Friday, April 26, 2024

प्रतीकों से नहीं सैनिक और संसाधनों से जीते जाते हैं युद्ध

कल सुबह 9 बजे प्रधानमंत्री जी देश के सामने एक वीडियो सन्देश द्वारा रूबरू हुए। लोग उक्त सन्देश को सुनना चाह रहे थे। बात जब पीएम की हो तो उम्मीद भी बेहतर ही सुनने की होती है। पर प्रधानमंत्री जी ने कुछ खास नहीं कहा। और चलते समय बस यह कहा कि, 5 अप्रैल रात 9 बजे 9 मिनट का बत्ती बुझा कर दीप, मोमबत्ती या मोबाइल फ़्लैश लाइट जलानी है। एकजुटता दिखानी है। 

हमने सोचा था कि प्रधानमंत्री जी कम से कम, डॉक्टरों पर हुए हमलों और उनकी सुरक्षा, देश के अस्पतालों में पीपीई की कमी, आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की कठिनाइयों, लॉक डाउन से हो रहे पलायन, कुछ मीडिया संस्थानों द्वारा प्रायोजित साम्प्रदायिक तनाव, अवसाद और मानसिक स्वास्थ्य और देश की अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ कहेंगे लेकिन इन महत्वपूर्ण विषयों पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। हो सकता है वे अगले संबोधन में इन सब विषयों पर कुछ कहें, पर फिलहाल तो यही फरमान जारी हुआ है कि, 5 अप्रैल को, 9 बजे 9 मिनट के लिये बत्तियां बुझा दी जाएं और मोमबत्तियां जला दी जाएं। 

जैसे ही यह फरमान ज़ारी हुआ भाजपा आईटी सेल इसके औचित्य को लेकर व्हाट्सएप्प और सोशल मीडिया पर यह तर्क देने लगा कि इसका भी वैज्ञानिक आधार है। जब थाली-ताली बजायी गयी थी तब भी यही आधार लोगों के बीच फैलाया गया था कि इसका वैज्ञानिक आधार है। पर कोई भी वैज्ञानिक आधार न तो थाली ताली का था और न ही 5 अप्रैल को रात 9 बजे 9 मिनट बत्ती बंद करके मोमबत्ती जलाने का है। 

दरअसल यह दोनों ही विचार यूरोप के इटली और स्पेन से आये हैं। इटली में हालत बहुत ही खराब है और पूरा देश ही एक प्रकार के मानसिक संत्रास और अवसाद में जी रहा है। स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में सबसे उत्तम देशों की कोटि में आने के बावजूद इटली कोविड 19 के प्रसार को नियंत्रित नहीं कर पा रहा है। उसने इस अवसाद जन्य जड़ता को तोड़ने और रात दिन मेहनत कर रहे डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ के उत्साहवर्धन के लिये ऐसे प्रतीकात्मक आयोजन किये हैं। प्रधानमंत्री जी को भी यह आइडिया वहीं से मिला था। लेकिन उन्होंने यह नहीं सोचा था कि घंट घड़ियाल लेकर कुछ लोग जुलूस बना कर निकल जाएंगे और सारा सोशल डिस्टेंसिंग की अवधारणा धरी की धरी ही रह जायेगी। 

इस बार भी मोमबत्ती या लाइट फ़्लैश चमकाने का भी आइडिया इटली से ही आया है। वहां भी रात में फ़्लैश लाइट चमका कर कोरोना वायरस के खिलाफ संघर्ष में एकजुटता का प्रदर्शन किया गया था। यह दोनों ही कार्य प्रतीकात्मक हैं। यह केवल मनोबल ऊंचा रखने के उपक्रम है। इनसे कोविड 19 वायरस के खात्मे या कम होने का कोई वैज्ञानिक सुबूत नहीं है। प्रधानमंत्री जी ने खुद भी ऐसा दावा नहीं किया कि यह सब किसी विज्ञान पर आधारित है। पीएम की इस घोषणा के बाद तो ट्विटर पर तरह-तरह की मजाकिया प्रतिक्रिया आने लगी। शाम तक पीआईबी यानी प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो ने इन सभी वैज्ञानिक आधार बताने वाली बातों का खंडन कर दिया। 

मुझे यह वैज्ञानिक निष्कर्ष नहीं पता है कि कोरोना वायरस ध्वनि तरंगों से मरता है या प्रकाश की गति से हालांकि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और दिल्ली के प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ केके अग्रवाल का एक वीडियो ज़रूर मेरी आँखों से गुजरा है जिसमें वे इस 9 मिनट की बत्ती गुल मोमबत्ती जलाओ का कोई वैज्ञानिक आधार दे रहे थे जो मेरी समझ मे नहीं आया। हो सकता है ध्वनि तरंगें और प्रकाश रश्मियों में भी कोरोना निवारण की कोई शक्ति छुपी हो, पर अभी तक किसी गंभीर वैज्ञानिक शोध से इन दोनों दावों की पुष्टि नहीं हुयी है। 

देश भर में, उपकरणों और अन्य दवाइयों की जितनी ज़रूरत है उसकी तुलना में मांग और आपूर्ति के बीच बहुत अधिक अंतर है। देश भर के 410 आईएएस अफसरों ने जो जिला मजिस्ट्रेट और प्रशासन में उच्च और महत्वपूर्ण पदों पर हैं, ने कहा है कि देश के अस्पताल और स्वास्थ्य सेवाएं कोरोना आपदा से निपटने के लिये सक्षम नहीं हैं। यह कहना है जिला मजिस्ट्रेट और अन्य अधिकारियों का जो इस आपदा के समन्वय का काम देख रहे हैं। यह रिपोर्ट एक फीड बैक का अंश है जो सरकार ने देश के विभिन्न क्षेत्रों से मांगी है। सभी राज्यों के 410 जिलों में नियुक्त इन अधिकारियों ने नेशनल प्रिपेयर्डनेस सर्वे कोविड 19 योजना के अंतर्गत यह फीडबैक दिया है कि, टेस्टिंग किट, एन 95 मास्क और प्रोटेक्टिव उपकरणों की भारी कमी है।

यह सब उपकरण किसी भी अस्पताल और मेडिकल स्टाफ के सबसे ज़रुरी उपकरण होते हैं। इस फीडबैक के पहले से ही देशभर के मुख्य अस्पतालों के चिकित्सक और मेडिकल स्टाफ  ऐसी शिकायतें कर चुका हैं। यह अलग बात है कि देश का मुख्य मीडिया ऐसी शिकायतों पर मौन है। उनकी प्राथमिकताएं अलग होती हैं। फीडबैक देने वाले अधिकारियों का कहना है कि लॉक डाउन के लगाये या उठाये जाने का  निर्णय,  कोविड 19 की स्थानीय संक्रामकता के आधार पर राज्यों द्वारा तय किया जाना चाहिए था। 

प्रधानमंत्री कार्यालय ने नीति आयोग के सदस्य डॉ विनोद पॉल के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन किया है जिसने  इस आपदा से निपटने के लिये देश के विभिन्न क्षेत्रों से आधिकारिक फीडबैक लिया, और उन आकड़ों का परीक्षण किया। उन आकड़ों के कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं। 

अरुणाचल प्रदेश में सबसे नज़दीकी टेस्टिंग केंद्र राज्य के सुदूर गांव से 379 किमी दूर डिब्रूगढ़ में है जहां सैम्पल लिया जा सकता है। नागालैंड में एक भी टेस्टिंग केंद्र नहीं है। आवश्यक वस्तुओं की कमी लॉक डाउन के कारण, झारखंड के दुमका सहित कुछ जिलों में अब महसूस होने लगी है। झारखंड के कुछ अस्पतालों में वेंटिलेटर तक नहीं हैं। मध्य  प्रदेश के पन्ना जिले में एक भी निजी अस्पताल नहीं है और जिले भर में केवल एक ही वेंटिलेटर है। मध्यप्रदेश के ही, नीमच जिले में पीपीई किट और एन 95 मास्क की उपलब्धता बहुत कम है। यहां भी वेंटिलेटर का अभाव हैं और मेडिकल स्टाफ और आईसीयू ऐसे रोगियों के इलाज के लिये न तो समृद्ध है और न ही समर्थ है। 

असम के दीमा हसाओ के सरकारी अस्पतालों में न तो आईसीयू है और न ही कोई वेंटिलेटर है और पूरे जिले में एक भी निजी नर्सिंग होम नहीं है। यही स्थिति करीमगंज और नलबाड़ी जिलों की भी है। लगभग ऐसी ही बुरी स्थिति, अरुणाचल प्रदेश के ईस्ट सियांग, नामसाई, तवांग सहित हरियाणा के झज्जर, भिवानी, हिमाचल प्रदेश के चंबा, महाराष्ट्र के कोल्हापुर, और जम्मू-कश्मीर के कुलगाम सहित लगभग सभी  राज्यों की है। यह स्थिति लगभग पूरे देश की है। 

बिहार की राजधानी पटना में भी पीपीई, मास्क, वेंटिलेटर, दवाओं, सर्जिकल ग्लब्स, ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन रेगुलेटर और संक्रमण रोकने के उपकरणों की कमी है। यही स्थिति बिहार के अन्य जिलों  पूर्णिया, सहरसा और समस्तीपुर में भी है। छत्तीसगढ़ के बलरामपुर, गरियाबंद महासमुंद, जशपुर, सरगुजा और मुंगेली जिलों में मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं, प्रशिक्षित मेडिकल स्टाफ, और उपकरणों का अभाव है। इस आदिवासी राज्य में इस आपदा से निपटने के लिये जंगल की आबादी के बीच इस नए रोग कोविड 19 के बारे में वैज्ञानिक जानकारी का भी अभाव है।

यही स्थिति महाराष्ट्र के पालघर जिले की भी है। वहां के अधिकारियों ने भी स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में निराशाजनक फीड बैक दिया है। वहां आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में भी बाधा पहुंच रही है। लक्षद्वीप के समक्ष भी यही समस्या है। देश की राजधानी दिल्ली के  पॉश इलाके साउथ दिल्ली में भी जितनी टेस्टिंग होनी चाहिए उतनी नहीं हो पा रही है। यहां भी अस्पताल तो हैं पर वहां भी पीपीई उपकरणों की कमी है। 

इस फीडबैक रिपोर्ट में प्रवासी कामगारों के बारे में भी इन अधिकारियों ने सरकार को वास्तविक स्थिति से अवगत कराया है। आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में विदेशों से लौटे नागरिकों की पहचान की समस्या को रेखांकित किया गया है। साथ ही तेलंगाना से आने वाले कामगारों के रोकने, टेस्ट करने और क्वारन्टीन करने के संबंध में आ रही समस्याओं की बात की गयी है। आन्ध्र के प्रकाशम जिले में बाहर से आने वाले प्रवासी कामगारों की बहुलता जनपद के लिये समस्या बनी हुयी है। यही स्थिति असम में कछार जिले की है जहां मिजोरम से अधिकतम प्रवासी आ रहे हैं। 

गुजरात के बनासकांठा जिले में तो इतने अधिक प्रवासी आ रहे हैं कि वहां उनकी देखरेख करने तक की दिक्कत पड़ रही है। भावनगर में 15 दिनों में 2 लाख प्रवासी कामगार आ गए। इन सबके साथ-साथ गुजरात के भी अस्पतालों में पीपीई और अन्य उपकरणों की भारी कमी है। हरियाणा के मेवात जिले में भी बाहर से बहुत प्रवासी आ रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले में तो प्रवासी समस्या को पैनिक मूवमेंट कहा है और वे भी उनकी व्यवस्था करने में असमर्थ हैं। महाराष्ट्र के परभणी जिले में पुणे और मुंबई से प्रवासी मज़दूरों का व्यापक पलायन हुआ है। गु्जरात और असम ने झुग्गी झोपड़ी वाले प्रवासी कामगारों की समस्या को उजागर किया है। गांधीनगर से सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, इतनी भारी संख्या में पलायन के कारण कम्यूनिटी ट्रांसमिशन का खतरा बढ़ सकता है। 

उपरोक्त फीड बैक से दो महत्वपूर्ण बातें उभर कर सामने आ रही हैं। एक तो देश के स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर में गम्भीर खोट है और वह इस आपदा को संभाल सकने में बिल्कुल ही समर्थ नहीं है। प्रधानमंत्री जी, कोरोना आपदा को जंग कहते हैं और यह जंग है भी पर यह एक ऐसी जंग है जिसमें युद्ध के लिये न अस्त्र हैं न शस्त्र। बस एक ही उपाय है कि हम घरों में बंद रहें और जब ऊबें तो कभी थाली बजा लें और कभी मोमबत्ती जला लें। 

दूसरी सबसे बड़ी समस्या है कम्यूनिटी ट्रांसमिशन को कैसे रोका जाए। लॉक डाउन के बाद प्रवासी कामगारों का जो व्यापक पलायन हुआ है उससे कम्यूनिटी ट्रांसमिशन का खतरा बढ़ गया है। अब इसे चेक करने का एक ही उपाय है कि सभी प्रवासी लोगों को जो बाहर से आ रहे हैं क्वारन्टीन में 14 दिन रख दिया जाए। लेकिन उनकी संख्या इतनी अधिक है कि सबको अलग-थलग करना संभव ही नहीं है। फिर भी राज्य सरकारें जो भी कर सकती हैं कर रही हैं।

एक और समस्या दिल्ली के निज़ामुद्दीन स्थित तबलीगी मरकज से सम्बंधित है जहां भारी संख्या में विदेशी उपस्थित हुए और फिर वे देश भर में जहां-जहां गए संक्रमण लेते गए। सरकार ने इन पर मुक़दमे दर्ज कर रखे हैं और देखना है कि सरकार उन मुकदमों में क्या करती है। 

असल समस्या है अस्पतालों में पीपीई की कमी और दवाइयों, वेंटिलेटर आदि का अभाव। एम्स, (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ) के एक रेजिडेंट डॉक्टर के हवाले से एक खबर छपी है कि ₹ 50 लाख रुपये की धनराशि जो अस्पताल के स्टाफ के लिये पीपीई उपकरणों की खरीद के लिये आयी थी वह संस्थान ने पीएम केयर फंड में स्थानांतरित कर दी। पीएम केयर फंड एक नया दानपात्र है जिसमें लोगों से यह अपील की जा रही है वे कोरोना आपदा के लिये दान दें। हालांकि उसे लेकर भी विवाद उठ खड़ा हुआ है कि जब देश में पहले से ही प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष ( पीएमएनआरएफ ) मौजूद था तो यह एक नया राहत कोष क्यों बनाया गया। नया केयर फंड के बारे में नवनीत चतुर्वेदी, आरटीआई एक्टिविस्ट ने आरटीआई भी डाली है पर इस पर बाद में चर्चा होगी।

होना तो यह चाहिए था कि इस केयर फंड से ही एम्स को पीपीई के लिये धनराशि दी जाती, जब कि बजट में ही पीपीई खरीदने के लिये तय की गयी राशि सीधे वापस केयर फंड में चली गयी। अंग्रेजी दैनिक द हिन्दू ने इस पर आज विस्तार से लिखा है। एक अन्य वेबसाइट  bignewsnetwork.com  पर एएनआई के हवाले से एक और खबर है। इस वेबसाइट के अनुसार, यह धनराशि  ₹ 50 लाख नहीं, बल्कि ₹ 9.02 करोड़  वापस गया है। एम्स को अगर 50 लाख ही मिल जाते तो कुछ न कुछ पीपीई उपकरण तो उपलब्ध हो ही जाते। यह स्थिति देश के अग्रणी चिकित्सा विज्ञान संस्थान की है। 

5 मार्च को 9 बजे अगर पूरे देश मे अचानक बिजली ऑफ कर दी जाती है तो उसका क्या असर होगा ? यह सवाल मेडिकल साइंस का नहीं बल्कि इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का है। बिजली विभाग के एक वरिष्ठ इंजीनियर ने इसे तेज गति से चलती कार को अचानक ब्रेक लगा कर रोकने और फिर एक्सीलेरेटर तेजी से पूरा दबा कर होने वाली प्रतिक्रिया से तुलना करते हैं। वे कहते हैं ऐसे में कार दुर्घटनाग्रस्त हो सकती है या उसके इंजन में खराबी आ सकती है।

तकनीकी विशेषज्ञों का कहना है कि वे इस आकस्मिक सम्भावना के लिये भी खुद को तैयार कर रहे हैं ताकि कुछ ऐसा न घट जाए जिससे ग्रिड पर असर पड़ जाए। आजकल वैसे भी सारी फैक्ट्रियां, ट्रेनें, मेट्रो और बड़े-बड़े मॉल्स जो सबसे अधिक बिजली की खपत करते हैं, के बंद रखने से बिजली की खपत और जेनरेशन पर असर पड़ रहा है। लेकिन बिजली का पूरी तरह से बंद होना संभव नहीं है। क्योंकि आवश्यक सेवाएं, स्ट्रीट लाइट और अस्पतालों तथा पुलिस आदि की आपूर्ति तो चालू ही रहेगी। 

कहा जा रहा है यह कदम अंधकार से प्रकाश की ओर का एक प्रतीकात्मक कदम है। प्रतीकों का अपना एक अलग महत्व होता है पर वे होते तो प्रतीक ही हैं। वे वास्तविकता से अलग होते हैं। प्रतीक, वास्तविकता पर ही आधारित होते हैं। अगर हमारे अस्पताल स्वास्थ्य सेवाएं, लॉक डाउन प्रबंधन आदि पर्याप्त सुदृढ़ होते तो, मनोबल बढ़ाने वाले यह सारे प्रतीक अच्छे लगते।

युद्ध में नगाड़े और शंख की ध्वनि तभी शत्रु को आतंकित करती है जब शत्रु की तुलना में हम अधिक साधन संपन्न हों, और इतना आत्मविश्वास हो कि हम विजयी होंगे। पांचजन्य की ध्वनि के साथ विजय के लिये गांडीव की टंकार भी ज़रूरी है। मनोबल बढ़ाने वाला दुंदुभिवादन अकेले कोई विजय नहीं दिला सकता है, अतः कोरोना आपदा को शत्रु और खुद को हम एक युयुत्सु योद्धा मानकर देखें तो। सरकार की पहली प्राथमिकता और दायित्व स्वास्थ्य सेवाओं को स्वस्थ रखना है।  

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफ़सर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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