Friday, March 29, 2024

कश्मीर को भारत में मिलाने का नहीं, बल्कि उससे अलग करने का है यह निर्णय

नोटबंदी, जीएसटी की बदइंतजामी से जुड़ी मंदी के आर्थिक दुष्परिणामों और कश्मीर नीति से पैदा होने वाली राजनीतिक अराजकता को संभालने की कसरत में ही अब मोदी सरकार का आगे का कार्यकाल पूरा होगा । 

कश्मीर संबंधी जो धाराएँ भारतीय जनतंत्र और संघीय ढाँचे का सबसे क़ीमती गहना थी, उन्हें उसके शरीर से नोच कर बीजेपी हमारे जनतंत्र को विपन्न और बदसूरत बना रही है । 

कश्मीर की जनता के साथ तो यह ऐसी बदसलूकी है कि यदि इसी तरह चलता रहा तो आगे कश्मीर घाटी में चिराग़ लेकर ढूँढने पर भी शायद भारत के साथ रहने की आवाज़ उठाने वाला कश्मीरी नहीं मिलेगा । 

कश्मीर को भारत से जोड़ने वाली धारा की समाप्ति का अर्थ है कश्मीर को भारत से तोड़ने वाली राजनीति को मान्यता । मोदी सरकार ने बिल्कुल यही किया है । 

कश्मीर के बारे में यह प्रयोग केंद्रीकृत शासन के लक्षण हैं जो आगे नग्न तानाशाही की शासन प्रणाली के रूप में ही प्रकट होंगे । मोदी जी ने अपनी दूसरी पारी का प्रारंभ संविधान की पोथी पर माथा टेक कर किया था, लेकिन अभी तीन महीने बीते नहीं हैं, उसी संविधान की पीठ पर वार किया है । 

भारतीय राज्य का संघीय ढाँचा ही हमारे वैविध्यपूर्ण राष्ट्र की एकता की मूलभूत संवैधानिक व्यवस्था है । इसे कमजोर बना कर राष्ट्र के किसी भी हित को नहीं साधा जा सकता है । कश्मीर के विषय में की गई घोषणा हमारे पूरे संघीय ढाँचे के लिये ख़तरे का खुला संकेत है । 

यह राष्ट्रीय एकता पर तो एक प्रत्यक्ष कुठाराघात साबित होगा । यह भारत-विरोधी अंतरराष्ट्रीय ताक़तों को पूरे भारत में खुल कर खेलने का अवसर प्रदान करेगा ।

नोटबंदी की तरह ही कश्मीर के प्रयोग आरएसएस की विचारधारा के कुत्सित ठोस रूप हैं । इतिहास-बोध शून्य राजनीति का इससे बुरा दूसरा उदाहरण संभव नहीं है । बहुत से बुरे विचार भी जब तक महज विचार रहते हैं, बहुतों को आकर्षित करते हैं । अर्थात् प्रभाव की उनकी क्षमता तब भी बची रहती है । लेकिन उन पर अमल करने के बाद वे सिर्फ और सिर्फ बुराई के मूर्त रूप रह जाते हैं । कहना न होगा, नोटबंदी ने मोदी सरकार की अर्थनीति को पंगु किया, अब कश्मीर से उसकी राजनीति पर भी लकवा मारेगा । यह बुरी राजनीति आगे इनके भविष्य को ही बर्बाद करेगी । 

अभी सरकार जिस प्रकार के खुले दमनकारी रास्तों को अपना रही है, इसके बाद भारत की राजनीति शायद वह नहीं रह सकती है, जो अब तक रही है । 

यह सभी राजनीतिक दलों के लिये एक बड़ी चुनौती का समय है । जनतंत्र और संघीय ढाँचे की रक्षा की लड़ाई भारत की जनता की नई गोलबंदी से ही संभव होगी ।

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