Thursday, March 28, 2024

आजादी की लड़ाई की कब्र पर हिंदुत्व का फूल खिलाने की कोशिश!

शुरुआत हुई थी जवाहर लाल नेहरू से। नेहरू को संघी आखिरी अंग्रेज घोषित किए थे। और उनके बहाने सेकुलर शब्द को सबसे ज्यादा बदनाम किया गया था। और आखिर में सेकुलर को सेखुलर करार देते हुए उसे एक गाली में तब्दील करने की कोशिश की गयी। दिलचस्प बात यह है कि यह सब कुछ वह जमात कर रही थी जो अंग्रेजों को अपना दोस्त करार देती थी। वह इसी बिना पर आजादी की लड़ाई से बिल्कुल अलग रही। दुश्मन का दुश्मन दोस्त करार देते हुए न केवल आजादी की लड़ाई के दौरान उसकी पिट्ठू बनी रही बल्कि आज भी वह अपने को अंग्रेजों के स्वामिभक्त के तौर पर पेश करती है। मजेदार बात यह है कि इस दौरान अंग्रेजों का साथ देते हुए भी नेहरू को आखिरी अंग्रेज कहकर उन्हें बदनाम करने की उसने स्वतंत्रता हासिल की थी।

उसके बाद पटेल को केंद्र में रखकर उसने नेहरू को खारिज करने के अपने सिलसिले को जारी रखा और फिर इसके जरिये सेकुलर शब्द को बदनाम करने के अपने लक्ष्य को और पुख्ता रूप दिया। इस तरह से पटेल बनाम नेहरू का मतलब हिंदू बनाम सेकुलर के तौर पर पेश किया जाने लगा। जबकि पटेल किसी भी रूप में न तो संघ के करीब जाते हैं न ही कभी नेहरू के साथ उनका कोई गहरा राजनैतिक मतभेद रहा। लेकिन संघ ने दोनों के बीच अपने हितों के मुताबिक दरार पैदा करने की कोशिश की। दरअसल संघ के पास अपना ऐसा कोई हिंदुत्व का चेहरा नहीं था जो आजादी की लड़ाई से निकला हो और वह उसे आगे कर सके। लिहाजा पटेल उसकी मजबूरी थे। पटेल एक सूत्र थे जिसके जरिये वह आजादी की लड़ाई के आइकनों को खुद से जोड़ सकता था।

फिर मामला आगे बढ़ा और गांधी बनाम सुभाष और नेहरू बनाम सुभाष किया जाने लगा। उसमें भी सुभाष को अपने पक्ष में करके कभी गांधी को तो कभी नेहरू को गाली दी जाती रही। इसी में पता चला कि आगे देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को भी शामिल कर लिया गया और संघ ने उन्हें अपने मोहरे के तौर पर नेहरू के खिलाफ इस्तेमाल करना शुरू किया। मामले को और आगे बढ़ाकर इसने भगत सिंह के बहाने गांधी और नेहरू पर निशाना साधना शुरू किया। और भगत सिंह को फांसी से बचाने के मामले में नेहरू और गांधी की भूमिकाओं को लेकर सवाल खड़ा किया जाने लगा। लेकिन गांधी के मामले में संघ फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ा रहा था।

उन्हें न तो एकबारगी खारिज करने की वह हिम्मत कर सकता था और न ही उसने ऐसा कुछ किया जिससे वह खुद ही सवालों के घेरे में खड़ा हो जाए। कई बार गोडसे के महिमामंडन की कुछ घटनाएं आयीं तो उसने अपने कदम पीछे खींच लिए। लेकिन इस बीच गांधी की राष्ट्रीय स्तर पर हैसियत को कम करने की कोशिशें लगातार जारी रहीं। और फ्रिंज तत्वों को इस बात की पूरी छूट रही कि वो गांधी की हर तरीके से लानत-मलानत करते रहें। इसमें चरित्र हनन से लेकर उनके द्वारा प्रतिपादित किए गए हर तरह के मूल्यों का मान-मर्दन शामिल था। फिर गांधी को सीमित करने का संगठित अभियान चलाया गया। इसमें केंद्र में बनी मोदी सरकार की भूमिका बेहद अहम रही।

उसने गांधी को उनके मूल्यों से काटकर उनके पूरे व्यक्तित्व को स्वच्छता के दायरे में सीमित कर दिया। जिसमें न तो गांधी के मूल्य हैं न विचार। बल्कि गांधी सफाई पर कितना जोर देते थे मौजूदा मोदी सरकार के लिए उनकी यही उपयोगिता थी। जनता के मानस से गांधी को हटाने के लिए पोस्टरों से उनके चेहरे तक को गायब कर दिया गया और महज उनके चश्मे से काम चलाया जाता रहा। और इस तरह से आजादी की लड़ाई के जितने आइकन थे संघ ने उन्हें आपस में लड़ाने का काम किया और पूरी लड़ाई को ही अपने तरीके से एक कीचड़ में बदलने की कोशिश की गयी। जिसमें तमाम व्यक्तित्व एक दूसरे से लड़ रहे हैं।

और अब जब पटेल की भूमिका समाप्त हो गयी और संघ ने उनका अपनी इच्छा और जरूरत के मुताबिक दोहन कर लिया है तो अब उनकी भी कोई जरूरत नहीं रही। अब उसके पास गोडसे और सावरकर हैं। उसने पटेल से भी उन्हें आगे कर दिया है। वह सावरकर जिन्होंने न केवल अंग्रेजों से छह-छह बार माफी मांगी बल्कि उनकी पेंशन पर जीवन भर मौज किए। और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों के खिलाफ नॉर्थ-ईस्ट में मोर्चा ले रहे थे तब सावरकर अंग्रेजी सेना में भर्ती के लिए चौराहों-चौराहों पर सैनिकों की भर्ती के कैंप लगा रहे थे। किसी को नहीं भूलना चाहिए कि एक दौर में संघ ने सुभाष का इस्तेमाल नेहरू और गांधी को बदनाम करने के लिए किया था और अब उसी सुभाष की विरासत की कब्र पर उसने सावरकर को खड़ा कर दिया है।

लिहाजा संघ को परेशानी आजादी की लड़ाई के किसी एक दो नायक से नहीं बल्कि पूरी लड़ाई से ही है। जिसमें उसका अपना कोई भागीदार नहीं है। लिहाजा उसमें उसके लिए कुछ नहीं बचा है। और उससे भी ज्यादा परेशानी उससे पैदा हुए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के उसके मूल्यों से है। उस सेकुलर विचार से है जिसके बगैर लोकतंत्र की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। उसको परेशानी उस लोकतंत्र से है जिसमें सबको बराबरी का दर्जा मिलता है। वह गरीब हो या कि अमीर, कथित उच्च जाति का हो या कि कथित शूद्र। संविधान के सामने सबकी हैसियत बराबर है। तमाम श्रेणियों में विभाजित वर्णाश्रम की हिंदू व्यवस्था के यह सर्वथा खिलाफ है। ऐसे में हिंदू धर्म और उसकी वर्णव्यवस्था में विश्वास करने वालों के लिए भला कोई लोकतांत्रिक-सेकुलर निजाम आदर्श कैसे हो सकता है? लिहाजा संघ को पूरी आजादी की लड़ाई को ही खारिज करना है।

उसे और उसके नायकों को आपस में लड़ा कर इतना बदनाम कर देना है कि सावरकर जैसा बौना व्यक्ति देश का नायक लगने लगे। लिहाजा गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, भगत सिंह, अंबेडकर से लेकर हर नायक को इतना बौना कर देना है कि वह सावरकर से नीचे दिखने लगे। और फिर एक ऐसा माहौल बनाया जाए जिससे पूरी आजादी की लड़ाई छोटी दिखने लगे और हिंदू राष्ट्र के निर्माण का कार्यभार उससे बड़ा। और उसी को अंतत: असली आजादी के तौर पर पेश किया जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रेम, भाईचारा, सद्भाव, बराबरी, लोकतंत्र, सेकुलरिज्म, स्वतंत्रता, समानता अगर यह सब कुछ कहीं है तो वह संघियों की निगाह में खटकता रहेगा। उसे नफरत, घृणा और हर तरह के द्वेष पसंद हैं। और यह किसी मुसलमान के संदर्भ में ही सही नहीं है। बल्कि हिंदुओं के भीतर भी दलितों के खिलाफ, महिलाओं के खिलाफ और ट्रांस जेंडरों के खिलाफ बेहद गहराई से बैठा है। बाकी जातियों के बीच इसका पैमाना कम ज्यादा हो सकता है लेकिन वहां भी मौजूद है।

आजादी की लड़ाई के खिलाफ रहते हुए उसके दो प्रतीकों का भी संघियों ने बेहद कारगर तरीके से इस्तेमाल किया। वह है राष्ट्रवाद और तिरंगा झंडा। राष्ट्रवाद को खुद उन्हीं लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया जो आजादी की लड़ाई की विरासत संभाल रहे थे या फिर उसको आगे बढ़ाने का काम कर रहे थे। कभी भीमा कोरेगांव के बहाने तो कभी मुस्लिमों का साथ देने और सेकुलरिज्म की पक्षधरता को स्थापित करने के चलते उन्हें देशद्रोही करार दिया जाता रहा। पता चला दंगे संघी प्रायोजित कर रहे हैं और पीड़ितों को ही उसका दोषी करार दे दिया जा रहा है और उसमें उनका साथ देने वाले मानवाधिकार कर्मियों से लेकर तमाम एक्टिविस्टों को भी पीस दिया गया।

भीमा कोरेगांव से लेकर दिल्ली दंगा और सीएए के खिलाफ आंदोलनों में इसका जमकर इस्तेमाल हुआ। और दिलचस्प बात ये है कि ये सारे दंगे और हिंसा हाथों में तिरंगे झंडे लेकर आयोजित किए गए। और अब जबकि तिरंगे की भूमिका खत्म हो गयी है तो जगह-जगह अब उसको भगवा झंडे से विस्थापित किया जा रहा है। आजकल अक्सर यह देखा जा सकता है कि इनकी भीड़ के हाथों में तिरंगा नहीं भगवा होता है। इसी तरह से तिरंगे के साथ जो राष्ट्रवादी भावना होती थी उसको भी भगवे की तर्ज पर विस्थापित कर हिंदू राष्ट्रवाद में तब्दील कर दिया गया है। और देश में खुलेआम भगवा राष्ट्रवाद की वकालत की जा रही है। यानि हिंदू राष्ट्र की। और इसी को नई आजादी की संज्ञा दी जा रही है। जिसको संघ ने कंगना रानावत के जरिये पेश किया है।

कंगना रानावत ने जो कल कहा है वो न तो उनकी स्वतंत्र इच्छा की देन है और न ही एकाएक सामने आ गया है। यह सब कुछ बेहद रणनीतिक तरीके से संघ द्वारा बहस के लिए लांच किया गया है। और उसमें कंगना को उसका चेहरा बनाया गया है। जिससे बड़े स्तर पर बहस को संचालित किया जा सके। अनायास नहीं मंच टाइम्स आफ इंडिया का था और उसकी संचालिका भगवा समर्थक नविका कुमार थीं। और उसमें इस जुमले को उछाला गया। लेकिन इसको हवा में उड़ाना ठीक नहीं है। यह एक ऐसी कोशिश है जिसमें आजादी की लड़ाई से जुड़ी तमाम कुर्बानियों को धूल-धूसरित करने की साजिश छिपी हुई है।

इसलिए इसका पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए। इस कड़ी में न केवल कंगना रानावत को माफी मांगने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए बल्कि उनके पद्मश्री के तमगे को भी वापस कराने के लिए अभियान चलाया जाना चाहिए। किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह पद्मश्री भी उसी आजादी की लड़ाई से निकले मूल्यों की उपज है। और अगर कंगना रानावत को वह भीख लगती है तो उन्हें सबसे पहले तो उसे स्वीकार ही नहीं करना चाहिए था और अगर ले ली हैं तो उसे वापस कर देना चाहिए। और अपने नये नायकों के मठों या फिर नागपुर जाकर उनसे उनका कोई पुरस्कार हासिल कर सकती हैं उस पर किसी को कोई एतराज नहीं होगा। और हां वह पुरस्कार वह काठ के घोड़े पर भी बैठकर ले सकती हैं।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles