Wednesday, April 24, 2024

दमनकारी तंत्र के खिलाफ़ एक काउंटर तंत्र खड़ा करना होगा: नितिन राज

अपनी तीसरी जेल यात्रा में 66 दिन गुज़ारकर जमानत पर बाहर आये छात्र नेता नितिन राज ने जेल यात्रा से लेकर देश, समाज, विचार और राजनीति समेत कई मुद्दों पर अपनी बातें खुलकर रखी हैं। बता दें कि नितन राज छात्र संगठन आइसा से जुड़े हुए हैं और लखनऊ यूनिवर्सिटी का छात्र रहते हुए पिछले साल लखनऊ के घंटाघर पर हुए सीएए विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया था। आंदोलन में हिस्सा लेने के चलते उन्हें गिरफ्तार किया गया था, हालांकि कोविड-19 महामारी के चलते 15 दिन बाद ही वो पैरोल पर छूट गये थे। इसके बाद 12 जनवरी 2021 को उन्हें फिर से गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया। लगातार जमानत याचिका खारिज होने और 66 दिन जेल में बिताने के बाद 18 मार्च 2021 को नितिन राज जमानत पर बाहर आये हैं। इससे पहले मई 2017 में लखनऊ यूनिवर्सिटी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को काला झंडा दिखाने के बाद 12 छात्रों समेत नितिन राज को गिरफ्तार करके 14 दिन की न्यायिक हिरासत में जेल भेजा गया था। तब भी उन्होंने 27 दिन जेल में काटे थे।

दिन में कई बार याद दिलाया जाता है कि आप अपराधी हैं

यातना के 66 दिन याद करते हुए नितिन कहते हैं शुरु में ये पीड़ादायी थे। वहां पर आपको बार-बार ये याद दिलाया जाता है कि वहां आपके कोई अधिकार नहीं हैं। वहां आपको कुत्ते बिल्ली की तरह सोचा जाता है जिन्हें हांक दिया जाएगा। जहां आपको बोल दिया जायेगा उधर मुड़ना है, जहां बोला जायेगा वहीं बैठना है। अगर हम कुछ दावा करते हैं बताने की कोशिश करते हैं तो पहले तो अनसुना कर दिया जाता है लेकिन बाद में कुछ सुना भी जाता है। लेकिन उस प्रक्रिया में 4-5 दिन बीत जाते हैं।

जेल में कंडीशनिंग कैसे की जाती है। इस सवाल पर नितिन बताते हैं कि जेल के गेट से अंदर घुसते ही आपको इस तरह से देखा जाता है जैसे आप दुनिया का सबसे संगीन गुनाह करके आये हैं। आपको वहां लगातार ये एहसास दिलाया जाता है कि आप लोकतंत्र से अलग हैं। आपने कोई अपराध किया है और आप अपराधी हैं। आपके पूरे कपड़े उतरवाकर जांच की जाती है। शरीर में यहां वहां हाथ लगाया जाता है। ये बहुत अमानवीय प्रक्रिया होती है। इनसे गुज़रते ही आपको एहसास होता है कि आप अपराधी हैं और उनके सामने निरीह भी। खाना भी बहुत खराब क्वालिटी का दिया जाता है। रोटी या तो जली होती है या फिर कच्ची।

नितिन आगे बताते हैं कि जेल में आपको सुबह साढ़े छः बजे तक उठना होता है। यदि आप नहीं उठते हो तो आपको डरा दिया जाता है। यदि आप नहीं उठोगे तो आपकी पेशी होगी, लाठियां पड़ेंगी। तो इस तरह से मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार किया जाता है आप अपनी स्वतंत्रता को खो चुके हैं। आप जितनी जल्दी ये स्वीकार कर लो उतना ठीक है। आप ये भूल जाओ की अब आप एक नागरिक की हैसियत से हैं। तो जेल के अंदर आपको कोई अधिकार नहीं मिलता। वहां मानवाधिकार जैसी चीज़ें काम नहीं करती जो आपको सुरक्षा दे सकें।

नितिन आगे बताते हैं कि आपको वहां पर कर्टेल्मन्ट किया जाता है। आप किसी के अधीन हो ये बात बार-बार बताई जाती है, एहसास कराया जाता है। दिन में तीन बार गिनती की जाती है। एक बार सुबह उठने के बाद, फिर खाने से पहले और तीसरी बार सोने से पहले गिनती होती है। इस तरह आपके अस्तित्व को गिनती में रिड्यूस कर दिया जाता है।

नितिन जेल के हालात पर आगे बताते हैं कि आप कोई शिक़ायत भी करना चाहें तो आपके खिलाफ़ इतना कुछ बोल दिया जाता है कि आप वो भी नहीं कर सकते। कर्टेल किया जाता है कि आप स्वतंत्र रूप से उठ बैठ नहीं सकते। कहीं आ जा नहीं सकते। जब वो कहेंगे, जब देंगे तभी खाना खाना है। रात का खाना कई बार पांच बजे ही मिल जाता है। आपको भूख हो न हो लेकिन आपको तभी खाना है।

जेल का समाजशास्त्र

नितिन बताते हैं कि जेल का अपना समाज है। जो अपनी ही तरह से बर्ताव करता है। डीपी एक्ट के बारे में वहां एक धारणा ये है कि यदि आप इस एक्ट में आये हैं तो फर्जी ही आये होंगे। जेल में जो 376 की धारा में जाते हैं उनके बारे में सिपाही तक की राय होती है कि बलात्कार करके ही आया है। जबकि कई मामलों में मैंने पीड़ितों से बात की तो पाया कि लड़का लड़की रिलेशनशिप में थे। लड़की के मां बाप ने दोनो को अलग करने के लिए रेप और किडनैपिंग का फर्जी केस करवाकर उन्हें अंदर करवा दिया। जो लोग प्रेम में जेल गये होते हैं उनके खिलाफ़ कई सारे ऐसे मुकदमें लड़की के घर वाले दायर करवा देते हैं जैसे कि किडनैपिंग और रेप। जिससे प्रेम रुक जाये। मैंने कई लोगों से बात की कि उन पर क्या बीती प्रेम करके समाज के फ्युडल सिस्टम से टकराने के बाद। सिपाही नंबर दार ऐसे लोगों को बिल्कुल गलत तरीके से बर्ताव करते हैं।

नितिन बताते हैं कि जैसे समाज में फ्युडल लोग हैं उसी तरह के लोग जेल में भी मिलते हैं। वहां के सिपाहियों और नंबरदार बनाये गये क़ैदियों से ये व्यवहार देखने को मिलता है। लखनऊ जेल में राजनीतिक क़ैदियों को भी आपराधिक क़ैदियों की भांति ट्रीट किया जाता है। मैंने अनुभव किया है कि सत्ता परिवर्तन होने पर जेल जैसे संस्थानों में भी असर पड़ता है। जेल में और भी कई सारी दिक्कतें हैं।

नितिन राज बताते हैं कि करीब एक सप्ताह लग जाता है वहां के कैदियों से संवाद स्थापित करने में। वहां कुछ लोग आपको समझते हैं कुछ नहीं समझते। कई क़ैदी समझते हैं सारे लोग कैदी ही हैं। लेकिन कुछ समझते हैं नहीं राजनैतिक कैदी है तो कुछ अलग करके आया है। लेकिन फिर धीरे-धीरे लोगों का व्यवहार बदलता है। मैंने वहां पर कोई दोस्त भी बनाये।  मैंने जेल की ज़िदगी के बारे में जाना। कि खाने से लेकर सोने तक में क्या-क्या होता है वहां। खाने पीने का एक फिक्स समय होता है। 

जेल संरचना के बाबत नितिन बताते हैं कि उन्हें 10 दिन क्वारंटीन में रखने के बाद दूसरे सर्किल में भेज दिया गया। जेल में सर्किल हैं। उन सर्किल में सेमीसर्किल हैं। उन्हीं में रहना है। उन सेमी सर्किल के भीतर 8 बैरक होते हैं। बैरक एक हॉल होता है। एक हॉल में 40-50 लोगो को रखा जाता था।

जेल जाने के बाद क्या बदलाव आया

जेल जाने के पहले और जेल में 66 दिन बिताने के बाद के नितिन में क्या फर्क है। इस सवाल के जवाब में नितिन कहते हैं कि 66 दिन जेल में बिताने के बाद अब मैं ज़्यादा मेच्योर हो गया हूँ। पहले मैं लोगों के दर्द को कम समझता था अब ज़्यादा समझने लगा हूँ। हालांकि दो बार पहले (27 दिन और 15 दिन के लिए गया था)। पहली बार जब गया तो कई साथी भी साथ थे। तब हमें एक अलग बैरक ही दे दिया गया था। तब सरकार भी नई-नई आयी थी। लेकिन अभी सत्ता का दमन जेल में भी दिखाई देता है।

नितिन बुलंद आवाज़ में कहते हैं बावजूद इसके मेरा हौंसला नहीं डिगा। बल्कि अब ज़्यादा मजबूत और परिपक्व हुआ है। मुझे अब लगता है कि समाज में ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिन्हें बदलने की ज़रूरत है। काम करने की ज़रूरत है। लेकिन इस लड़ाई को कोई अकेला आदमी लड़कर परिवर्तन नहीं कर सकता है। संघर्ष और आंदोलन एक लंबी प्रक्रिया है जिसमें सभी को एक साथ लेने की ज़रूरत है।

ये संस्थानिक हमले का दौर है

मौजूदा सत्ता के दमनकारी हमलों पर बात करते हुए नितिन बताते हैं इस समय जो हमले हो रहे हैं वो संस्थानिक हमले हो रहे हैं। जैसे कि पुलिस एक संस्था है, और पुलिस आंदोलनकारियों पर कैसे हमले कर रही है फर्जी मुठभेड़ में मार रही है, फर्जी केस बनाकर लंबे मियाद तक जेल में रखने की तिकड़म कर रही है। वैसे ही न्यायपालिका एक संस्था है जिसने बार-बार मेरी जमानत याचिका खारिज करके दमन को मान्यता दी। जेल भी एक संस्था है जहां मेरे साथ अपराधी जैसा बर्ताव हुआ। तो ये सारी संस्थाएं व्यक्तियों को कर्टेल करने, दमन करने में लगी हुई हैं। तो ये संस्थायें मिलकर जो तंत्र बनाती हैं उससे एक अकेला इंसान नहीं लड़ सकता है।

दमनकारी तंत्र का मुक़ाबला करने के लिए एक अलग तंत्र खड़ा करने की बात पर ज़ोर देते हुए नितिन कहते हैं कि इस दमनकारी तंत्र के खिलाफ़ भी एक तंत्र खड़ा करना होगा। इन सब चीजों से लड़ने के लिए आपको ऐसे लोगों का साथ चाहिए जोकि एक बराबर समाज बनाने की ओर अग्रसर हों।

दलित, मुस्लिम स्त्रियां विशेष निशाने पर हैं

नितिन बताते हैं कि मैं पुलिस के टारगेट पर थे। पुलिस मुझे बार-बार उठा रही थी। अपराध पूछने पर कहती थी तुमने शांति भंग की है। या कहती कि वहां महिलाओं का कार्यक्रम है तुम नहीं जा सकते। मुझे ये न बताना कि क्यों गिरफ्तार किया गया है इससे साबित होता है कि मैं पुलिस मुझे पहले से ही टारगेट करके रखे हुए थी।

नितिन मौजूदा सरकार के ब्राह्मणवादी चरित्र की शिनाख़्त करते हुए कहते हैं दलित, मुस्लिम स्त्री व छात्र इस सरकार में निशाने पर हैं। सरकार को लगता है कि सबसे ज़्यादा चुनौती इन्हीं से मिलने वाली है। उनको लगता है दलित अगर सशक्त हो जाएगा तो वो उत्पीड़न किसका करेंगे। और अगर उत्पीड़न नहीं करेंगे तो खुद को महान कैसे समझेंगे, साबित करेंगे। तो जब आप खुद को महान बता रहे होते हो तो आपकी महानता किसी न किसी के उत्पीड़न में छुपी होती है। दलितों के उठ जाने से उनको अपनी महानता खो जाने का डर है। उसी तरह महिलाओं के उठने से भी उनको डर है कि अगर महिलायें उठ जायेंगी तो जो पुरुषों की सत्ता है, उनका जो ये कहना है कि पुरुष ज़्यादा मजबूत होती है, महिलायें नहीं। तो महिलाओं के प्रति शोषण का एक ज़रिया उन्होंने सदियों में बनाया है, वो खत्म हो जायेगा। औरत द्वारा उनकी सत्ता को चुनौती देना ये उन्हें स्वीकार नहीं है। तो स्त्री और दलित से उन्हें ज़्यादा भय लगता है। और छात्र भी इनके विशेष निशाने पर हैं। लखनऊ यूनिवर्सिटी, जेएनयू, जामिया, हैदराबाद, जाधवपुर यूनिवर्सिटी, के छात्र निशाने पर थे। रोहित वेमुला, चंदा यादव, कन्हैया कुमार, और मैं। इसीलिए ये छात्रों के संस्थानों की हत्या कर रहे हैं। महिला क़ानूनों को कमजोर कर रहे हैं। आरक्षण लगातार इनके निशाने पर है। क्योंकि इनके वर्ग की महानता दूसरों के शोषण पर निर्भर है।

आइसा अन्य छात्र संगठनों से किस तरह अलग है

छात्र संगठन आइसा से अपने जुड़ाव के संदर्भ में नितिन बताते हैं कि जब लखनऊ यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया तो वहां समाजवादी छात्र सभा, एसएफआई आदि कई छात्र संगठन सक्रिय थे। लेकिन मैं आइसा की ओर आकर्षित हुआ। नितिन बताते हैं कि पहली बार जब आइसा की ओर से उन्हें मेंबरशिप ऑफर की गई तो उन्होंने मना कर दिया। तब भी AISA के लोगो नें जेंडर के मुद्दे पर एक कार्यक्रम में मुझे बुलाया। ये 2014 का साल था। आइसा के उक्त कार्यक्रम में लव-जेहाद के बहाने जेंडर के मुद्दे पर डिस्कस चल रहा था। जैसा कि मैं सोचता था, ऑनर किलिंग और लव-जेहाद जैसे मसले प्रेम जैसे से जुड़े हैं। जब अंतरजातीय शादी या प्रेम कोई करता है तो उसकी ऑनर किलिंग कर देते हैं। अंतर्धार्मिक शादी कोई करता है तो उसे लव-जेहाद कहते हैं। तो प्रेम के बारे में जो मेरी सोच थी वही मैंने आइसा में पाया। तो मैं उनकी ओर आकर्षित हुआ। मैंने देखा कि चाहे जाति का मुद्दा हो, चाहे यूनिवर्सिटी में लड़कर छात्र एडमिशन में आरक्षण लागू करवाना हो, यूनिवर्सिटी कैंपस में जेंडर संवेदनशीलता का प्रसार करना हो, फीस के मुद्दे पर बातचीत करके फीस वृद्धि वापिस करवाना हो, लाइब्रेरी खुलवाना उसका समय बढ़वाना, होस्टल में नये छात्रों को जगह दिलवाना आदि ऐसे कई मुद्दे जो मुझे दूसरे छात्र संगठनों में नहीं दिखे वो आइसा में मिला।

नितिन आगे कहते हैं कि दूसरे छात्र संगठनों में भी मैं गया पर वहाँ पर अलोकतांत्रिक व्यवहार होता है। आपको लगातार एहसास दिलाया जाता है कि आप दूसरी जाति से हैं। हर छात्र संगठन में अलग-अलग पॉवर लॉबीज दिखते हैं। आइसा में पॉवर लॉबी नहीं होता। आइसा में व्यक्तिगत स्तर पर भी आप एक दूसरे की आलोचना कर सकते हैं। किसी छात्र में यदि फ्युडलिज्म कुछ है तो आप उस पर टोक सकते हैं। सुधार करने के लिए कह सकते हैं। ये लोकतांत्रिकता वहां हैं। जाति और जेंडर जैसे संवेदनशील मुद्दे जिन पर मैं शुरु से फोकस था वो आइसा की प्राथमिकता में है। आइसा में कोशिश रहती है कि परस्पर समझदारी से समाज को अच्छा समाज बनाना और यूनिवर्सिटी कैंपस को ऐसा बनाना जो अच्छे समाज को रिफ्लेक्ट करे। तो एक अच्छा समाज बनाने, अच्छा कैंपस बनाने की सोच के साथ मैं आइसा में शामिल हुआ।

नितिन बताते हैं आइसा के पहले वो दूसरे छात्र संगठनों में भी गये थे। वो कहते हैं छात्रसभा में माहौल दबंगई और गुंडई का माहौल था। जो सामंती ठसक है उसका एहसास आपको वहां हो जाता है। यानि वहां भी वैसे लोग मौजूद हैं कि ऊपर से कोई चीज लागू कर दी जायेगी और आपको फॉलो करना है। आपको अपनी बात रखने सवाल करने की आज़ादी नहीं है। मुझे वो नहीं शूट किया तो मैं वहां से लौट आया। जबकि एसएफआई मुझे कन्वेंस नहीं कर पाया अपने साथ जाने के लिए। हालांकि मुझे बाद में पता चला कि ये सीपीएम का छात्रविंग है और इन्होंने नंदीग्राम में जो किया वो तो बहुत ही खराब था। कास्ट-क्लास को लेकर भी इनकी समझ बहुत खराब है।

वर्ग और जाति का सवाल एक दूसरे से संबंद्ध है

नितिन बताते हैं कि मार्क्सवाद की ओर मैं तब आकर्षित हुआ जब मैं वापिस अपने गांव गया किसानों से मिला, कृषि मजदूरों के प्रश्नों से जुड़कर देखा। और उस पर सीपीआईएमएल (CPI ML) का जो स्टैंड देखा वहां से मेरा रुझान मार्क्स और मार्क्सवाद में बढ़ा। वर्ग और जाति की समझदारी आपको भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझने की ज़रूरत है। जिसे सर्वहारा बोलते हैं, भारतीय परिप्रेक्ष्य में वो सर्वहारा कौन है। यदि आप इस सर्वहारा को संदर्भित करेंगे तो पायेंगे कि जो एससी एसटी है वही सर्वहारा है। तो मुझे ये हिट किया कि जो कुछ लोग क्लास और कास्ट को अलग-अलग करके दिखाना चाहते हैं। वो अलग नहीं है। ये बिल्कुल ब्लैक एंड व्हाइट नहीं है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में कास्ट और क्लास एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। ये समझना मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा। कि जाति को खत्म किये बिना क्रांति नहीं हो सकती, और जातिवाद तब तक नहीं खत्म हो सकता जब तक क्लास न खत्म हो। भारतीय परिप्रेक्ष्य में आपको समझना होगा कि दोनों की परस्पर लड़ाई ही ज़रूरी है। अगर आप क्लास और कास्ट को अलग-अलग करके लड़ेंगे तो ये सवाल तब तक रहेगा जब तक समाज में कास्ट और क्लास खत्म नहीं हो जाता। जबकि सीपीआई, सीपीआईएम ने कास्ट और क्लास को हमेशा अलग करने की कोशिश की है। इन्होंने पूरे समाज में एक बड़ा विभेद पैदा किया। और यही लोग दूसरे पोलिटिक्स को जन्म देने के लिए जिम्मेदार हैं। ये फ्युडल भी हैं। इनमें कास्ट और क्लास को लेकर जो समझ होनी चाहिए वो नहीं दिखी। तो एक वैचारिक कमी दिखाई दी। सीपीआई, सीपीआईएम से ये सवाल छूट गये तभी ये सवाल उग्र होकर आपके सामने आ रहे हैं।

नितिन कहते हैं- अंबेडकर ने हमेशा मार्क्सवाद के साथ संवाद स्थापित किया है। शुरु में वो लेबर पार्टी लेकर आये थे। क्योंकि वो समझते थे कि आर्थिक आज़ादी और समाजिक आजादी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। साथ ही होगा। आप अगर सोचें कि ये सवाल पहले हल कर लें दूसरा बाद में तो ये नहीं होगा। अंबेडकर ने दोनो सवालों के एक साथ समग्र रूप से रखा था। अंबेडकर और मार्क्सवाद के बीच में जो दूरियां बानने वाले लोग हैं वो दूसरे तरीके से बनाते हैं। सीपीआईएमएल ने ब्राह्मणवाद को अपने मैनिफेस्टों में अलग से रेखांकित किया है। महासचिव रहते हुए विनोद मिश्रा ने मैनिफेस्टों में रेखांकित करके कहा है ब्राह्मणवाद एक बड़ी जड़ है समाज में इससे हर एक जगह लड़ने के लिए कम्युनिस्टों को अलग से कार्यक्रम बनाना होगा। तभी वो हो पायेगा। मेरा मानना है कि ये इसे पहले की कम्युनिस्ट पार्टियां नहीं समझ पाईं तभी आज जातीय अस्मिता का सवाल, धार्मिक अस्मिता का सवाल, अल्पसंख्यक का सवाल अलग से खड़ा हो रहा है तो इसलिए क्योंकि आपने इसे छोड़ दिया आपने इस पर काम करने में सफल नहीं हो पाये। आज फासीवाद विचारधारा ने एक बड़ा रूप ले लिया है। इसके खिलाफ़ सबको साथ आकर काम करना होगा।

सपा बसपा ने भाजपा के लिये स्पेस तैयार किया

जाति का सवाल लेकर आते नये नेतृत्व पर नितिन राज कहते हैं – जाति का सवाल जो है जिसे लेकर नये लोग आ रहे हैं। इन सवालों के साथ एकजुटता बनाने की ज़रूरत है। सपा बसपा आदि पार्टियों ने अपनी शुरुआत इसी सवाल से की थी जो आज चंद्रशेखर आज़ाद और जिग्नेश मेवाणी उठा रहे हैं। यानि लोकल आइडेंटिटी का सवाल और समाजिक न्याय का सवाल। लेकिन इन सपा बसपा ने जिस तरीके से इन यूटर्न लेना शुरु किया, इन सवालों से दूरी बनाना शुरु किया। इनमें खनन माफिया आना शुरु हुए, इन्होंने एक जाति को मजबूत करना शुरु किया। बाकी जातियों को नेगलेक्ट कर दिया। जबकि उनको यदि शोषितों की बात करनी थी तो सभी शोषितों की बात करनी थी। यदि मुलायम यादव समाजिक न्याय की बात लेकर आये तो उन्हें सिर्फ़ यादवों की नहीं सभी पिछड़ी जातियों के बारे में सोचना चाहिए था। मायावती दलित सवाल लेकर आई तो उन्हें केवल जाटव का नहीं सभी दलितों का हित सोचना चाहिए था। जाहिर है इन लोगों से कुछ छूट गया तभी भाजपा उसमें सेंध लगाकर आज कामयाब हो पायी है।

राजनीति शोषण के खिलाफ़ बदलाव का औजार है

नितिन अराजनैतिक परिवार से निकल कर आये हैं। नितिन के तीन बार जेल जाने और दमन के बाद राजनीति को लेकर उनके परिवार की सोच बहुत नकरात्मक और आशंकाओं से भर गई है। वो बताते हैं कि जेल से निकलकर आने के बाद घर समाज की मिली जुली प्रतिक्रिया मिली। सीधे दमन देखकर घरवाले सकते में हैं। न्यायालय जैसी संस्था केवल प्रोटेस्ट के चलते एक छात्र की जमानत याचिका बार-बार खारिज कर रही थी। तो घरवालों को लगता है कि राजनीति में पड़कर खुद का कैरियर चौपट करना या खुद को खत्म कर देना ठीक नहीं हैं। मुझे लेकर घर परिवार दोस्तों में चिंता ज़्यादा है।

घरवालों का कहना है कि मैं सिर्फ़ अकादमिक पर फोकस करूँ, राजनीति छोड़ दूँ। जेल में जो हुआ वो हुआ अब उस पर इंटरव्यू वगैरह न दूँ। दोस्तों में भी यही प्रतिक्रिया है। कि ठीक किया। लेकिन अपनी और परिवार की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अकेले न करूँ कुछ। और लोगों को साथ लेकर करो। साथ में कैरियर को भी देखते रहो।

उनके लिए राजनीति क्या है इस सवाल पर नितिन कहते हैं मेरे लिए राजनीति का अर्थ है समाज में अमूलचूल परिवर्तन। जो समाज है वो एक दूसरे के शोषण पर ही निहित है। राजनीति इस शोषण को खत्म करने का औजार है। चाहे वो किसी भी तरह का शोषण हो लिंगभेद, जातिभेद, वर्णभेद चाहे वो अमीर गरीब के बीच का या धार्मिक शोषण हो। राजनीति इन सबको खत्म करने का एक मुकम्मल वीपन है। राजनीतिक एक विचार है जो कि शोषण के विचार को खत्म करके एक ऐसा विचार दे सकता है जिसमें एक ऐसा समाज बन सकता है जो कि आपसी समन्वय कायम कर सके। जहां किसी की ठसक, किसी की पॉवर किसी की महानता दूसरे के शोषण में न निहित हो।   

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