झुग्गियां नहीं, न्यायपालिका से न्याय उजड़ा है!

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न्यायमूर्ति अरुण कुमार मिश्रा सर्वोच्च न्यायालय के कार्यभार से रिटायर हो गये। जाने के पहले उन्होंने वकील प्रशांत भूषण पर अवमानना के केस की सुनवाई और सजा सुनाने वाली बेंच में रहे। इस केस में अन्य न्यायमूर्तियों की अपेक्षा उन्हें अधिक जाना गया। इस जाने जाने के पीछे भी ज़रूर कई कारण थे। बहरहाल, बुधवार को रिटायर होने के पहले 31 अगस्त को दिल्ली में रेलवे के 140 में से 70 किमी लंबे रेल ट्रैक के किनारों पर बसी 48,000 झुग्गी बस्तियों को उन्होंने हटाने (क्लीयर) का आदेश जारी किया।

औसतन एक झुग्गी में 4 से 5 लोग रहते हैं। यदि 3 भी मान लिया जाए तो उजड़ने वाले लोगों की संख्या डेढ़ लाख बैठती है। ये लोग मजदूर हैं। लाॅकडाउन की मार से अभी मजदूर उबरे भी नहीं थे, एक और मार उनके इंतजार में बैठ गई है। रेलवे को ट्रैक पर ‘साफ वातावरण’ चाहिए। न्यायमूर्ति ने साफ किया है कि ‘कोई भी राजनीति या अन्य हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए’। इस पर किसी तरह की रोक नहीं लगनी चाहिए।

आप सोच रहे होंगे न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा कितना कठोर निर्णय कर गए। जाते-जाते कम से कम डेढ़ लाख लोगों की जिंदगी एक ऐसे अंधे रास्ते पर छोड़ गये जहां ठहरने और रोजगार का कोई ठिकाना नहीं है। लेकिन इसी दौरान, दिल्ली नगरपालिका भी कम सक्रिय नहीं है। लाॅकडाउन के दौरान ही उसने लोगों को बेघर कर दिया। गुरुग्राम में भी यही अभियान जारी है। ऐसे में न्यायमूर्ति महोदय करते हैं तब क्या सिर्फ इसलिए चिंतित हुआ जाये कि वह जज होकर भी ऐसा कर गये! फिर आप यह भी सोच रहे होंगे कि वह आदमी ही ऐसा था।

लेकिन, इस आदेश में कई और भी आदेशों की परत है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब रेलवे प्रशासन शकूरबस्ती की झुग्गी बस्तियों को उजाड़ने में लगा हुआ था। वह भी भीषण ठंड के मौसम में। उस समय दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह पूछते हुए कि ‘उजाड़ने की ऐसी क्या जल्दी है?’ उस उजाड़ पर फिलवक्त रोक लगा दी थी। इन न्यायमूर्ति महोदय ने साफ कर दिया है कि उनके आदेश के खिलाफ कोई और कोर्ट स्टे नहीं दे सकता।

तो, इन झुग्गी-बस्तियों को उजाड़ना क्यों है? यह मसला शहर के पर्यावरण से जुड़ जाता है। आपको याद होगा जब भोपाल गैस कांड हुआ था। यह 1984 की बात है। दिसम्बर के महीने में मिथाइल आइसोनेट गैस ने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया और लाखों लोगों को प्रभावित किया, इसका प्रभाव अब भी जारी है। दिल्ली में सबसे पहले अनाधिकृत कालोनियों को चिन्हित किया गया। देवली से लेकर तुगलकाबाद तक फैले संगम विहार को सबसे पहले लक्ष्य किया गया। 1987 में इस विशाल बस्ती जिसमें उस समय एक लाख से ज्यादा लोग रह रहे थे, को उजाड़ने का प्रयास हुआ। उसके बाद यह ख्याल शहर के मालिकों के दिमाग में भर गया कि पर्यावरण एक बड़ा मसला है।

शहर को खतरे से बचाना जरूरी है। पीआईएल और सुओ मोटो केस लिये गए। दिल्ली मास्टर प्लान बना। ‘खतरनाक’ की श्रेणी बनी। सर्वोच्च न्यायालय ने 1996 में दिल्ली में 186 औद्योगिक इकाइयों को बंद करने का आदेश पारित किया। इसके बाद ‘प्रदूषण’ की श्रेणी आई जिसमें वायु और ध्वनि दोनों थे। वजीरपुर से लेकर हरिनगर और ‘आवासीय क्षेत्रों’ में काम कर रही फैक्टरियों को बंद करने का आदेश आया। इसके साथ ही कूड़ा, मलबा और उसके निष्पादन का सवाल आया। सन् 2000 और 2002 के बीच कोर्ट ने इनके लिए दोषी झुग्गी बस्तियों को हटाने का आदेश जारी किया। यमुना पुश्ता बस्तियों को हटाने का आदेश आया। इस दौरान माननीय कोर्ट ने स्लम की रिहाईश की ‘जेबकतरों’ से तुलना की।

इन्हें ‘अतिक्रमणकारी’, ‘कब्जा करने वाले’, ‘कानून तोड़ने वाले’ और ‘बेईमान’ जैसे शब्दों से नवाजा गया। यमुना पुश्ता से अनुमानतः 3 से 4 लाख लोगों को उजाड़ा गया और जिन लोगों के पास संपत्ति और पहचान के प्रमाण थे उस छोटे से हिस्से को शहर के बाहरी हिस्से में 22 गज के प्लाॅट में ‘बसा’ दिया गया। इन्हें उजाड़ने के पीछे यमुना नदी को साफ रखने का तर्क दिया गया था। इन्हें उस समय तीन महीने तक उन जमीनों पर कोई भी निर्माण करने से मना किया गया था। दरअसल, यह एक नये स्लम का निर्माण था।

2010 के शहरी आवास और सुधार बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार कुल 30 लाख लोग झुग्गी बस्तियों में रह रहे थे। जबकि दिल्ली मानव विकास रिपोर्ट, 2006 के अनुसार कुल आबादी का 45 प्रतिशत हिस्सा झुग्गी बस्ती में रह रही थी। झुग्गी बस्तियों को तोड़ने का सिलसिला लोगों के बसने के सिलसिले की तरह बना रहा। आज पूरी दिल्ली की आबादी लगभग 1.80 करोड़ मानी जा रही है और यह भी माना जा रहा है कि कम से कम 25 प्रतिशत हिस्सा झुग्गी बस्ती में रह रहा है। खुद म्यूनिसिपल कारपोरेशन पुनर्वास के नाम पर जेजे यानी झुग्गी-झोपड़ी क्लस्टर का निर्माण करती है। यहां के रख-रखाव को देखा जा सकता है। इसी तरह पुनर्वास कॉलोनियां भी इसी तर्ज की होती हैं।

लेकिन मसला तो अब भी वही है ‘वातावरण को साफ’ रखना। शहर को साफ रखने का तर्क दिल्ली ने आपातकाल के दौरान भी भुगता था। 1975-77 के बीच लगभग 5 से 6 लाख लोगों को उनके घरों से उजाड़ दिया गया था। तब शहर को ‘साफ’ किया जा रहा था। 1985 के बाद से ‘वातावरण साफ’ किया जा रहा है। इस दौरान ‘स्वच्छता अभियान’ भी चला और शहरों को ‘साफ’ होने का पुरस्कार भी दिया जाने लगा। लेकिन यह बात भुला दी गयी कि दिल्ली को साफ करने का जो अभियान था वह कुछ फैक्टरियों की बंदी के तुरंत बाद ही स्लम क्लीयरेंस में बदल गया। जबकि तर्क वही रखे गए।

ज्यादा दिन नहीं गुजरे जब दिल्ली के वातावरण को गंदा करने के लिए तरह-तरह की अटकलें और निष्कर्ष निकाले गये। लेकिन सबसे बड़ा आरोप पंजाब और हरियाणा के किसानों पर लगाया गया। लेकिन इस मामले में न्यायालय हस्तक्षेप करने से खुद को अलग कर लिया। दिल्ली में चल रहे अनगिनत वाहनों पर पाबंदी लगाने की बात हुई, ऑड और इवेन का खेल खेला गया। कोर्ट इस मसले से भी हाथ खींच लिया। कुछ न्यूज़ चैनलों ने तो हवाई जहाजों की तेल खपत और उससे होने वाले प्रदूषण पर भी सवाल उठाया। लेकिन बात आई और चली गयी। इस दौरान यमुना को साफ करने, उसके मद में खर्च का सवाल कोर्ट में एक ऐसे मुद्दे के रूप में दफ्न होते हुए लग रहा है मानो उसे छेड़ते ही ‘सफाई’ का जिन्न जवाब मांगने के लिए खड़ा हो जाएगा।

पर्यावरण, वातावरण, प्रदूषण, अतिक्रमण जैसी शब्दावलियों का प्रयोग जितने मनमाने तरीके से हुआ है शायद ही उतनी किसी दूसरी अवधारणा की हुई हो। और, ये सारे शब्द जब विकास के सामने खड़े होते हैं तब बौने हो जाते हैं। जब कंपनियां गरीब किसानों की जमीन हड़पती हैं तो वे जेबकतरे नहीं विकास कर रहे होते हैं। जब वे नदियों को बर्बाद कर रहे होते हैं तब वे प्रदूषण नहीं विकास कर रहे होते हैं। वे कचरों के ढेर से गांव की गांव की जिंदगी को कैंसर से भर रहे होते हैं तब वे कानून को तोड़ने वाले अपराधी नहीं विकास के दूत होते हैं।

जब वे जंगलों को खत्म कर रहे होते हैं तब वे पर्यावरण के विनाशक नहीं विकास के रक्षक होते हैं। किसान की जमीन हड़प जाने वाले विकास का झंडा उठाये घूम रहे हैं। ठीक उसी तरह जिन्होंने भोपाल गैस कांड किया, हजारों लोगों को मार डाला वे अब बिना सजा के बने हुए हैं। लेकिन उसका भुगतना अब भी जारी है। इसलिए न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा अपने आदेश में आदेशों की विशाल परत लिये हुए हैं। यह नया नहीं है। लेकिन, पहले के हर आदेश की तरह यह भी देश के नागरिक और मजदूर के जीवन, जीविका और सुरक्षा का अपमान है। यह भी संविधान के अनुच्छेद 21 की अवमानना है।

(अंजनी कुमार सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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