Friday, March 29, 2024

मूल अधिकारों की रक्षा की अपनी संवैधानिक भूमिका में नाकाम रहा सुप्रीम कोर्ट: दुष्यंत दवे

कोरोना काल में जिस तरह उच्चतम न्यायालय की विभिन्न पीठों ने प्रवासी मजदूरों के नागरिक अधिकारों पर सरकार की दलीलों के प्रति पक्षधरता दिखाई है उसकी चतुर्दिक आलोचना पूर्व न्यायाधीश, वरिष्ठ वकील, न्यायविद और सामाजिक संगठन कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने शनिवार को कहा कि सुप्रीम कोर्ट कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान देश के नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करने की अपनी संवैधानिक भूमिका के अनुसार काम करने में विफल रहा है।

दुष्यंत दवे ने कहा कि जज आंखों पर पट्टी बांधकर हाथी दांत के महलों में नहीं बैठे रह सकते। दवे ने प्रवासी मजदूर संकट पर सुप्रीम कोर्ट के रुख की विशेष रूप से आलोचना की है। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कार्यकारी के दावों पर विश्वास किया और प्रवासी मजदूरों के मामले में किसी भी प्रकार का सार्थक हस्तक्षेप करने से परहेज किया।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रवासी मजदूरों के मामले को बंद किए जाने और सुप्रीम कोर्ट की टिप्‍पणी कि, हम उन्हें सड़कों पर चलने से कैसे रोक सकते हैं, पर दवे ने कहा कि यदि जज सड़क पर अपने पौत्र को चलते हुए देखें और अचानक दूसरी और से कार आ जाए, तो क्या वे अपने पोते को बचाने की कोशिश नहीं करेंगे? भारत का हर नागरिक सुप्रीम कोर्ट का पौत्र है।

उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं पता कि क्या ऐसा है कि जो जजों को संवैधानिक शपथ के अनुसार कार्य करने से रोक रहा है। दवे ऑल इंडिया लॉयर्स यून‌ियन द्वारा आयोजित एक वेबिनार में बोल रहे थे, जिसका विषय था “महामारी के दौर में न्यायपालिका की भूमिका”। उन्होंने कहा कि संविधान निर्माता चाहते थे न्यायपालिका कार्यपालिका की सक्रियता और निष्क्रयता, दोनों की निगरानी करे। डॉ बीआर अंबेडकर ने संविधान के अनुच्छेद 32 को, ‘संविधान की आत्मा’ कहा है, जो एक नागरिक को अधिकार देते हैं कि वह अपने मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए सुप्रीम कोर्ट से संपर्क करे।

उन्होंने कहा कि उनके कहने का अर्थ यह नहीं है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका के रोजमर्रा के कामकाज में हस्तक्षेप करना चाहिए। संविधान ने राज्य के प्रत्येक अंगों की सीमाएं तय की हैं। लेकिन जब कार्यपालिका अपने कर्तव्यों के निर्वहन में विफल हो रही है, जब नागरिकों के अधिकारों को मनमाने तरीके से छीना जा रहा है, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि जजों को कार्यपालिका को केवल यह बताने की जरूरत है कि हम आपको देख रहे हैं। आपकी गतिविधियां देश को नुकसान पहुंचा रही हैं, लाखों लोगों को नुकसान पहुंचा रही हैं। हम इसकी इजाजत नहीं देंगे।

उन्होंने कहा कि अगर न्यायपालिका ने कार्यपालिका को कड़े शब्दों में कहा होता कि वह एक भी प्रवासी मजदूर को पीड़ित नहीं होने देगी, तो कार्यपालिका ने उनकी मुश्किलों को कम करने के लिए तत्काल उपाय किए होते। उन्होंने कहा‌ कि पीआईएल की आड़ में न्यायपालिका कई मामलों में हस्तक्षेप करती रही है, लेकिन जब लॉकडाउन का संकट आया तो इसने कुछ न करने फैसला कर लिया। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट न केवल अपने कर्तव्यों के निर्वहन में विफल रहा है, बल्‍कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के कर्तव्य को भी पूरा नहीं किया है।

दवे ने कहा कि कोरोना महामारी ने न्यायपालिका को वो मौका दिया था, जिससे वो लोगों के दिलों को जीत लेती और उस सम्मान को वापस पा लेती, ‌जो इस देश ने उसे लंबे समय तक दिया है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण था कि न्यायपालिका इस अवसर को गंवा दिया। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका ने स्पष्ट रूप से समझौता किया। यहां तक कि जो बेहतरीन जज थे, वो भी खामोश रहे। उन्होंने कहा कि ऐसा क्या है जो जजों को मामले का स्वतः संज्ञान लेने से रोक रहा है? उन्हें रोस्टर के मामले में मुख्य न्यायाधीश से भ‌िड़ना चा‌‌हिए, लेकिन वे चुप हैं।

दवे ने कहा कि न्यायपालिका ने ऐसी ही निष्क्रियता तब भी दिखाई थी जब नोटबंदी के कारण लाखों लोगों पर संकट आ गया था। उन्होंने कहा कि इसी सुप्रीम कोर्ट ने देश को निराश किया था, जब नोटबंदी की घोषणा की गई थी। पूरी कवायद एक आपदा साबित हुई। लाखों लोगों को परेशान करने के अलावा इसका कोई नतीजा नहीं निकला। काला धन भी नहीं खत्म हुआ। सरकार ने आंकड़े तक नहीं दिए। उन्होंने कहा कि 4 घंटे के नोटिस पर देश भर में लॉकडाउन लगान वैसी ही आपदा थी।

दवे ने कहा कि न्यायपालिका के बारे में जनता की राय अत्यधिक नकारात्मक है। दवे ने कहा कि यदि आप आज सोशल मीडिया देखें तो हजारों लोग हैं जो न्यायपालिका को लेकर आलोचनात्मक हैं। यह अलग बात है कि जज उन्हें नहीं पढ़ते हैं। लोगों की न्यायपालिका के बारे में अच्छी राय नहीं है। और यह राष्ट्र के लिए अच्छा नहीं है। मुझे न्यायपालिका से प्यार है। हम चाहते हैं कि हमारी न्यायपालिका बेहतर, और प्रभावी हो, परिणाम दे और नागरिकों की रक्षा करे और कार्यकारी को 4 घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन लगाने और नोटबंदी जैसे फैसले लेने से रोके। हम चाहते हैं कि न्यायप‌ालिका अपना कर्तव्य निभाए।

उन्होंने कहा कि आपातकाल के समय में न्यायपालिका लोगों को आशा और आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी थी। आज एक आपातकालीन स्थिति नहीं है। मौलिक अधिकारों को निलंबित नहीं किया गया है। फिर भी, न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों के प्रभावी प्रवर्तन को निलंबित कर दिया है। उन्होंने जोर देकर कहा कि बार का कर्तव्य है कि वह अपनी भूमिकाओं की न्यायपालिका को याद दिलाए, जब वह विफल हो रही हो। अगर न्यायपालिका की अंतरात्मा मर गई है तो उस अंतरात्मा को जगाना वकीलों का कर्तव्य है। जब न्यायपालिका कार्रवाई नहीं कर रही है, तो हम न्याय नहीं कर सकते और न ही कुछ कर सकते हैं। न्यायपालिका की रचनात्मक आलोचना अदालत की अवमानना नहीं है। यह न्यायाधीशों को कार्य करने और उनकी स्थिति, शक्तियों, कर्तव्यों के बारे में एहसास कराने के लिए अपील करने के लिए है।

उन्होंने अदालतों के नियमित कामकाज को बहाल करने की आवश्यकता के बारे में भी बताया। न्यायालयों को न केवल सार्वजनिक महत्व के मामलों की सुनवाई करनी चाहिए, बल्कि व्यक्तियों के सामान्य मामलों की सुनवाई भी तुरंत शुरू कर देनी चाहिए। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन ने न्यायिक कार्यों को गतिरोध में ला दिया है क्योंकि हमारी न्यायपालिका तकनीकी रूप से उन्नत नहीं है। न्यायाधीशों को स्थिति का विश्लेषण करना चाहिए और तत्काल कंप्यूटर क्रांति में लाना चाहिए। उन्हें देश में सबसे अच्छे दिमाग के साथ चर्चा करनी चाहिए।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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