Friday, March 29, 2024

एक नई विश्व व्यवस्था की आहट

बीजिंग में विंटर (शीतकालीन) ओलंपिक खेलों का आयोजन अंतरराष्ट्रीय शक्ति-संतुलन के लिहाज से एक नए युग की शुरुआत का मौका बन गया। ये बात हर उस पर्यवेक्षक को नजर आई है, जो अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को पश्चिमी चश्मे से नहीं देखता। ये नया दौर कैसा होगा, इस बारे में अभी कुछ साफ नहीं कहा जा सकता। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि इससे संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के वैश्विक वर्चस्व को एक बड़ी चुनौती मिलने जा रही है। क्या उससे दूसरे विश्व युद्ध के बाद से जारी अमेरिका-यूरोप (पश्चिम) का दबदबा टूट जाएगा? इस बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी है। परंतु यह स्पष्ट है कि इस चुनौती के ठोस रूप लेने की पृष्ठभूमि खुद अमेरिका और उसके सहयोगी उन देशों ने बनाई है, जिनके आर्थिक और सैनिक हित वर्तमान साम्राज्यवादी परियोजना से जुड़े हुए हैं। कैसे? आइए, इस पर तीन उदाहरणों के साथ गौर करें:

●         शुरुआत बीजिंग विंटर ओलंपिक खेलों के आयोजन से करते हैं। ओलंपिक खेलों के आयोजन के मौके पर विश्व नेताओं का आना कोई नई या खास बात नहीं है। लेकिन बीजिंग में उनका आना इसलिए खास बन गया, क्योंकि यूएस और उसके पिछलग्गू देशों ने इन खेलों के कूटनीतिक बहिष्कार की मुहिम छेड़ रखी थी। ऐसे में जिन नेताओं ने चीन का आमंत्रण स्वीकार करते हुए विंटर ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में जाने का फैसला किया, उन्होंने ये कदम अमेरिकी मंशा और उसकी मुहिम को ठेंगा दिखाते हुए किया।

समारोह में भाग लेने के लिए तकरीबन 30 देशों के राष्ट्र/ सरकार प्रमुख इकट्ठा हुए। उनमें सिर्फ वे देश नहीं हैं, जिन्हें चीन का दोस्त समझा जाता है। बल्कि सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कतर जैसे अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र में आने वाले देशों के नेता भी बीजिंग पहुंचे। इसका क्या संदेश है? स्पष्टतः यही कि दुनिया में ऐसे देशों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो अपनी नीति अमेरिका के मन-माफिक तय नहीं कर रहे हैं। बल्कि वे चीन को अपेक्षाकृत अधिक तरजीह दे रहे हैं, जिसे अमेरिका ने अपना प्रमुख प्रतिद्वंद्वी घोषित कर रखा है।

●         बीजिंग पहुंचे नेताओं में सबसे ज्यादा ध्यान रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन पर केंद्रित रहा। ऐसा नहीं होता, अगर हाल में अमेरिका ने यूक्रेन का बहाना बना कर रूस को घेरने की आक्रामक मुहिम ना छेड़ी होती। इस मुहिम की वजह से रूस जवाबी हमलावर रुख अपनाने पर मजबूर हुआ है। ऐसे में पुतिन का चीन जाना और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बीजिंग विंटर ओलंपिक के उद्घाटन समारोह में भाग लेना सहज ही इन दोनों देशों की सामरिक रणनीति का हिस्सा बन गया।

 ●        रूस के साथ ही चीन भी अमेरिकी आक्रामकता का शिकार बना हुआ है। अमेरिका ने अपनी पूरी ताकत चीन को घेरने में लगा रखी है। पश्चिमी प्रचार तंत्र ने चीन को एक evil यानी बुराई की ताकत बताने में अपनी शक्ति झोंक रखी है। अपने स्वार्थ को साधने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी देशों को evil या axis of evil बता कर पहले उनके खिलाफ वैश्विक माहौल बनाना अमेरिकी साम्राज्यवाद का पुराना तरीका रहा है।

●         मौजूदा समय में इस क्रम में अमेरिका और उसके पिछलग्गू पश्चिमी देशों ने एक नया शीत युद्ध शुरू कर दिया है। दरअसल बीजिंग विंटर ओलंपिक्स का कूटनीतिक बहिष्कार उसी अभियान का हिस्सा था। इसीलिए इस अभियान का मुकाबला करने के लिए एक धुरी बीजिंग में तैयार होती दिखी। यानी पश्चिम की तरफ से शुरू किए गए शीत युद्ध के यहां ठोस आकार ग्रहण करने के संकेत मिले।

बहरहाल, बीजिंग में जो हुआ, उससे साफ है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद ने सोवियत संघ के विखंडन के साथ जिस एक-ध्रुवीय विश्व को निर्मित करना चाहा था, उसमें अब दरार पड़ चुकी है। इस रूप में अपना वर्चस्व बनाए रखने के मकसद से एक नया शीत युद्ध छेड़ने का उसका दांव उलटा पड़ा है। आर्थिक रूप से शक्तिशाली होकर उभरे चीन और आज भी सैनिक रूप से शक्तिशाली रूस को घेरने की पश्चिम की कोशिशों ने एक नए वैश्विक ध्रुवीकरण की गति तेज कर दी है।

स्वाभाविक रूप से इस परिघटना का केंद्रीय बिंदु चीन ही बन रहा है, जिसने अपनी आर्थिक शक्ति और ‘विकास एवं सहयोग की अपनी वैश्विक रणनीति’ से एक नई दुनिया उभरने की संभावना जगा दी है। एशिया से अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक- बल्कि यूरोपियन यूनियन (ईयू) के सदस्य कुछ देशों तक में इस दुनिया से जुड़ने की ललक साफ नजर आ रही है।

विंटर ओलंपिक के मौके पर बीजिंग पहुंचने वाले नेताओं में अर्जेंटीना के राष्ट्रपति अल्बर्तो फर्नाडेंज भी थे। उन्होंने वहीं चीन के बहुचर्चित बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) परियोजना में अपने देश को शामिल करने के करार पर दस्तखत किए। लेकिन जिस खबर ने सबसे ज्यादा ध्यान खींचा, वो बीजिंग में हुआ वह समझौता है, जिसके तहत चीन अर्जेंटीना में परमाणु रिएक्टर का निर्माण करेगा। इसके कुछ ही समय पहले निकरागुआ ने बीआरआई में शामिल होने का फैसला किया था। इन्हीं घटनाओं की पृष्ठभूमि में अमेरिकी कांग्रेस में एक चर्चा के दौरान सवाल उठाया गया कि जब अधिकांश लैटिन अमेरिकी देश बीआरआई का हिस्सा बन गए हैं, तो क्या इसका अर्थ है कि ‘मुनरो सिद्धांत’ (Munro Doctrine) मृत हो गया है? गौरतलब है कि जेम्स मुनरो अमेरिका के राष्ट्रपति थे, जिन्होंने 1823 में लैटिन अमेरिका को यूएस का बैकयार्ड (यानी उसका प्रभाव क्षेत्र) घोषित किया था। इसे तब से Munro Doctrine के रूप में जाना जाता है।

बहरहाल, विचारणीय प्रश्न यह है कि आखिर किसी देश के विकसित होने और उसके अंतरराष्ट्रीय संबंधों में प्रसार को यूएस या पश्चिमी देश अपने लिए खतरा क्यों समझते हैं? उनकी निगाह में ऐसी हर परिघटना zero sum game (यानी किसी का लाभ उनका नुकसान) क्यों है?  अगर हम गहराई में जाएं, तो इसकी वजह उनके अपने सत्ता तंत्र में नजर आएगी। सत्ता तंत्र का यही स्वरूप है, जिसकी वजह से यूएस और उसके नेतृत्व वाला सैनिक संगठन- नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) हमेशा युद्ध की मानसिकता में रहता है। इसी वजह से वह एक युद्ध खत्म होते ही युद्ध की दूसरी परिस्थितियों का निर्माण करने लगता है। अमेरिकी सत्ता तंत्र के इस स्वरूप की पहचान मिलिटरी इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स के रूप में की गई है।

खुद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर ने 1961 में अपने पद से रिटायर होते समय इस कॉम्पलेक्स को लेकर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था कि रक्षा ठेकेदारों और सेना के बीच एक मजबूत रिश्ता बन गया है, जो अमेरिकी जनता के हितों के लिए एक खतरे के रूप में उभर रहा है। तब से इस कॉम्पलेक्स के हित अमेरिका में सर्वोपरि बने रहे हैं। ये हित सीधे तौर पर युद्ध का माहौल बनाए रखने से जुड़े हुए हैं। यही वजह है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका ‘अनवरत युद्ध’ का हिस्सा रहा है।   

ये प्रश्न अहम है कि अगर नाटो कम्युनिस्ट खतरे यानी तत्कालीन सोवियत संघ से ‘पश्चिम के स्वतंत्र समाजों’ की रक्षा बनाया गया था, तो सोवियत संघ के बिखराव के बावजूद उसे क्यों कायम रखा गया? न सिर्फ कायम रखा गया, बल्कि उसका लगातार विस्तार किया गया। आखिरी सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव से किए गए वादे को तोड़ते हुए लगातार पूर्व सोवियत गणराज्यों और पूर्व वॉरसा संधि (सोवियत खेमे के देशों के सैन्य संगठन) के सदस्य रहे देशों को इसमें शामिल किया गया। ये विस्तार होते-होते लिथुआनिया, लातविया, और एस्तोनिया तक पहुंच गया, जिनकी सीमाएं रूस से मिलती हैं। अब नाटो यूक्रेन और जॉर्जिया को भी अपना सदस्य बनाना चाहता है। यही रूस और पश्चिमी देशों के बीच बढ़ते ताजा टकराव की वजह है।

बहरहाल, इसके पहले कि इस विवाद में जाएं, एक अहम सवाल यह है कि जब अमेरिका पूर्व सोवियत गणराज्यों और पूर्व वॉरसा संधि के देशों को नाटो में शामिल करने पर आमादा रहा है, तो आखिर उसने कभी रूस के सामने यह प्रस्ताव क्यों नहीं रखा कि वह भी इसका सदस्य बन जाए? 1990 के पूरे दशक में रूस में पश्चिम के इशारे पर चलने वाली बोरिस येल्तसिन की सरकार थी। यूएस चाहता तो उस समय रूस को भी नाटो में शामिल करने के लिए कदम उठा सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। स्पष्टतः उसने ऐसा इसलिए नहीं किया, क्योंकि रूस एक बड़ा और सैनिक रूप से तब भी शक्तिशाली देश है। अगर ऐसा कोई देश नाटो में शामिल हो जाए, तो उससे इस सैनिक संधि में अमेरिका के एकछत्र नेतृत्व की स्थिति का कायम रहना कठिन हो जाएगा। तो अमेरिका ने रूस को नाटो में लाने के बजाय नाटो का विस्तार कर उसे चारों तरफ से घेर लेने की रणनीति अपनाई।

यह रणनीति तब तक बेरोक आगे बढ़ी, जब तक रूस एक बार फिर से उठ नहीं खड़ा हुआ। व्लादीमीर पुतिन को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि सोवियत युग के बाद उन्होंने दीन-हीन हो चुके रूस को फिर से खड़ा किया। उन्होंने उसे उस पश्चिमी शिकंजे से निकाला, जो येल्तसिन के शासनकाल में रूस पर कस गया था। दरअसल, रूस का फिर से खड़ा होना ही वो पहलू है, जो अमेरिका को रास नहीं आया है। इसीलिए 21वीं सदी आते-आते एक बार फिर से अमेरिका ने रूस को नियंत्रित करने की रणनीति अपना ली। आज खड़ा हुए यूक्रेन संकट का यही असल कारण है।

सोवियत संघ में रूस के बाद सबसे बड़ा गणराज्य यूक्रेन था। आज उसकी आबादी तकरीबन साढ़े चार करोड़ है। इस लिहाज से (यूरोपीय कसौटी पर) वह एक बड़ा देश है। रूस से उसकी लंबी सीमा लगती है। उसके नाटो में शामिल होने का मतलब नाटो का सीधे रूस के दरवाजे तक पहुंच जाना होगा। यह रूस की सुरक्षा के लिए खतरे की घंटी होगा।

इस इतिहास पर ध्यान देना उचित होगा कि पूर्व सोवियत गणराज्यों में रूस के प्रभाव को खत्म करने के लिए पश्चिमी देशों ने लंबे समय से एक खास रणनीति अपना रखी है। इसके तहत उन सरकारों के खिलाफ पश्चिमी धन से चलने वाली गैर-सरकारी संस्थाओं और पश्चिमी मीडिया के प्रचार से कलर रिवोल्यूशन भड़काने (यानी जन-असंतोष भड़का कर सत्ता परिवर्तन) की कोशिश की गई। जिन देशों में ये प्रयास सफल रहा, उसमें यूक्रेन भी है। अब इस बात के प्रमाण हैं कि यूक्रेन के रूस के मित्र माने जाने वाले राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के खिलाफ 2014 में कलर रिवोल्यूशन का संचालन सीधे तौर पर अमेरिकी अधिकारियों ने किया था। उन्होंने न सिर्फ यूक्रेन की राजधानी कीव जाकर यानुकोविच विरोधी जमावड़े को संबोधित किया था, बल्कि नए शासक को तय करने में भी परदे के पीछे से भूमिका निभाई थी।

यानुकोविच को हटाए जाने के बाद ही रूस ने क्राइमिया में सैनिक हस्तक्षेप किया। क्राइमिया ऐतिहासिक और जनसंख्या के स्वरूप के लिहाज से रूस का हिस्सा था। उसे सोवियत काल में प्रशासनिक सुविधा के लिए यूक्रेन में शामिल किया गया था। जब कलर रिवोल्यूशन के परिणामस्वरूप यूक्रेन में धुर-दक्षिणपंथी और एक हद तक नस्लवादी सरकार बन गई, तब क्राइमिया के रूसी मूल के लोगों ने एक जनमत संग्रह के जरिए रूस में मिलने का फैसला किया। रूस ने उसी के अनुरूप वहां सेना भेजी और क्राइमिया को रूस में मिला लिया।

लेकिन यूक्रेन के दोनबास क्षेत्र में क्राइमिया जैसी समस्या आज तक बनी हुई है। वहां भी आबादी का स्वरूप रूसी बहुल है। उस क्षेत्र के लोगों का एक बड़ा हिस्सा भी यूक्रेन की नस्लभेदी रूझान वाली सरकार के तहत नहीं रहना चाहता। लेकिन दोनबास को सीधे मिला लेने के बजाय रूस 2014 में कूटनीतिक समाधान निकालने की प्रक्रिया में शामिल हुआ था। इसके तहत बेलारुस की राजधानी मिन्स्क में हुई वार्ताओं के बाद 2014 और 2015 में दो समझौते हुए। उनका सार यह था कि यूक्रेन दोनबास के दो इलाकों को ‘विशेष क्षेत्र’ का दर्जा देगा। उधर रूस ने वादा किया, वह उस क्षेत्र में सैनिक हस्तक्षेप नहीं करेगा। लेकिन यूक्रेन ने आज तक विशेष क्षेत्र का दर्जा देने का वादा नहीं निभाया है। इस बीच ये शिकायतें बढ़ी हैं कि दोनबास में रूसी मूल के लोगों पर ज्यादतियां हो रही हैं।

इसी पृष्ठभूमि में रूस ने यूक्रेन से लगी सीमा पर अपने लगभग एक लाख सैनिक तैनात किए। अमेरिका और पश्चिमी मीडिया ने उसे ही यूक्रेन पर रूस के हमले की तैयारी के रूप में प्रचारित किया है। मगर इस दौरान यह नहीं बताया जाता कि यूक्रेन संकट के लिए मूल रूप से खुद अमेरिका और पश्चिमी देश जिम्मेदार हैं। रूस ने बीते दिसंबर में इस पूरे मसले का कूटनीतिक समाधान निकालने की ठोस पहल की। उसने यूरोपीय सुरक्षा की नई व्यवस्था तैयार करने के बारे में एक ठोस प्रस्ताव अमेरिका और नाटो को भेजा। इसमें सबसे प्रमुख बिंदु यही है कि नाटो पूरब में अपना और विस्तार ना करने की वैधानिक गारंटी दे। इसका व्यावहारिक अर्थ यह है कि नाटो पूर्व सोवियत गणराज्यों यूक्रेन और जॉर्जिया को अपनी सदस्यता देने का इरादा छोड़ दे। रूस की इस मांग को अमेरिका और नाटो ने सीधे ठुकरा दिया है। नतीजा है कि तनाव बना हुआ है।

ये बात अमेरिका और उसके साथी देशों को भी मालूम है कि वे रूस के साथ तब तक युद्ध नहीं कर पाएंगे, जब तक संपूर्ण विनाश का मन ना बना लें। परमाणु हथियारों के लिहाज से रूस आज भी अमेरिका की टक्कर की ताकत है। अब चीन के साथ रूस के बने नए और गहरे संबंध के बाद रूस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करना या उसे आर्थिक रूप से प्रतिबंधित करना भी संभव नहीं रह गया है।

बहरहाल, यूक्रेन को बहाना बना कर युद्ध जैसा माहौल बनाए रखना जरूर संभव है। इससे उस मिलिटरी इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स के हित सधते हैं, जिसका हर व्यावहारिक रूप में अमेरिकी सत्ता तंत्र पर नियंत्रण है। इस बहाने अमेरिका के रक्षा बजट में भारी बढ़ोत्तरी की जा सकती है। इस मद में आने वाली रकम आखिर उसी कॉम्पलेक्स को चलाने वाले लोगों तक पहुंचती है।

यह विडंबना ही है कि खुद को लोकतंत्र कहने वाले पश्चिमी देशों में आम जन कल्याण के लिए बजट की कमी बता दी जाती है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने आम परिवारों की मदद, न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन रोकने आदि की योजनाओं में निवेश आदि के लिए जिस बिल्ड बैक बेटर पैकेज को पेश किया, उसकी रकम में तीन चौथाई की कटौती हो चुकी है। उसके बावजूद अमेरिकी सीनेट से उसके पारित होने की स्थिति नहीं बनी है। जबकि रक्षा बजट के लिए बाइडेन प्रशासन ने जितनी रकम मांगी, उससे 25 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा रकम अमेरिकी कांग्रेस ने अपनी पहल पर मंजूर कर दी!

बहरहाल, अमेरिका के मिलिटरी इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स और उसके मोनोपॉली- फाइनेंशियल (इजारेदार-वित्तीय) निहित स्वार्थों ने दुनिया के दो ध्रुवों में बंटने की स्थिति निर्मित कर दी है। इसके लिए वे कैसे जिम्मेदार हैं, इसे और भी गहराई से समझने के लिए जिनेवा स्कूल ऑफ डिप्लोमेसी में प्रोफेसर अल्फ्रेड डि जेयास की इन बातों पर ध्यान दिया जा सकता हैः

‘2020-21 का संकट नाटो की उन विस्तारवादी नीतियों के जारी रहने का तार्किक परिणाम है, जो उसने सोवियंत संघ की समाप्ति के बाद से अपना रखी हैं।… नाटो इस अपने नजरिये से अपने सामाजिक-आर्थिक मॉडल का निर्यात करने के अमेरिकी दावे को लागू करता है। संप्रभु देशों की क्या प्राथमिकताएं हैं और वहां के लोगों का क्या आत्म-निर्णय है, बिना उसका ख्याल किए नाटो ऐसा करता है।… हालांकि नाटो की कहानियां गलत और कई मौकों पर तो जानबूझ कर बोले गए झूठ साबित हुई हैं, इसके बावजूद तथ्य यही है कि पश्चिमी दुनिया में ज्यादातर नागरिक उन बातों की आलोचनात्मक जांच किए बिना उन पर भरोसा करते हैं। द न्ययॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, द टाइम्स, ला मोंदे, एल पाइस, एनजेडजेड और एफएजेड सहित तथाकथित क्वालिटी प्रेस सभी मिल कर वॉशिंगटन कॉनसेन्सस का एक प्रभावी इको-चैंबर बनाते हैं और पूरे उत्साह से उसकी तरफ से जन-संपर्क और भू-राजनीतिक प्रचार अभियान में अपनी भूमिका निभाते हैं।’

भारत जैसे देशों की विडंबना यह है कि यहां इको-चैंबर के इन्हीं एजेंटों को विश्वसनीय मीडिया समझा जाता है। इसलिए यहां वही कहानी सबसे अधिक प्रचलित और विश्वसनीय बनी रहती है, जो उन माध्यमों से यहां पहुंचती है। इसीलिए अपने देश में ज्यादातर लोगों की निगाह में यूक्रेन संकट में खलनायक रूस है। साथ ही भारत के अधिकांश लोग बीजिंग में ठोस रूप लेने वाले उस बड़े घटनाक्रम से अपरिचित हैं, जिसने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक नए युग का सूत्रपात कर दिया है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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