बहुध्रुवीय विश्व का मंच बन रहा है  शंघाई सहयोग संगठन, भारत दुविधा में  

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शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की नई दिल्ली शिखर बैठक ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि अब यह संगठन एक नई विश्व व्यवस्था तैयार करने की चल रही कोशिश का एक प्रमुख मंच है। इस प्रयास से जुड़े दूसरे मंच ब्रिक्स और यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन (ईएएयू) हैं। जिस एक अन्य बात की पुष्टि नई दिल्ली में हुई, वो यह है कि भारत की इस मंच से दूरी बढ़ रही है। बल्कि अगर नई दिल्ली शिखर सम्मेलन की पृष्ठभूमि, शिखर सम्मेलन के दौरान दिए गए विभिन्न नेताओं के भाषण और अंत में जारी साझा घोषणापत्र की भाषा पर गौर करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि यह दूरी अब एक ठोस रूप ले चुकी है।

नई दिल्ली शिखर सम्मेलन से संकेत मिला कि संभवतः इस दूरी के साथ भारत फिलहाल इस मंच के साथ बना रहेगा, लेकिन वह इसकी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं होगा। चूंकि भारत ने अमेरिकी नेतृत्व वाली पश्चिमी धुरी से अपनी निकटता बना ली है, तो एससीओ के बाकी सदस्य देशों ने भी भारत की चिंताओं की परवाह करनी छोड़ दी है।

गौरतलब है कि पिछली शिखर बैठक की तरह नई दिल्ली में भी एससीओ नेताओं ने दो-टूक ढंग से बहु-ध्रुवीय दुनिया बनाने का अपना इरादा जताया। 2022 में उज्बेकिस्तान के समरकंद में हुए एससीओ शिखर सम्मेलन के दौरान यह इरादा जितने खुले ढंग से जताया गया था, उतना उसके पहले कभी देखने को नहीं मिला था। उसके पहले एससीओ की पहचान यूरेशिया में सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर इस क्षेत्र के देशों के बीच संवाद और आपसी सहयोग कायम करने वाले मंच के रूप में थी। लेकिन यूक्रेन युद्ध शुरू होने के साथ ही यह कहानी बदल गई। समरकंद से लेकर नई दिल्ली आते-आते यह इरादा एक खुले घोषणापत्र में बदल गया है।

नई दिल्ली शिखर सम्मेलन में ईरान का एससीओ के नौवें पूर्ण सदस्य के रूप में स्वागत किया गया। सम्मेलन को संबोधित करते हुए ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने जो कहा, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। रईसी ने कहा– ‘गुजरे दशकों के अनुभव के आधार पर अब यह साफ है कि सैन्यवाद (militarism) के साथ-साथ जो एक अन्य माध्यम पश्चिमी प्रभुत्व का आधार रहा है, वह (अमेरिकी मुद्रा) डॉलर का वर्चस्व है। इसलिए न्यायपूर्ण अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाने की किसी कोशिश में आपसी कारोबार में इस वर्चस्व को हटाने की जरूरत होगी।’

कुछ अन्य टिप्पणियां भी ध्यान देने योग्य हैं। 

  • किर्गिजिस्तान के राष्ट्रपति एच जपारोव ने प्रस्ताव रखा कि एससीओ के सदस्य देश आपसी कारोबार में सारा भुगतान अपनी मुद्राओं में करें। साथ ही एक एससीओ विकास बैंक और विकास कोष की स्थापना करें। (यानी एससीओ विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का विकल्प तैयार करे।)
  • कजाखस्तान के राष्ट्रपति के तोकायेव ने प्रस्ताव रखा कि एससीओ के सदस्य देश एक साझा निवेश कोष की स्थापना करें। साथ ही बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत रणनीतिक बंदरगाहों का एक नेटवर्क तैयार किया जाए।
  • रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने कहा कि एससीओ एक न्यायपूर्ण बहु-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के निर्माण के लिए संकल्पबद्ध है।
  • चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि चीन अपनी विश्व विकास पहल (ग्लोबल डेवलपमेंट इनिशिएटिव) पर अमल के लिए तैयार है, ताकि एकतरफा प्रतिबंधों के खिलाफ संघर्ष किया जा सके और वर्चस्ववाद का मुकाबला किया जा सके।     

साफ है, एससीओ में शामिल देशों ने पश्चिमी वर्चस्व को खत्म करने को अपना मकसद घोषित कर दिया है। भारत को छोड़ दें, तो बाकी सदस्य देशों ने इस कार्य में एक तरह से चीन के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है। यह तथ्य शिखर बैठक के बाद जारी दिल्ली घोषणापत्र में भी व्यक्त हुई। 

घोषणापत्र की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिएः ‘चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के प्रति अपने समर्थन को दोहराते हुए कजाखस्तान, किर्गिज रिपब्लिक, पाकिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान इस परियोजना को लागू करने के लिए चल रहे साझा कार्यों का विशेष उल्लेख करते हैं, जिनमें यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन और बीआरआई के बीच संपर्क निर्माण के प्रयास भी शामिल हैं।’

यहां गौरतलब यह है कि इस बात को कहने के लिए घोषणापत्र में एससीओ के छह सदस्य देशों का नाम लेकर जिक्र किया गया। सातवां सदस्य देश खुद चीन है, बीआरआई जिसकी अपनी परियोजना है। आठवां सदस्य देश भारत है। चूंकि भारत का इस प्रोजेक्ट से विरोध है, इसलिए घोषणापत्र में ‘सभी सदस्य देश’ शब्द का इस्तेमाल नहीं हो सकता था। तो बाकी देशों का नाम लेकर उल्लेख किया गया। 

बीआरआई पर भारत के एतराज की वाजिब वजहें हैं। चीन-पाकिस्तान इकॉनमिक कोरिडोर (सीपीईसी) बीआरआई के महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इस प्रोजेक्ट के तहत पाकिस्तान कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में निर्माण किया गया है। भारत इसे अपनी संप्रभुता का उल्लंघन मानता है, तो यह एक उचित रुख है। लेकिन अब यह साफ है कि सिर्फ चीन और पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि रूस सहित बाकी सदस्य देशों ने भी इस मुद्दे पर भारत की चिंता को सिरे से दरकिनार कर दिया है। उन्होंने खुलकर बीआरआई के प्रति अपने समर्थन का इजहार किया है।     

अनौपचारिक तौर पर यह बात पहले से कही जाती रही है कि एससीओ, ब्रिक्स, और ईएयूए अनिवार्य रूप से उस विश्व ढांचे को निर्मित करने के प्रयास का हिस्सा बन चुके हैं, जिसमें बीआरआई भी एक महत्त्वपूर्ण घटक है। अब भारत के अलावा एससीओ के तमाम अन्य सदस्य इस बात को औपचारिक रूप से भी कहने लगे हैं। बल्कि नई दिल्ली शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने यह कहने में कोई कोताही नहीं बरती कि एससीओ ने उनकी सोच को अपना लिया है।

शी जिनपिंग ने कहा– ‘दुनिया में आते बदलावों, अपने समय और इतिहास की दिशा के मद्देनजर दस साल पहले मैंने राय जताई थी कि एक वैश्विक गांव में रहते हुए मानव समाज उत्तरोत्तर साझा भविष्य वाला समुदाय बनता जा रहा है, जिसमें सबके हित एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। उसके बाद से साझा भविष्य वाले समुदाय के रूप में मानव समाज की अवधारणा को विस्तृत मान्यता मिलती चली गई है। उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन मिला है और इस विचार को अमली जामा पहनाया गया है। यह एक यथार्थ दृष्टि में तब्दील हुआ है। इस रुझान के अग्रिम कतार में एससीओ है, जो साझा भविष्य वाले समुदाय के निर्माण के लिए इस अवधारणा और शंघाई भावना का परचम थामे हुए है।’

इस सिलसिले में शी ने बीआरआई का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा- ‘दस साल पहले मैंने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का प्रस्ताव सामने रखा था। उसकी दसवीं सालगिरह पर चीन अंतरराष्ट्रीय सहयोग को आगे बढ़ाने के लिए बेल्ट एंड रोड फोरम का आयोजन करेगा। उसमें भागीदारी के लिए हम आपको आमंत्रित करते हैं। पूरी दुनिया के फायदे में, खुशी के रास्ते के रूप में बेल्ट एंड रोड को व्यापक बनाने के लिए हम सबको मिल कर काम करना चाहिए।’ 

स्पष्ट है, शी जिनपिंग ने एससीओ और बीआरआई को एक ही प्रयास के दो पहलुओं के रूप में पेश किया। दरअसल, नई दिल्ली शिखर सम्मेलन को उन्होंने अपनी विश्व दृष्टि को दोहराने का मौका बनाया।

कहा जा सकता है कि एससीओ जिस मुकाम पर पहुंचा है, वह उसकी यात्रा का स्वाभाविक परिणाम है। अगर भौतिक विज्ञान की शब्दावली का इस्तेमाल करें, तो कह सकते हैं कि अपने आर्थिक उदय के साथ चीन ने विकासशील दुनिया को एक क्रांतिक द्रव्यमान (critical mass) उपलब्ध कराया है, जहां इकट्ठा हो कर ये देश कई सदियों से कायम उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी शिकंजे से अपने को मुक्त करने का इरादा साकार कर करने की स्थिति में हैं। NATO के जरिए आगे बढ़ाए जा रहे पश्चिमी विस्तारवाद ने रूस को एकध्रुवीय वैश्विक ढांचे को खत्म करने की परियोजना का हिस्सा बनने के लिए मजबूर किया है। इससे एक आर्थिक और एक सैनिक महाशक्ति एक धुरी पर आ जुड़ी हैं। इससे एससीओ और ब्रिक्स जैसे मंचों की दिशा तय हो गई है।

भारत सरकार की सोच चूंकि इस दिशा से अलग है, इसलिए देर-सबेर यहां उसके लिए असहज स्थितियां बनना लाजिमी ही था। लगता है कि अब ऐसा होने की स्थिति सामने आ गई है। इस स्थिति को पैदा करने में भारत की वर्तमान सत्ताधारी पार्टी की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का घरेलू सियासत के लिए इस्तेमाल की रणनीति भी एक हद तक जिम्मेदार है। इसी का परिणाम दिल्ली शिखर बैठक में दिखा, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान को निशाना बनाते हुए एससीओ से कहा कि उसे ‘आतंकवाद को संरक्षण’ देने वाले देश की निंदा करने में कोताही नहीं बरतनी चाहिए। इसके जवाब में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने यह टिप्पणी कर दी- ‘राजनीतिक एजेंडे की आड़ में धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिये पर नहीं धकेला जाना चाहिए।’ 

इसके पहले इस वर्ष मई में जब गोवा में एससीओ विदेश मंत्रियों की बैठक हुई थी, तब विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पाकिस्तान पर करारा हमला बोला था। भारतीय मीडिया में ये दोनों टिप्पणियां सुर्खियों में रहीं। लेकिन एससीओ के सदस्य देशों पर इसका अनुकूल प्रभाव पड़ा, यह कहने का कोई आधार नहीं है।

इसी बीच अमेरिका ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन को घेरने की अपनी रणनीति में भारत को प्रमुख स्थान देने की नीति अपनाई। इसके तहत मई में प्रधानमंत्री मोदी को जी-7 देशों की शिखर बैठक में हिरोशिमा आमंत्रित किया गया। फिर 22 जून को उन्हें राजकीय यात्रा पर ह्वाइट हाउस आमंत्रित किया गया, जहां उनके स्वागत में अमेरिका की दोनों प्रमुख पार्टियों ने नेतृत्व ने पलक पांवड़े बिछा दिए। अमेरिका की इस बेसब्री के जवाब में भारत सरकार ने उसे यह संकेत देने का प्रयास किया कि उसके वर्चस्व को कमजोर करने के प्रयास में वह भागीदार नहीं है। संभवतः इसीलिए भारत ने अचानक एससीओ शिखर सम्मेलन को वर्चुअल मोड में करने का निर्णय ले लिया।

इन सारे घटनाक्रमों का असर नई दिल्ली शिखर सम्मेलन पर देखने को मिला है। अब यह भारत को तय करना होगा कि एससीओ या ब्रिक्स जैसे मंचों पर वह अपनी कैसी भूमिका रखना चाहता है। क्या वह इन मंचों पर एक किनारे खड़े होकर वहां से नई विश्व व्यवस्था की बनाई जा रही योजना का सिर्फ दर्शक बने रहना चाहता है, या इसमें वह अपनी कोई सक्रिय भागीदारी निभाना चाहता है? लेकिन सक्रिय भागीदारी की भूमिका के साथ पश्चिम के साथ बने नए तालमेल को मधुर बनाए रखना संभव नहीं होगा। 

कहने का तात्पर्य यह कि दो खेमों में बंटती हुई दुनिया में दोनों तरफ से लाभ उठाने के दिन अब चले गए हैँ। दरअसल, अब ऐसी कोशिश हानिकारक होगी। इसलिए अब यह तय कर लेना ही उचित होगा कि भारत नई विश्व व्यवस्था की परियोजना निर्माण का एक किरदार है, या पुराने वर्चस्ववादी ढांचे को बचाने की पश्चिमी कोशिश में वह मददगार बनना चाहता है? एससीओ के नई दिल्ली शिखर सम्मेलन के बाद अब बीच का रास्ता बहुत सिकुड़ गया है।       

 ( सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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