राहुल गांधी की भटकती भारत जोड़ो यात्रा

अपनी भारत जोड़ो यात्रा में मध्य प्रदेश पहुंचते ही राहुल गांधी का अचानक ‘व्यक्तित्वांतरण’ हो गया! अपनी पदयात्रा में अब तक वह बेरोजगारी, महंगाई, सत्ताधारियों की विभाजनकारी और समुदायों के बीच दरार पैदा करने वाली सांप्रदायिक नीतियां जैसे प्रमुख राष्ट्रीय सवालों को उठा रहे थे। लेकिन मध्य प्रदेश आकर उनका या उनके पार्टी-रणनीतिकारों/सलाहकारों का ‘हिन्दुत्वा-प्रेम’ अचानक जाग गया। राहुल मंदिर-मंदिर जाकर सिर्फ पूजा ही नहीं करते नजर आये, वह तरह-तरह के कर्मकांडों में भी संलिप्त देखे गये।

निस्संदेह, हमारे संविधान का अनुच्छेद-25 राहुल गांधी या किसी भी नागरिक को पूजा-उपासना आदि की धार्मिंक स्वतंत्रता देता है। लेकिन यहां एक नागरिक की पूजा-उपासना का मसला नहीं था। एक बड़े राजनीतिक अभियान पर निकले देश के एक बड़े राजनीतिक नेता की कर्मकांडी धार्मिकता का यह सार्वजनिक प्रदर्शन था। चित्रों, वीडियो और लाइव फुटेज के जरिये इनका देशभर में प्रदर्शन या प्रसारण हुआ। ऐसा लगा मानो राहुल गांधी को कोई निर्देशित कर रहा है कि अब आप हिन्दी-भाषी क्षेत्र में आ गये हो, यहां मोदी जी को चुनौती देनी है तो ‘कर्मकांडी-धार्मिकता’ के खुले प्रदर्शन को राजनीतिक-अस्त्र की तरह इस्तेमाल करना होगा! 

राहुल ने अपनी कथित ‘भारत की खोज और कांग्रेस की भावी राजनीतिक-रणनीति तलाशने के अपने अभियान को किनारे लगाया और किसी नौसिखुए पुजारी की तरह कर्मकांडी-धार्मिकता में जुट गये। रंग-बिरंगे वस्त्रों को धारण कर मंदिर-मंदिर जाने लगे। उनके मंदिर या किसी उपासना स्थल जाने पर भला किसी को क्या आपत्ति होती! यात्रा के दौरान वह अगर किसी मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे या चर्च, किसी आम धार्मिक आदमी की तरह जाते तो किसी तरह का सवाल नहीं उठता। लेकिन मंदिर जाने से पहले उन्होंने पैंट-शर्ट का त्याग किया और रंगबिरंगे कर्मकांडी वेश धारण कर गये।

भाजपा के शीर्ष नेताओं की तरह उनकी नियोजित कर्मकांडी-धार्मिकता का सार्वजनिक स्तर पर खुलेआम प्रदर्शन और प्रचार-प्रसार शुरू हो गया। उनके बहुत सारे समर्थकों को उनका यह रूप बहुत पसंद आया। लेकिन बहुतों को नागवार भी गुजरा। अनेक लोगों ने सोशल मीडिया में टिप्पणियां कीं। इनका कहना था कि राहुल गांधी अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा के अन्य शीर्ष नेताओं की तरह कर्मकांडी-धार्मिकता के अपने नियोजित कार्यक्रमों के ऐसे सार्वजनिक प्रदर्शन को प्रोत्साहित करेंगे तो वह ‘छोटा मोदी’ भले बन जायं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक विकल्प नहीं बन सकते हैं।

धार्मिकता व्यक्ति का निजी मामला है। इसलिए इसका इस्तेमाल सामाजिक या राजनीतिक मामलों में नहीं होना चाहिए। धार्मिकता को किसी व्यक्ति या किसी संगठन के फायदे या राजनीतिक-विस्तार का अस्त्र नहीं बनाया जाना चाहिए। यह संदेश हमारे संविधान और चुनाव की आचार-संहिता सम्बन्धी दस्तावेज में भी निहित है। लेकिन आरएसएस-भाजपा आदि वर्षों से धर्म और धार्मिकता का अपने राजनीतिक विस्तार के लिए खुलेआम इस्तेमाल करते आ रहे हैं।

कांग्रेस की तत्कालीन सरकारों ने उन्हें इससे रोका भी नहीं। उसके कुछ नेता स्वयं भी ऐसा आचरण करते रहते थे। रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद और उसके बाद के घटनाक्रम में कांग्रेस और कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकारों की भूमिका की पड़ताल से इसकी पुष्टि होती है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है-क्या राहुल गांधी कांग्रेस की उसी धारा और विरासत को आगे बढ़ाना चाहते हैं या अतीत की गलतियों से सबक लेकर कांग्रेस को नया रास्ता-नया विचार देने की कोशिश करना चाहते हैं?

राहुल गांधी कभी-कभी भारत के विख्यात मानवतावादियों, महान् समाज-सुधारकों और सुंसगत सोच वाले बड़े राजनेताओं की तरह बोलते नजर आते हैं। हाल के दिनों में उनकी पहल पर कांग्रेस के सोच में कुछ बदलाव भी नजर आये। लेकिन बात जब ठोस फैसलों और व्यावहारिक राजनीति की आती है तो वह पूरी तरह ऐसे नहीं नजर आते। अन्य नेताओं की तरह ही उनके शब्द और कर्म में फर्क नजर आता है। आखिर उन्होंने मध्य प्रदेश आकर अपनी कर्मकांडी-धार्मिकता का खुलेआम प्रदर्शन क्यों किया?

मध्य प्रदेश के किसानों की अंतहीन पीड़ा, आदिवासियों की दुर्दशा, बेरोजगारी के चलते युवाओं की बेहाली, नौकरियों में ठेका प्रथा, महंगाई और आरएसएस-हिन्दू परिषद आदि के असर के चलते बर्बाद हो रहे प्रदेश के समूचे शिक्षा-तंत्र जैसे मुद्दों में उन्हें क्या कोई राजनीतिक-जान नहीं नजर आई? उन्होंने अपनी पदयात्रा के बुनियादी मुद्दों से यहां आकर किनारा क्यों कर लिया?

मध्य प्रदेश या देश के किसी भी प्रदेश की कितनी हिन्दू-धर्मावलंबी आबादी राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी की तरह ऐसी भव्य और आकर्षक कर्मकांडी-पूजा का प्रदर्शन करती है?जितना मैंने देखा और सुना है, ऐसी कर्मकांडी-पूजा का प्रदर्शन या तो देश-प्रदेश के बड़े नेतागण करते हैं या फिर फिल्मों या टीवी सीरियलों के दृश्यों में होता है या फिर बड़े धन्नासेठों के यहां होता है। आम हिन्दू धर्मावलंबी जनता कहां ये सब करती है? वह तो पास के किसी मंदिर या अपने घर के तुलसी पौधे या उगते सूरज के सामने जल ढारकर ही अपने ईश्वर को याद कर लेती है। इस मामले मे ज्यादातर लोग संत कबीर, गुरु नानक या समाज सुधारक संत रैदास की वाणी के अनुयायी हैं, जो कहा करते थे कि मनुष्य की भलाई ही असल धर्म है, मन चंगा तो कठौती में गंगा!

यह बात भी उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी ने अपनी कर्मकांडी-धार्मिकता का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन पहली बार नहीं किया। सन् 2018 की सर्दियों में भी ऐसा देखा गया था। मध्य प्रदेश के चुनाव-प्रचार अभियान में उनके ऊपर अचानक ‘हिन्दुत्व’ हावी हो गया। वहां के पार्टी के प्रमुख नेताओं-कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया(तब सिंधिया कांग्रेस के प्रमुख नेता थे) के साथ वह मंदिर-मंदिर घूमने लगे और रंग-बिरंगी पुजारी-वेशभूषा में शंख-घंटा बजाते नजर आये।

शिवराज सिंह की तत्कालीन सरकार के खिलाफ कई वर्षों की एंटी-इनकम्बेंसी थी। चुनाव-नतीजे कांग्रेस के पक्ष में गये, हालांकि पार्टी को बहुत टिकाऊ बहुमत नहीं मिला। कुछ ही महीनों बाद कमलनाथ की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार गिर गयी और भाजपा फिर से सत्ता में आ गयी। चुनाव-प्रचार के दौरान राहुल को मंदिर-मंदिर घुमाने वाले सिंधिया अपने कई समर्थक-विधायकों के साथ भाजपा में चले गये। अब वह भाजपा की मोदी सरकार में मंत्री हैं।

राहुल गांधी को यह बात अच्छी तरह मालूम है किभाजपा ने ‘कर्मकांडी धार्मिकता’ और‘हिन्दुत्व’का इस्तेमाल कर उत्तर और मध्य भारत में अपना चुनावी-आधार तैयार किया है। क्या ऐसी भाजपाका मुकाबला ठीक उसी के रास्ते चलकर किया जा सकता है? फिर लोगआपको प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का और आपकी पार्टी को भाजपा का विकल्प क्य़ों और कैसे स्वीकार करेंगे? क्या ब्राजील के विवादास्पद और कट्टरपंथी राष्ट्रपति बोलसोनारो से मुकाबला करने के लिए वहां के विपक्षी नेता लूला द सिल्वा ने बोलसोनारो के ही राजनीतिक तरीकों को अपनाया? लूला ने बोलसोनारो से बिल्कुल अलग रास्ता चुना। उन्होंने सुसंगत लोकतांत्रिक और जनपक्षी नीतियों पर चलने के वादे के साथ बोलसोनारो की कट्टर-दक्षिणपंथी सत्ता को चुनौती दी। फिर विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के सबसे प्रमुख नेता राहुल गांधी अपने को और अपनी पार्टी को देश की सबसे ‘सुसंगत सेक्युलर-डेमोक्रेटिक शक्ति’ मानने के बावजूद समय-समय पर मोदी के हिन्दुत्ववादी एजेंडों का क्यों उपयोग करते नजर आते हैं? कुछ महीने पहले उन्होंने जयपुर की महंगा-विरोधी रैली में एक बेहद अटपटा सा बयान दे डाला था कि यह देश हिन्दुओं का है! बीच-बीच में वह इस तरह की हिन्दुत्ववादी फुलछड़ी क्यों छोड़ते हैं, इसका जवाब तो वहया उनके विद्वान सलाहकार ही दे सकते हैं? क्या उन्हें अब भी भरोसा है कि आरएसएस-भाजपा के कट्टर-हिन्दुत्व और सरकार के संविधान-विरोधी रवैये का मुकाबला इस तरह के कथित ‘नरम हिन्दुत्वा’ से किया जा सकता है?

यह बात सही है कि कांग्रेस में ‘एक भाजपा’ हमेशा रही है।जिस तरह हमारे समाज के एक हिस्से में घोर हिन्दुत्ववादी या संकीर्ण ब्राह्मणवादी मूल्यों की उपस्थिति हमेशा रही है, ठीक उसी तरह देश की सबसे पुरानी पार्टी और सबसे अधिक समय सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी में भी रही है। राहुल गांधी अगर सचमुच आधुनिक सोच और वैज्ञानिक मिजाज के व्यक्ति हैं तो उन्हें अपनी पार्टी के अंदर के संकीर्णतावादियों से भी सतर्क रहना होगा।

भारत के जटिल राजनीतिक परिदृश्य को समझने और अपनी गलतियों से सबक लेने का राहुल के पास अब भी वक्त है। किसी धर्म को मानने का मतलब यह नहीं कि उसके नाम पर सत्ता-राजनीति की गोटियां बिछाई जायं!जिस देश में चौदहवीं-पंद्रहवी शताब्दी में कबीर, नानक और रैदास जैसे संत समाज-सुधारक हो चुके हों, वहां 21 वीं सदी के इस तीसरे दशक में हमारे नेतागण समाज को किधर ले जाना चाहते हैं—आगे या पीछे? ऐसे सभी नेताओं को समझना होगा कि वे समाज को पीछे ले जाकर देश को आगे नहीं ले जा सकते।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार-लेखक हैं।)

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