही काले धन से कोई लड़ाई ही लड़ सके। उल्टा अब लाखों करोड़ नकदी पर काम कर रहे छोटे और मझोले उद्योग धंधे बंद हो चुके थे, लाखों की संख्या में लोग बेरोजगार हुए और अर्थव्यवस्था में नकदी का प्रवाह धीरे धीरे फिर से इंजेक्ट करते हुए फिर बेतलवा डाल पर वाली हालत में पहुंच गया था। 

2015 से लेकर 2017-18 के दौरान ही तकरीबन 9 लाख करोड़ के एनपीए की बात सामने आ चुकी थी। इस सप्ताह की शुरुआत में ही राजन ने एक बार फिर से इस बढ़ते संकट की ओर देश का ध्यान आकृष्ट किया है। इंडिया पालिसी फोरम 2020 एक दिल्ली आधारित थिंक टैंक के तत्वाधान में आयोजित वर्चुअल सेशन में रघुराम राजन ने चेताया है कि भारत में एनपीए में “अभूतपूर्व वृद्धि” अगले 6 महीनों में देखने को मिलने जा रही है। उन्होंने कहा है “एनपीए/बट्टे खाते का स्तर अगले छह महीने में इतने उच्च स्तर पर पहुँचने जा रहा है कि उससे पार पाना काफी मुश्किल हो सकता है। हम संकट में हैं और जितनी जल्दी हम इसकी शिनाख्त कर लें, वह बेहतर होगा।” 

रघुराम राजन की इस टिप्पणी के निहितार्थों को समझने की जरूरत है। आज के दिन में इसे घरेलू अर्थव्यवस्था में कोविड-19 को लेकर बन रही घोर अनिश्चितता के सन्दर्भ में समझने की जरूरत है। कोई भी रेटिंग एजेंसी, विश्लेषक या बैंक प्रबंधन-इस बात को लेकर निश्चित नहीं है कि वास्तव में भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है। भारतीय बैंक पिछले दशक के एनपीए के दुश्चक्र से अभी निपट नहीं सके हैं, लेकिन एक बार फिर से बड़े झटके के लिए उन्हें तैयार होना पड़ रहा है।

इसी के चलते कई बैंकों ने कोरोना वायरस महामारी से होने वाले संभावित नुकसान को कवर करने के लिए अग्रिम प्रावधान का इंतजाम कर रखा है। एक्सिस बैंक ने कोरोना संकट के मद्देनजर 3,000 करोड़ रुपये दिए, कोटक महिंद्रा ने 650 करोड़ रुपये, बंधन बैंक ने लगभग 1769 करोड़ रुपये और आईसीआईसीआई बैंक ने 2725 करोड़ रुपये दिए। वहीं भारतीय बैंकों को अपने जिन कर्जों को राईट ऑफ करना था वह फिलहाल आरबीआई द्वारा घोषित अधिस्थगन के तहत है, जिसे छह महीने के लिए रोक कर रखा गया था, और अगले महीने उसकी अवधि समाप्त होने जा रही है। ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं कि इस प्रकार के ऋणों की संख्या ही अपने आप में 8 लाख करोड़ रुपये के कर्जों की है, जो अगले महीने की स्थगन की अवधि समाप्त होने के बाद खुलकर सामने आ जायेगी।

तमाम आर्थिक विश्लेषकों का मानना है कि इस अधिस्थगन के चलते बैंकों की खस्ता हालत का सटीक अनुमान लगा पाना बेहद मुश्किल है, अकेले भारतीय स्टेट बैंक के खाते में 5.63 लाख करोड़ रुपये के ऋण को राईट ऑफ करने का प्रावधान है। और इससे निपटने के लिए तमाम बैंक पूंजी को बढ़ाने की जुगत में हैं, लेकिन अगर इन ऋणों में से 5-10 प्रतिशत भी एनपीए घोषित कर दिए जाते हैं तो बैंकिंग सेक्टर की स्थिति बेहद तनावग्रस्त होने की आशंका है।

निजी बैंकों ने पहले से ही इस खतरे को भांप लिया है और यही वजह है कि वे पूंजी जुटाने की होड़ में हैं। आईसीआईसीआई बैंक, एचडीएफसी बैंक, एक्सिस बैंक और यस बैंक सहित कई निजी बैंकों ने पर्याप्त पूंजी का स्तर अपने पास होते हुए भी पूंजी जुटाने की योजनाओं की घोषणा कर रखी है। विश्लेषकों ने इसे आंशिक रूप से पोस्ट मॉर्टोरियम अवधि में संपत्ति की गुणवत्ता के आघात की अपेक्षा को जिम्मेदार ठहराया है।

एचडीएफसी बैंक ने हाल ही में कहा कि उसने असुरक्षित ऋण उपकरणों, टीयर II पूंजी बांड और घरेलू बाजार में दीर्घकालिक बांड के माध्यम से 50,000 करोड़ रुपये तक जुटाने की योजना बनाई है। आईसीआईसीआई बैंक की शेयरों या इक्विटी-लिंक्ड प्रतिभूतियों के माध्यम से पूंजी के रूप में 15,000 करोड़ रुपये जुटाने की योजना है। वहीं एक्सिस बैंक ने 15,000 करोड़ रुपये तक जुटाने की योजना बनाई है और यस बैंक, जिसे हाल ही में बैंक कंसोर्टियम द्वारा जमानत पर बने रहने की मियाद मिली है, का लक्ष्य 15,000 करोड़ रुपये के फॉलो-ऑन पर काम करने का है। तमाम सरकारी बैंकों सहित अन्य बैंक इसी तरह पूंजी संधान की तलाश में हैं।

देश के आर्थिक हालातों पर यदि थोड़ा भी बारीक़ी से मुआयना करें तो एनपीए पर रघुराम राजन की चेतावनी की महत्ता को समझना जरा भी मुश्किल नहीं है। कोरोनावायरस महामारी के चलते मोदी सरकार द्वारा एक झटके में थोपे गए लॉकडाउन के चलते उत्पादन के साथ-साथ उपभोक्ता मांगों में भी लॉकडाउन लग गया था, जिसमें दो महीने बाद सुधार की तमाम कोशिशों के बावजूद हालात पटरी पर नहीं आ रहे हैं। ऐसे में मुद्रास्फीति के बढ़ने और टैक्स वसूली में गिरावट ने सांप छछूंदर वाली स्थिति को पैदा कर दिया है। करोड़ों लोगों के पास बेरोजगारी और छंटनी का संकट छाया हुआ है, आधी तनख्वाहों पर ज्यादातर लोग जी रहे हैं। ऐसे में सरकार के खजाने में इनकम टैक्स या जीएसटी संग्रह का अनुमान स्वतः लगाया जा सकता है।

और इस सबका सीधा असर राज्य संचालित सार्वजनिक बैंकों पर सबसे अधिक पड़ने वाला है, जो अपने अस्तित्व के लिए सरकार की दया पर निर्भर हैं। ऐसे में सरकार के खुद के पास संसाधन अधिकाधिक सीमित होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अपनी घोषित कॉर्पोरेट परस्त नीतियों के चलते उसके पास उन पर कड़ाई से पेश आने का साहस पहले से काफी कम हो चुका होना बेहद स्वाभाविक है। निजी बैंक तो अपनी सुरक्षा को लेकर अभी से चाक चौबंद हो रहे हैं, ऐसे में सार्वजनिक बैंकों के कर्मचारियों, ट्रेड यूनियनों द्वारा उठाया गया यह कदम बेहद जरूरी लेकिन काफी देरी से उठाया गया कदम है।

अप्रैल 2019 के दौरान ही सुप्रीम कोर्ट ने आरटीआई अधिनियम के तहत विल्फुल डिफ़ॉल्टरों की लिस्ट को आरबीआई से खुलासा करने के लिए कहा था और इसे ‘एक आखिरी अवसर’ करार दिया था। कुछ नामों को आरबीआई द्वारा जारी भी किया गया था, लेकिन आम चुनावों की गहमागहमी और उसके बाद देश में एक के बाद एक राजनैतिक दांव पेंचों के जरिये देश लगातार इन प्रश्नों को पीछे छोड़ता आया था, क्योंकि यह बात भी उसी दौरान खुलकर सामने आ चुकी थी कि देश पिछले 45 वर्षों में बेरोजगारी के सबसे भयावह दौर से गुजर रहा है, और नई सरकार बनने के 3 महीने बाद ही देश के सामने सारी स्थिति खुलकर सामने आने जा रही है। लेकिन उस बात को भी एक साल बीच चुके हैं। हम एक के बाद एक झटके सहते हुए अब कोविड-19 महामारी के वैश्विक संकट को छाती पर एक चोट की तरह लिए घूम रहे हैं, लेकिन स्थितियां अभी तक पूरी तरह से खोलकर नहीं रखी गईं हैं। 

समझदार चूहे पहले से ही डूबते जहाज से कूद कर भाग चुके हैं। जिनके पास क्रोनी कैपिटल की अपनी पकड़ बनी हुई है, वे इस आपदा में अवसर तलाशते हुए खुद की स्थिति पहले से काफी मजबूत करते जा रहे हैं। बैंकों के एनपीए और डिफाल्टरों की बढ़ती तादाद ने देश के आर्थिक तंत्र को पूरी तरह से खोखला कर डाला है। 19 जुलाई 1969 के दिन का सामयिक महत्व इसी सन्दर्भ में है। एक झटके में तब की इंदिरा सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके इस बात के संकेत दिए थे कि इस बात को तय करना अभी भी सरकार के हाथ में है कि देश कॉर्पोरेट के इशारे पर चलेगा या अधिकाधिक आम नागरिकों के हितों को लेकर केंद्र की सरकार जिम्मेदार रहेगी।

आज इंदिरा के समय से भी दस गुना छाती कूटने का दौर चल रहा है, लेकिन वास्तव में देश के सार्वजनिक बैंकों, रेलवे, एयर इंडिया, कोयला खदान, बीएसएनएल जैसे तमाम सार्वजनिक उद्यमों को ही नहीं बल्कि बीपीसीएल एवं एलआईसी जैसी मुनाफा देने और हर साल सरकार को दसियों हजार करोड़ का शुद्ध लाभ देने वाली नवरत्न कम्पनियों को कॉपोरेट और विदेशी संस्थागत पूंजी के हाथ कौड़ियों के भाव बेचने को मजबूर सरकार खड़ी है, जिसके खिलाफ विपक्षी दल और प्रभावित समुदाय जिनमें लाखों कर्मचारी भी शामिल हैं सिर्फ ट्वीट या औपचारिक प्रतीकात्मक विरोध से काम चला रहे हैं। इसे सिर्फ एक विडम्बना ही कह सकते हैं, क्योंकि हम देश प्रेम और जनता के लिए लड़ने की बात तो छोड़िये अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए भी सकुचा रहे हैं।

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र लेखक हैं। और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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