Monday, April 29, 2024

जोशीमठ से ग्राउंड रिपोर्ट-1: मिथक में तब्दील होता एक शहर

जोशीमठ। बात 12 जनवरी की है, दरकते जोशीमठ की एक सुबह जब लोग और चौड़ी होती दरारों के साथ उठे तो यहां के सिंहधार मुहल्ले में आधा किमी की दूर तक वीवीआईपी गाड़ियां और सिक्योरिटी आबोहवा को असहज कर रही थी। बताया गया कि सीएम पुष्कर धामी यहां के मशहूर नरसिंह मंदिर में विशेष पूजा करने आए हैं। सफेद पूजा की धोती और चादर ओढ़े सीएम धामी ने मंदिर के कई चक्कर लगाए और कुछ देर बाद अपने काफिले के साथ निकल गए।

ये जगह शहर के उस एंट्री प्वाइंट से ज्यादा दूर नहीं है जहां माधवी सती का घर है, वो दीवारों में आई दरारें हमें दिखाती हैं और कहती हैं- शायद नरसिंह भगवान की यही मर्ज़ी है, सब छिन गया बस शुक्र है जान तो बच गई। जैसा हमेशा होता है, सरकार से लेकर जनता सब भगवान भरोसे हैं। लेकिन हज़ारों की बसावट से चहकते शहर की नब्ज़ गुम हो जाना और धीरे-धीरे गायब हो जाना विशुद्ध रूप से इंसान की अपनी कारगुज़ारी है। शहर अपने आप नहीं मरते, मारे जाते हैं। उनका कत्ल होते दिखता नहीं, लेकिन उनकी मौत होते हुई ज़रूर दिखती है।

मुख्यमंत्री पुष्कर धामी पत्रकारों से बात करते हुए

कोई शहर कैसे सांस छोड़ता होगा, जोशीमठ आकर देखा जा सकता है।

माधवी सती के मुहल्ले में टेढ़े-मेढ़े हो चुके मकानों के फर्श पर चढ़ने तक से डर लगता है। सिंहधार मुहल्ले में ऐसे दर्जनों मकान हैं, जिन्हें 2 और 3 जनवरी की रात एकाएक आई दरारों की वजह से खाली करवा दिया गया है। लोगों को अपने रिश्तेदारों और शेल्टर होम्स भेज दिया गया है, ऐसा ही एक परिवार ऊषा का भी है, वो विधवा हैं और बच्चों की पढ़ाई और पालन-पोषण थोड़ी सी खेती और गाय के  भरोसे कर रही हैं। ये परिवार शेल्टर होम में रात को सोने जाता है लेकिन सुबह अपने अनसेफ़ घर ही में आ जाता है।

दरारों वाले चबूतरे में ही बैठ कर वो हमें बताती हैं कि “2 जनवरी की रात करीब 3 बजे हल्की सी आवाज़ आई, हम उठे और देखा घरों में दरारें आई हैं। हमें लगा कि सिर्फ हमारे ही घरों में दरारें हैं। लेकिन ऐसा नहीं था बहुत सारे घरों का ये हाल था। अगले दिन से प्रशासन ने यहां से हटने के लिए कह दिया”। वो ठंडी खामोश नज़र से मुझे देखते हुए कहती हैं- ”मरेंगे तो यहीं जिएंगे यहीं, ये घर छोड़कर कहां जाएं, कैसे बच्चों का पालन पोषण करूंगी इसी सोच में सो नहीं पाती हूं”।

ऊषा देवी अपने परिवार के साथ

इसी मुहल्ले में घरों का जायज़ा लेते हुए हम से मनोज जैन टकरा गए। उनका परिवार सिंहधार मुहल्ले का अकेला जैन परिवार है, परिवार में छोटे-बड़े 20 लोग हैं। उनका घर एक सामान्य सा पहाड़ी घर है, जो बेहद खूबसूरती से बना है। मकान की बालकनी मुहल्ले की मेन सड़क पर खुलती है, जिससे छनकर आ रही रोशनी घर का हर कोना जगमग कर रही है। उसी रोशनी की किरण पश्चिम दिशा की दीवार पर टंगी उनके माता-पिता की तस्वीर को भी उजागर करती है। जिस वक्त हम वहां पहुंचे, उस वक्त उनका परिवार किचन में दोपहर के खाने की तैयारी कर रहा था।

अपने ड्राइंग रूम में बैठकर मनोज हमें बताते हैं कि उनके परिवार को सेफ़ ज़ोन के एक होटल में ठहराया गया है लेकिन वो सब लोग रोज़ दिन भर यहीं रहते हैं। नम आंखों और भरे गले से मनोज कहते हैं, “हमारा बचपन यहां गुज़रा है, माता-पिता की अंतिम यात्रा यहां से निकली है, बच्चे यहीं पैदा हुए हैं। ऐसे में घर को छोड़कर कहां जाएं, यादें पीछा नहीं छोड़तीं”।

मनोज अपने परिवार के साथ

जिस घर जाइये, उसी घर की यही कहानी है। ज़िंदगी भर तिनका तिनका जोड़ कर जो बसेरा बनाया उसे उजाड़ने को कहा जा रहा है, वैसे सारे घरों में दरारें जनवरी में ही नहीं आई। एक साल पहले इस इलाके के सबसे ऊंचे सुनील गांव में दरारें पहली बार दिखीं। ऊपर जाते वक्त रोहित पंत ने बताया कि उनकी दुकान में डेढ़ साल पहले दरारें पड़ गईं थी। ऐसा ही हाल उनके पड़ोसी शंभु प्रसाद उनियाल के घर का भी हुआ था। इन लोगों ने प्रशासन को इन दरारों के बारे में बताया भी था लेकिन ध्यान नहीं दिया गया। शंभु प्रसाद उनियाल की गौशाला और गैराज पिछले साल काफी ज्यादा क्षतिग्रस्त हो गए थे, उन्होंने इस बात की जानकारी नगरपालिका को भी दी थी।

इसी गांव के सकलानी परिवार का मकान इतनी बुरी हालत में है कि कभी भी गिर सकता है, घरों की दीवारों के आर-पार तक देखा जा सकता है। सुनैना सकलानी बताती हैं- हमारे घर में दरारें एक साल पहले ही आनी शुरू हो गई थीं। पहले दीवारें बारीक थीं। हमें लगा कि मकान जगह पकड़ रहा है, लेकिन 2-3 जनवरी की रात से दीवारों का गैप बढ़ता गया और अब ये दरारें रोज़ चौड़ी हो रही हैं।

सकलानी परिवार के मुखिया दुर्गाप्रसाद सकलानी अपने गिरते मकान के अहाते में बैठकर कहते हैं कि ”यहां से वहां,वहां से यहां जाना हमारी किस्मत हो गई है। जब मैं छोटा था और यहीं के मारवाड़ी इलाके में रहता था तब भी इसी तरह के हालात की वजह से सुनील गांव शिफ्ट होना पड़ा। पिताजी ने ये सोचकर यहां गृहस्थी जमाई की अब उखड़ना नहीं होगा। लेकिन हमें फिर यहां से हटने के लिए कह दिया गया है”। वो आगे कहते हैं- मैं सरकार से पूछना चाहता हूं कि ऐसी कौन सी जगह है जो यहां सेफ़ है। फिलहाल प्रशासन ने परिवार के रहने की व्यवस्थाा पास के गेस्ट हाउस में की है, लेकिन परिवार पूरे दिन अपने इस टूटे-फूटे घर में ही रहता है।

आगे बढ़ने पर भगवती देवी का घर दिखा। घर की हालत वाकई बेहद खराब थी। दीवारों में मोटी-मोटी दरारें थीं। 75 साल की भगवती देवी की जैसे पूरी ज़िंदगी ही यहां गुजरी है, दो साल के नाती को गोद में लिए धूप सेंकती भगवती हिमालय की ओर देखकर कहती हैं- क्या करें अब इस उम्र में कहीं और जाना पड़ेगा। बुढ़ापे का शरीर और खराब होते घुटनों के बावजूद वो रोज़ अपने इसी पुराने घर में आती हैं और दिन भर बैठी रहती हैं। वो शायद जानतीं हैं कि वो दिन भी आएगा जब वो यहां वापस नहीं आ पाएंगी।

भगवती देवी के घर से थोड़ी दूर पर बबिता का घर है, 25-26 साल की बबिता एक साधारण पहाड़ी महिला हैं जिनकी छोटी सी गृहस्थी है। दो छोटे बच्चे हैं, बूढ़ी सास हैं जो देख और बोल नहीं पातीं। बबिता के पति तपोवन एनटीपीसी प्रोजेक्ट में काम करते हैं, जिन्हें 3 महीने से सैलेरी नहीं मिली है। उनका घर अभी डैंजर ज़ोन में नहीं है लेकिन चारों तरफ़ से ऐसे घरों से घिरा है जो कभी भी गिर सकते हैं, वो कहती हैं- हमें पता है हमें भी यहां से निकलना ही होगा। हमारा बरामदा भी धंस चुका है। लेकिन कहां जाएंगे, छोटे बच्चे, बूढ़ी सास को लेकर कहां जाऊं। मेरी गाय बच्चे देने वाली है, ऐसे में उसे छोड़कर कहां जाऊं।

सुनील गांव से वापस आकर और लोगों की बातें सुनकर मेरे ज़हान में जियोलॉजिस्ट डॉ एसपी सती की वो बात गूंजने लगी जो उन्होंने देहरादून यूनिवर्सिटी में हुई एक बातचीत में हमसे कही थी, उन्होंने कहा था कि- जोशीमठ को अब हम बस एक लेशन की तरह देख सकते हैं।

जोशीमठ ने जाने की दूसरी यात्रा ही शुरू कर दी है।

25 हज़ार की बसावट वाला ये खूबसूरत शहर का एक सृमद्ध सांस्कृतिक विरासत समेटे है। यहां शंकराचार्य का मठ है। ये कत्यूरी राजवंश की पहली राजधानी रही है। तिब्बत से व्यापार का पहला ठिकाना जोशीमठ ही था। यहां से फूलों की घाटी को भी रास्ता जाता है।

ऐसा पुराना शहर अब मिथक में तब्दील होने की ओर बढ़ गया है,सभ्यताओं की यही विडंबना रही है, नए को पुराना सहेज कर रखना नहीं आता। डर है कि इसका हाल कंबोडिया के एंगकोर शहर जैसा ना हो जाए। मंदिरों का केंद्र माने जाने वाला एंगकोर 1431 में थाई सेना के आक्रमण के बाद खत्म हो गया था। बौद्ध मंदिरों के लिए मशहूर इस शहर का 1800 से पहले कोई नामों निशान नहीं था। बाद में फ्रेंच आर्कियोलॉजिस्ट के एक ग्रुप ने इसे खोजा।

(जोशीमठ से लौटकर अल्पयु सिंह की रिपोर्ट।)

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