Friday, April 19, 2024

प्रशांत नहीं, अब कठघरे में खड़ी है अदालत

प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना मामले में और जटिलता आ गयी है। कानून को कानूनी तरह से ही लागू किया जा सकता है न कि कानून के इतर तरीके से। अदालत मुल्ज़िम से कह रही है कि खेद व्यक्त कीजिए और कुछ समय हम दे रहे हैं उस पर पुनर्विचार कीजिए।

मुल्ज़िम का कहना है कि न तो मुझे मेरा जुर्म बताया गया न शिकायत की कॉपी दी गयी। न तो मेरे जवाब पर चर्चा हुयी न उस पर जिरह और बहस हुयी और सीधे माफी के लिये कह दिया जा रहा है!
मुल्ज़िम ने कहा कि मैं अपनी सफाई के बयान पर अडिग हूं और माफी नहीं  मांगूंगा। यानी न च दैन्यम न पलायनम !

प्रशांत भूषण के अवमानना मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच द्वारा जिस तरह से यह मुकदमा सुना गया है वह न केवल हैरान करने वाला है बल्कि कहीं-कहीं इसमें हास्यास्पद विरोधाभास भी है।

● पहले तो मुकदमे की बुनियाद ही त्रुटिपूर्ण है। महक माहेश्वरी की याचिका को बिना अटॉर्नी जनरल की सहमति से स्वीकार कर लिया गया। महक माहेश्वरी सुप्रीम कोर्ट के एक वकील हैं, जिन्होंने प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स पर अवमानना की याचिका दायर की थी।

● अवमानना कानून के अनुसार इस याचिका पर तब तक सुनवाई नहीं हो सकती, जब तक इस पर अटॉर्नी जनरल की लिखित सहमति न प्राप्त हो जाए। अदालत ने इस अधूरी और डिफेक्टिव याचिका पर ही सुनवाई शुरू कर दिया जो नियमविरुद्ध है।

● इसके साथ ही इसी याचिका के आधार पर नियम विरुद्ध जा कर स्वतः संज्ञान से सुनवाई शुरू कर दी गयी।

● आरोपी पर आरोप और शिकायत क्या है, इसकी कोई प्रतिलिपि भी नहीं दी गयी, जो न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतों के विपरीत है।

● आरोपी के द्वारा 134 पेज की सफाई पर कोई टिप्पणी नहीं की गयी। 

● सफाई में कुछ ऐसे बिन्दुओं पर चर्चा से कतरा कर निकल लिया गया जो न्यायपालिका को असहज कर सकते थे।

● जब अटॉर्नी जनरल से उनकी सहमति के संदर्भ में पूछा जाना चाहिए था तब अदालत ने यह कह दिया कि हम इसकी जरूरत नहीं महसूस करते हैं।

● अचानक अटॉर्नी जनरल से यह पूछ बैठना कि इस मामले में क्या सज़ा देनी चाहिए और अटॉर्नी जनरल का यह कह देना कि सज़ा नहीं देनी चाहिए स्वाभाविक रूप से यह उत्कंठा जागृत करता है कि, जब प्रारंभ में ही नियमानुसार अटॉर्नी जनरल से सहमति ली जानी चाहिए थी तब उनसे नहीं पूछा गया और अब सीधे उनसे सज़ा के बिंदु पर उनकी राय मांगी जा रही है।

● अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल ने स्पष्ट राय दी कि,
” प्रशांत भूषण को सज़ा नही दी जानी चाहिए। “
लेकिन जब रात तक अदालत का आदेश निकला तो उसमें अटॉर्नी जनरल की उपस्थिति और अदालत द्वारा उनसे पूछा गया परामर्श उक्त आदेश और 20 अगस्त की इस मुकदमे की कार्यवाही के रिकॉर्ड्स में शामिल नहीं किये गए हैं।

● इसका सीधा अर्थ यह है कि अटॉर्नी जनरल की राय ली गयी होती तो हो सकता है वे इसे अवमानना मानते ही नहीं और यह मामला यहीं खत्म हो जाता। हो सकता हो, अदालत को यह उम्मीद रही होगी कि अटॉर्नी जनरल सज़ा के पक्ष में बोलेंगे और इस उम्मीद पर अदालत ने उनसे पूछ लिया। पर उन्होंने अपनी राय सज़ा के खिलाफ दे दी। अटॉर्नी जनरल की इस राय से आरोपी प्रशांत भूषण को एक मजबूत सहारा मिल गया।

● बार-बार आरोपी से यह कहना कि पुनर्विचार के लिये कुछ समय ले लीजिये और आरोपी का बार-बार इनकार करते रहना कि मुझे और समय नहीं चाहिए मैं जो कह चुका हूं उस पर अडिग हूँ। क्या यह सब अदालत की एक बेबसी जैसी अवस्था नहीं लगती है?

दरअसल अक्सर अवमानना मामलों में आरोपी माफ़ी मांग लेते हैं और इस संकट से मुक्त हो जाते हैं। अदालत को भी लग रहा था कि या तो प्रशांत भूषण सीधे माफी मांग लेंगे या अपने बचाव में कुछ ऐसा कहेंगे जो अफसोस जताते हुए दिखेगा। उसी आधार पर वे इस मामले के पटाक्षेप के लिये एक सरल मार्ग खोज लेंगे।

पर ऐसा नहीं हुआ। पर प्रशांत भूषण के दृढ़ रवैये मीडिया में लगातार चर्चा होते रहने और देश और दुनिया भर में वकीलों, बुद्धिजीवियों और जनता में हो रही प्रतिक्रियाओं तथा उत्सुकता से यह मामला दिलचस्प बन गया। प्रशांत भूषण ने जो जवाब दाखिल किया उसमें कुछ ऐसे तथ्य उन्होंने दिए जिसे प्रशांत भूषण के ही वकील दुष्यंत दवे ने फैसले के पहले सुनवाई के दौरान यह कह कर पढ़ने से मना कर दिया था कि इससे कुछ लोग असहज हो सकते हैं और इसे जज साहबान खुद ही पढ़ लें।

कल भी जब इसी बिंदु पर प्रशांत भूषण के वकील राजीव धवन ने उस अंश को पढ़ना शुरू कर दिया तभी जस्टिस अरुण मिश्र ने उन्हें रोक दिया। आरोपी के बचाव पर फिर न तो कोई बहस हुयी और न ही चर्चा और न ही 14 अगस्त के इस मुकदमे के फैसले में इसका कोई उल्लेख किया गया।

जस्टिस अरुण मिश्रा का यह कहना, ” आपने अपने जवाबी हलफनामे में अपना बचाव किया है या हमें उकसाया है “ बहुत कुछ कह देता है।

अटॉर्नी जनरल ने भी जब पांच जजों द्वारा सुप्रीम कोर्ट की आलोचना का उल्लेख करना शुरू किया तो जस्टिस अरुण मिश्रा ने उन्हें रोक दिया कि आप मेरिट पर न कुछ कहें। इसके पहले, अटॉर्नी जनरल के वेणुगोपाल यह कह चुके थे कि आरोपी को सज़ा नहीं देनी चाहिए।

मेरिट पर कुछ न कहें यानी मुकदमा, मेरिट पर नहीं तो फिर किस पर सुना जाएगा।  कानूनी जानकर इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं और दुनिया भर के कानून विदों की इस पर नज़र है। यह मुकदमा लीगल हिस्ट्री में एक चर्चित मुकदमे के लिये जाना जाएगा। शायद सुप्रीम कोर्ट ने भी यह नहीं सोचा होगा कि यह केस इतना जटिल हो जाएगा। प्रशांत भूषण को सज़ा मिले या न मिले यह अब महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट ने सारी कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करते हुए एक पारदर्शी सुनवाई की है ?

यह सुनवाई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से हो रही थी अन्यथा अगर यह नियमित और वास्तविक न्यायालय कक्ष में होती तो और बेहतर होता। प्रशांत भूषण ने अपने खिलाफ अवमानना मामले में अदालत में कल 20 अगस्त को जो बयान दिया, उसे आप यहां पढ़ सकते हैं।  

माननीय न्यायालय का फैसला सुनने के बाद मैं आहत और दुखी हूं कि मुझे उस अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है जिसके प्रभुत्व को बनाये रखने के लिये मैं निजी और पेशेगत रूप में तीस सालों से किसी चाटुकार और दुंदुभिवादक की तरह बल्कि एक विनम्र रक्षक के रूप में मुस्तैद रहा हूँ । मुझे इस बात की तकलीफ नहीं है कि मुझे सज़ा दी जा रही है। बल्कि मैं इसलिए आहत हूँ कि मुझे गलत समझा गया है।

मैं स्तब्ध हूँ कि मुझे अदालत ने न्याय व्यवस्था पर दुर्भावनापूर्ण और योजनाबद्ध तरीके से हमले का दोषी पाया है। और मुझे पीड़ा भी हुई कि अदालत ने मुझे वह शिकायत नहीं प्रदान की जिसके आधार पर अवमानना की गई थी। मैं इस बात से निराश हूं कि कोर्ट ने मेरे हलफनामे पर विचार नहीं किया। मेरा मानना है कि संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा के लिए किसी भी लोकतंत्र में खुली आलोचना होनी चाहिए इसी के तहत मैंने अपनी बात रखी थी।  मुझे यह सुनकर दुःख हुआ है कि मुझे अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है। मुझे दुख इस बात का नहीं है की मुझको सजा सुनाई जाएगी, लेकिन मुझे पूरी तरह से गलत समझा जा रहा है। मैंने जो कुछ कहा वो अपने कर्तव्य के तहत किया।

अगर माफी मांगूंगा तो कर्तव्य से मुंह मोड़ना होगा। मेरे ट्वीट एक नागरिक के रूप में मेरे कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए थे। ये अवमानना के दायरे से बाहर हैं ।अगर मैं इतिहास के इस मोड़ पर नहीं बोलता तो मैं अपने कर्तव्य में असफल होता। मैं किसी भी सजा को भोगने के लिए तैयार हूं जो अदालत देगी। माफी मांगना मेरी ओर से अवमानना के समान होगा। मेरे ट्वीट सद्भावनापूर्ण विश्वास के साथ थे। मैं कोई दया नहीं मांग रहा। ना उदारता दिखाने को कह रहा हूं। जो भी सजा मिलेगी वो सहज स्वीकार होगी।”

यहां पर यह साफ हो जाता है कि प्रशांत भूषण अपने ट्वीट के लिए माफी मांगने के लिए तैयार नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने माफी के बारे में एक बार फिर 24 अगस्त तक सोच लेने का वक़्त दिया है। अदालत ने प्रशांत भूषण को अपमानजनक ट्वीट के लिये क्षमा याचना से इंकार करने संबंधी अपने बगावती बयान पर पुनर्विचार करने और बिना शर्त माफी मांगने के लिये 24 अगस्त तक का समय दिया। न्यायालय ने अवमानना के लिये दोषी ठहराये गये भूषण की सजा के मामले पर दूसरी पीठ द्वारा सुनवाई का उनका अनुरोध ठुकरा दिया है।

हालांकि, प्रशांत ने कोर्ट में ही कहा कि मुझे समय देना कोर्ट के समय की बर्बादी होगी। क्योंकि यह मुश्किल है कि मैं अपने बयान को बदल लूं। इस बीच अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल भी सुप्रीम कोर्ट से प्रशांत भूषण को सजा न देने की अपील की।

अवमानना के इस मामले में अवमाननाकर्ता को अधिकतम छह महीने की साधारण कैद या दो हजार रुपए तक का जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है।

प्रशांत भूषण ने कितनी अवमानना की है और कितनी नहीं की है यह बिंदु अब नहीं रहा, बल्कि अब यह सवाल है कि क्या खुद की अवमानना से निपटने के लिये अदालत, स्थापित और आवश्यक कानूनी प्रक्रिया को भी बाइपास कर सकती है ? अगर ऐसा है तो नियम, कायदा, कानून, गवाही, जिरह, बहस, रूलिंग आदि का कोई मतलब ही नहीं रहा। अदालत यह तो चाहती है कि प्रशांत भूषण माफी मांग कर इस धर्मसंकट से मुक्त करें पर वह उनके विस्तृत बयान जिसमें अन्य जजों के बारे में भी उल्लेख है पर चर्चा न की जाए।

क्योंकि वह चर्चा न्यायपालिका को असहज कर सकती है। बार-बार ट्वीट की बात की जा रही है। ट्वीट में यह कहा गया है कि पिछले 6 सालों और विशेषकर पिछले चार सीजेआई के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों से लोकतंत्र को आघात पहुंचा है। अब यह आघात कैसे पहुंचा है यह प्रशांत भूषण ने अपने 134 पेज के जवाब में बताया है। पर इस पर तो बहस ही नहीं हुयी और न ही चर्चा। अदालत यही चाहती रही कि प्रशांत भूषण माफी मांगे और यह मामला निपट जाए। अब 24 अगस्त तक का इंतजार है। अगली तारीख 25 अगस्त को निर्धारित है।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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