Wednesday, April 24, 2024

गैर-बराबरी और कट्टरता भरे समाज का सेक्युलरिज्म बनाम हिजाब-विवाद

बात पिछली शताब्दी के सन् साठ दशक की है। हम लोग स्कूल में पढ़ते थे। वह गांव का एक सरकारी स्कूल था। उसमें आसपास के कई गांवों के बच्चे आते थे। ज्यादातर बच्चे हिन्दू-उच्चवर्णीय समुदाय के होते थे। उन दिनों दलित या पिछड़े समुदाय के बहुत कम बच्चे पढ़ते थे। मुस्लिम समुदाय के भी ज्यादा बच्चे नहीं थे, पर धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ रही थी। छात्राओं के लिए एक अलग स्कूल खुला था। इसलिए हमारे स्कूल में लड़कियां नहीं पढ़ती थीं। जहां तक याद है, छात्राओं के स्कूल में तब मुस्लिम समुदाय से एक भी लड़की नहीं आती थी। यही हाल दलित-पिछड़े वर्ग का था। दलित-पिछड़ों की तरह मुस्लिम समुदाय भी शिक्षा के मामले में बहुत पीछे था। तब स्कूलों में लिबास कोई मुद्दा नहीं था। जिसके पास जो है, वह उसे ही पहनकर आता था। ज्यादातर बच्चे नंगे पैर आते थे।

स्कूल में हम लोगों के दिन की शुरूआत सरस्वती वंदना से होती थी। राष्ट्रगान के साथ तरह-तरह की और प्रार्थनाएं भी होती थीं। मुझे उस समय भी इनका कोई औचित्य नहीं समझ में आता था। सभी में हिन्दू देवी-देवताओं की अभ्यर्थना की जाती थी। इन प्रार्थनाओं के मुकाबले मुझे अपना राष्ट्रगान या फिर ‘सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा’ जैसे गीत अच्छे लगते थे। लेकिन मेरे स्कूल में ‘सारे जहां’ वाला गाना नहीं होता था। शहर के स्कूल में पढ़ने गया तो वहां पहली बार उसे सुना था। प्रार्थनाओं के कार्यक्रम में मुस्लिम समुदाय के छात्र भी शामिल होते थे। उनमें कुछ एक मस्त-तबीयत के मुस्लिम लड़के हिन्दू-देवताओं की प्रार्थना को हम लोगों की तरह ही तेज आवाज में गाते थे। पर ज्यादातर के चेहरों से लगता था, मानो वे मजबूरी-वश प्रार्थना की कतार में खड़े हैं। वे हम लोगों की तरह तेज आवाज में ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ का पाठ नहीं करते थे। धीरे-धीरे बुदबुदाते या बिल्कुल खामोश रहते थे। हमारे स्कूलों में समय-समय पर तरह-तरह की पूजा भी होती रहती थी। इनमें एक पूजा थी-सरस्वती पूजा। तब किसी को अटपटा नहीं लगता था। किसी संस्था या संगठन ने तब यह सवाल नहीं उठाया कि एक सेक्युलर डेमोक्रेटिक संविधान वाले देश में ऐसा क्यों हो रहा है? विभिन्न धर्मावलंबियों वाले समाज में एक ही धर्म के देवी-देवताओं या धार्मिक प्रतीकों को इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है?

हम लोग जब कुछ बड़े हुए और महाविद्यालय-विश्वविद्यालय गये तो वहां के हॉस्टल या मुख्य परिसर में भी साल में एक या दो बार ऐसे कर्मकांडी कार्यक्रम होते रहते थे। अगर किसी ने इस पर सवाल उठाना चाहा तो उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता था कि ‘भारत का संविधान सेक्युलर है, इसका मतलब ये नहीं कि वह धर्मो या धार्मिक कर्मकांडो या प्रतीकों का निषेध करता है। हमारा संविधान ‘धार्मिक-समरसता’ चाहता है। सबको धार्मिक आजादी (अनुच्छेद 25 से 28) देता है। किसी की धार्मिक आजादी में दखल नहीं देता।’ फिर हमारे संस्थानों में दूसरे धर्मों के कर्मकांडी कार्यक्रम क्यों नहीं कराये जाते?

यह बात सही है कि हमारा संविधान अपने मूल चरित्र में भी सेक्युलर है। संविधान में सेक्युलरिज्म का शब्द 42वें संशोधन से बहुत बाद में जोड़ा गया था। लेकिन इसके मूल अनुच्छेद, खासकर 25 से 28 हमारे संविधान के सेक्युलर होने का ठोस आधार पहले ही बना चुके थे। बयालीस वां संविधान-संशोधन न हुआ होता तो भी हमारा मूल संविधान भारत को एक सेक्युलर राष्ट्र-राज्य बनाये रखने के लिए पर्याप्त था। लेकिन अपेक्षाकृत एक बेहतर संविधान होने के बावजूद हमारे समाज की प्रतिक्रियावादी और संकीर्णतावादी शक्तियां शुरू से ही अपने संविधानेत्तर आचरण से समाज और सियासत का माहौल खराब करने में लगी रहीं। समय रहते ऐसी शक्तियों के सामाजिक-आर्थिक आधार और पृष्ठभूमि को नहीं बदला गया। इससे इनकी मानसिकता अपरिवर्तनीय रही। डॉ. बी. आर. अम्बेडकर की वैचारिकी इस बदलाव के संदर्भ में सबसे अधिक जरूरी थी। वर्ण-व्यवस्था को कमजोर कर क्रमशः तोड़ा गया होता और सुसंगत सेक्युलर समाज बनाने की कोशिश की गयी होती, तो हिन्दुत्व को इस भयावह सांप्रदायिक चेहरे के साथ उभरने का मौका नहीं मिला होता। लेकिन हमारे शुरुआती शासकों और सत्ता के नजदीकी विचारकों ने अम्बेडकर के विचारों को नजरंदाज किया। इसके बुरे नतीजे आने शुरू हो गये। 

धीरे-धीरे माहौल बदलता गया। उस नकारात्मक-बदलाव को हमारी पीढ़ी ने अपनी आंखों से देखा। विश्वविद्यालयीय शिक्षा के बाद मैं सन् 1983 में पत्रकारिता में आ गया था। इसलिए हमें कुछ ज्यादा नजदीक से देखने का मौका मिला। सन् अस्सी और नब्बे का दशक आते-आते हिन्दी भाषी राज्यों में कथित धार्मिक-समरसता की दलीलें और जुमले गायब होते गये! इसी दौर में हिन्दी-भाषी राज्यों के राजनीतिक पटल पर दीया-बाती के चुनाव निशान वाली पार्टी का कमल-निशान के साथ नया अवतार हुआ। समाज और राजनीति में धार्मिकता का प्रभाव ही नहीं बढ़ा, वह शैली और फैशन में तब्दील होती नजर आई। परिसर हों या पब्लिक-स्पेस; हर जगह बहुत तेजी से  नंगी कट्टरता नाचने लगी। हम लोग जब बच्चे थे तो भगवा या गेरुआ वस्त्र धारण करने वालों की संख्या बहुत कम थी। वे दो तरह के लोग थे-सुधी और हमेशा पूजा या ध्यान में लगे रहने वाले हिन्दू महात्मा या संत। दूसरी श्रेणी उन जोगियों की थी, जो हम लोगों के गांवों में एक खास किस्म का सारंगी वाद्य-यंत्र बजाते हुए आते थे और हर समुदाय के लोग उन्हें राजी-खुशी भिक्षा दिया करते थे।

वक़्त बीतता रहा और धर्म व धार्मिकता का चेहरा बदलता रहा। तरह-तरह के भयावह दृश्य भी देखने को मिलते रहे। दंगे-फसाद बढ़ने लगे। माथे पर लाल टीका और गले में भगवा या गेरुआ गमछा लगाये युवाओं को मोटर-सायकिलों पर विचरते देखा जाने लगा। इनमें कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता होते तो ज्यादातर उपद्रवी किस्म के युवा। उसी दौर में हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में लोकप्रिय ‘जय-राम जी’, ‘जय सियाराम’ या ‘सीताराम’ जैसे बेहद सहज-सरल किस्म के अभिवादन ‘जय श्रीराम’ के कर्कश और उग्रता भरे शोर में दबने लगे। एक दिन ऐसा भी आया जब ऐसे ही भयावह शोर के बीच अयोध्या में अल्पसंख्यक समुदाय के एक धार्मिक स्थल को जबरन ध्वस्त कर दिया गया। समाज पर इस घटना का भारी असर पड़ा। शिक्षा-शिक्षण से लेकर राजनीति और कार्यपालिका में भी माहौल और मिज़ाज बदलता गया। हिन्दी क्षेत्र में मीडिया का हिन्दुत्वीकरण तेजी से हुआ। हिन्दू-उच्चवर्णीय वर्चस्व वाले हिन्दी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा हिन्दू मीडिया में तब्दील हो गया।

चुनावों के दौरान धार्मिक प्रतीकों, विवादों और मुद्दों का इस्तेमाल आम हो गया। निर्वाचन की निष्पक्षता पर भी इसने असर डाला। चुनावों को धार्मिकता और सांप्रदायिकता से मुक्त रखने की आखिरी कोशिश सन् 1999 में उस समय हुई, जब निर्वाचन आयोग ने शिव सेना संस्थापक बाला साहेब ठाकरे को उनके धार्मिकता-सांप्रदायिकता से भरे चुनावी भाषणों के चलते 6 साल के लिए मतदान करने या चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित कर दिया। कुछ ही समय तक इस फैसले का असर देखने को मिला। हिन्दुत्ववादी संगठनों ने राजनीति में दखल बढ़ा दी और लोगों को उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि के आधार पर संगठित होकर वोट डालने का आह्वान किया जाने लगा। भाजपा ने शिव सेना को अपना गठबंधन-सहयोगी बनाया। राजनीति के हिन्दुत्वीकरण में लोगों के असल मुद्दे दबते गये। हिन्दी-भाषी राज्यों में यह बहुत ज्यादा हुआ। दक्षिण में कर्नाटक के अलावा अन्य राज्य धर्म के ऐसे राजनीतिक मंसूबों से काफी समय तक बचे रहे। फिर अविभाजित आंध्र प्रदेश भी इसकी जद में आया। 

हर समय समाज और राजनीति के हिन्दुत्वीकरण का कोई न कोई बहाना खोजने वाले संगठनों ने आज कर्नाटक के कुछ विद्यालय-महाविद्यालयों में मुस्लिम छात्राओं के सिर ढंक कर आने या हिजाब लगाने पर भारी बावेला मचाया है। हिजाब के खिलाफ छात्रों का एक हिस्सा उन संस्थानों में या उनके सामने भगवा-गमछा लेकर जय श्रीराम-जय श्रीराम के नारे लगाते हुए सामने आया है। हिजाब के साथ भगवा-गमछे को बराबरी में खड़ा करने का क्या औचित्य है? हिन्दू धर्म के किसी ग्रंथ या कथित आचार संहिता में भगवा गमछे के प्रयोग की अनिवार्यता का कहीं कोई जिक्र नहीं है। हमारे समाज में रंगीन, खासकर चरखाने के गमछों का चलन बहुत पुराना है। इसका धार्मिकता से नहीं, सामाजिकता से रिश्ता है। सस्ते और सहज परिधान के तौर पर ये गमछे तरह-तरह के काम में आते हैं। खेतों में धूप से बचने से लेकर नदी या तालाब में नहाने तक, इनका प्रयोग बहुत आम है। धार्मिक प्रतीक के रूप में इसे संघ से जुड़े युवा संगठनों ने हाल के दिनो में प्रचारित किया। इन संगठनो ने ही हिजाब को अपने प्रतिद्वन्द्वी धार्मिक प्रतीक के रूप में देखा और बावेला मचाया।

कर्नाटक का मौजूदा लिबास-विवाद पूरी तरह राजनीति के हिन्दुत्वीकरण का नतीजा है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड आदि के विधानसभा चुनाव में अगर सत्ताधारी दल को जनता की नाराजगी का सामना नहीं करना पड़ता तो आरएसएस के आनुषंगिक संगठनों को हिजाब पर ऐसा उपद्रव करने की जरूरत ही नहीं पड़ी होती। फिलहाल, हिजाब पर पाबंदी लगा दी गई है। समाज के अनेक गणमान्य लोग भी हिजाब पहनकर शिक्षण संस्थान में आने को गलत मान रहे हैं। क्यों भाई? पैमाने बदल कैसे गये? हिजाब तो सिर्फ पहनावा भर है। इसमें किसी हिन्दू देवी-देवता की प्रार्थना जैसी खुदा की इबादत या नमाज पढ़ने की धार्मिंक गतिविधि भी नहीं शामिल है। फिर हिजाब पर इतना बावेला क्यों मचा है? इस बार न ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ है और न कोई ‘पुलवामा’ है। इसलिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए कुछ और तलाशा गया और आ गया-हिजाब-विवाद।

अगर इस अभियान की राजनीतिक-बुनावट पर नजर डालें तो साफ लगता है कि यूपी, पंजाब और उत्तराखंड आदि के महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव से पहले हिजाब का मसला योजनाबद्ध ढंग से सामने लाया गया है। किसी स्कूल या महाविद्यालय ने यहां छात्राओं को हिजाब के प्रयोग से नहीं रोका। रोकने आये-हिन्दुत्ववादी संगठनों के कुछ भगवा-साफाधारी हुड़दंगी किस्म के युवक। भाजपा-शासित कर्नाटक में इसे उठाया गया। सत्ताधारी दल को टीवीपुरम् पर पूरा भरोसा था कि वह कर्नाटक में उठा मुद्दा हो या केरल का ; इन चैनलों के जरिय़े वह उसे यूपी में ध्रुवीकरण का हथकंडा बनाने में सफल हो जायेगा। केंद्र सरकार के मंत्री तक इस अभिय़ान में लग गये हैं। वे बड़े नैतिक और संवैधानिक दिखने की कोशिश करते हुए सवाल कर रहे हैं-‘शिक्षण संस्थान में हिजाब क्यों’? फिर शिक्षण संस्थान में किसी हिन्दू देवी-देवता या धर्म-प्रचारक की मूर्ति क्यों? देवी-देवता की प्रार्थना क्यों? सरस्वती-पूजा क्यों? पाठ्यक्रम में हिन्दू धर्म-ग्रंथों के अंश, श्लोक, चौपाइयां या कथाएं क्यों?

क्या इन नेताओं और कथित राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं ने कभी सोचा कि सेक्युलर संविधान वाले एक देश के सबसे बड़े प्रदेश के सबसे बडे निर्वाचित पद पर आज एक ऐसे महाशय आसीन हैं जो न सिर्फ एक खास धर्म के साधू-संतों वाले वस्त्र व परिधान धारण करते हैं अपितु स्वयं एक धार्मिक मठ के महंत भी हैं? उनका यह सब धारण करना जायज़ है पर एक अल्पसंख्यक समुदाय की छात्राओं का हिजाब धारण करना बिल्कुल नाजायज़ है! यह कैसी दलील है? क्या इसमें सत्य और विवेक के लिए कोई जगह दिखती है? हिजाब का यह सारा विवाद ऐसे समय उठा है, जब उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के  मतदान के अलग-अलग चरण क्रमशः शुरू हो चुके हैं। विवाद उत्तर प्रदेश से सैकड़ो किमी दूर कर्नाटक में उठाया गया है। पर उस  विवाद की आंच में उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल को गरमाने की कोशिश की जा रही है। एक न्यायिक-आदेश में हर तरह के धार्मिक प्रतीकों यथा-हिजाब और भगवा साफा आदि पर अस्थायी तौर पर रोक लगाई गई है। अगले सप्ताह इस पर सुनवाई होनी है। निर्णायक-आदेश उसके बाद आएगा।

मुझे याद आ रहा है, कुछ वर्ष पहले कुछेक यूरोपीय देशों में सिख-छात्रों के पगड़ी पहनकर स्कूल या शिक्षण संस्थान में आपत्ति उठायी गयी। लेकिन सिख समुदाय के विरोध के बाद वह आपत्ति वापस ले ली गयी। फिर भारत तो हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी सबका देश है। यहां किसी को मुस्लिम महिलाओं के सिर ढंक कर आने य़ा न आने पर भला क्यों आपत्ति होनी चाहिए? अगर हिन्दू या मुस्लिम छात्राएं जीन्स और शर्ट में आती हैं तो उस पर भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लिबास को क्यों परिभाषित किया जाय़े? उसमें श्रेणी क्यों बनायी जाये? हमारे संविधान के किस अनुच्छेद से ऐसे श्रेणीकरण को वैधता मिलती है? यह पूरा विवाद फूहड़ और विकृत सोच से उपजा है। इसकी जड़ में सिर्फ संकीर्ण राजनीति है। इसका जवाब सुसंगत सेक्युलर-लोकतांत्रिक राजनीति है। लेकिन उसका वह परिप्रेक्ष्य हरगिज नहीं, जो अब तक हमारे देश में देखा और व्यवहार में लाया जाता रहा है। इस सेक्युलर-लोकतांत्रिक राजनीति को अपना परिप्रेक्ष्य बदलना होगा। उसे कुलीनता छोड़कर सबाल्टर्न की तरफ झुकना होगा। उच्चवर्णीय-वर्चस्व छोड़कर सामाजिक विविधता को स्वीकार और अंगीकार करना होगा।

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। आपने कई किताबें लिखी हैं जो बेहद चर्चित रही हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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