झारखंड स्पेशल: पुलिस के गलत रवैए और न्यायिक प्रक्रिया की शिथिलता की शिकार बदहाल आदिवासी जिन्दगियां

झारखंड जनाधिकर महासभा ने आदिवासी-मूलवासी अधिकार मंच, बोकारो, आदिवासी विमेंस नेटवर्क, बगईचा आदि के साथ मिलकर अगस्त 2021 से जनवरी 2022 के दौरान बोकारो जिले के गोमिया व नवाडीह प्रखंड में कई निर्दोष आदिवासियों और वंचितों का सर्वेक्षण किया। कुल 31 पीड़ितों व उनके परिवारों का सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य था पीड़ितों की स्थिति को समझना, गलत आरोपों में फंसने की प्रक्रिया को समझना एवं पीड़ितों व उनके परिवारों पर इसके प्रभाव को समझना, रिपोर्ट पीड़ितों के बयान और उनके प्राथमिकी/केस के आकलन पर आधारित है।

सर्वेक्षण के आलोक में बोकारो का गोमिया व नवाडीह प्रखंडों में संथाल आदिवासी समुदाय व अन्य समुदाय के लोग रहते हैं। आदिवासी समुदाय कुछ खास पंचायतों में ज़्यादा संख्या में हैं। गोमिया में ही संथाल आदिवासियों का पवित्र स्थल लुगु बुरु पहाड़ है, जो अब पर्यटन स्थल में बदलता जा रहा है। गोमिया प्रखंड के बड़े हिस्से में जंगल है बावजूद इसके इसे पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में शामिल नहीं किया गया है।

जगन्नाथ मांझी

इस क्षेत्र में संघर्ष का लम्बा इतिहास है। शिबू सोरेन के महाजनी विरोधी आन्दोलन के दौरान इस क्षेत्र में भी आदिवासी संगठित हुए थे। आज़ादी के बाद इस क्षेत्र में कोयला खदान, बोकारो थर्मल पावर स्टेशन, तेनुघाट पावर प्लांट एवं बारूद फैक्ट्री शुरू किया गया।

तेनुघाट डैम 1965 में बनना शुरू हुआ जिससे 22 मौजा के 31 गाँवों के 21,624 परिवार विस्थापित हुए थे। इसके लिए 17,434 एकड़ रैयती और लगभग 10,000 एकड़ सामुदायिक ज़मीन का अधिग्रहण किया गया था। तेनुघाट डैम समेत इन सभी परियोजनाओं से आदिवासियों व अन्य वंचित समुदायों के लोगों का व्यापक विस्थापन हुआ। अनेक पीड़ितों का तो दशकों बाद भी पुनर्वास नहीं हो पाया है और न ही नौकरी मिली है। इस क्षेत्र के चोराटांड़ में कोयला का व्यवसायिक खनन शुरू होने वाला है जिससे पुनः और लोगों का जबरन विस्थापन होगा। एक तरफ इस क्षेत्र में बिजली उत्पादन होती है, वहीं दूसरी ओर अभी भी जंगल क्षेत्र के अधिकांश आदिवासी गावों में बिजली न के बराबर रहती है। इस क्षेत्र में सुरक्षा बलों और पुलिस द्वारा हिंसा व मानवाधिकार उल्लंघन के मामले लगातार आते रहे हैं। क्षेत्र में माओवादियों का भी लम्बा इतिहास रहा है।

सुखलाल अगरिया

बताना जरूरी होगा कि सभी पीड़ितों की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि व मज़दूरी है, कई परिवारों की आर्थिक स्थिति बहुत ही ख़राब है। सर्वेक्षित 31 पीड़ितों में 18 निरक्षर हैं या न के बराबर पढ़ाई किए हुए हैं। शेष 13 में अधिकांश 10वीं पास हैं। पीड़ितों में लगभग 17 लोग 30-50 वर्ष उम्र के हैं। 4 की उम्र इनसे कम है, इन पर जब मामला दर्ज हुआ था, तब ये अपने युवा उम्र में ही थे।

इन 31 लोगों ने स्पष्ट तौर पर कहा कि इनका माओवादी पार्टी के साथ कोई रिश्ता नहीं है और न ही कथित घटनाओं से कोई तालमेल। कई पीड़ितों के गाँव जंगल में हैं जहां माओवादियों का आना-जाना होता था। पहले ज़्यादा था और अब बहुत कम हो गया है।

कई पीड़ित अपने क्षेत्र में जन अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध संघर्ष करते रहे हैं और लोगों की समस्याओं को उठाते रहे हैं। वैसे पीड़ितों का मानना है कि आदिवासी- वंचितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के कारण ही उन्हें फ़र्ज़ी मामलों में फंसाया गया। कई पीड़ितों को पिछली रघुवर दास सरकार की आदिवासी-विरोधी नीतियों का विरोध करने के बाद इन मामलों में फंसाया गया था।

रतिलाल टुडू

ऐसे फर्जी मामलों के कारण पीड़ित परिवारों की स्थिति बदतर हो गयी है।

लालजी मांझी, बिरहोर डेरा गाँव, सियारी पंचायत, गोमिया (बोकारो) के परिवार के पास कृषि योग्य भूमि नगण्य है। आजीविका के लिए परिवार मज़दूरी और वन आधारित उत्पाद पर निर्भर है। 2014 में लालजी के जेल जाने के बाद उनकी बेटियों ने मज़दूरी करना शुरू किया। उनके केस के लिए इस दौरान लिए गए लोन की पूर्ण वापसी अभी तक नहीं हुई है।

24 वर्षीय हीरालाल टुडू इंटर तक पढ़ाई करके रामगढ़ में एक कंप्यूटर कोर्स करना शुरू किए था। सोचे थे कि गाँव में प्रज्ञा केंद्र शुरू करेंगे, लेकिन सितम्बर 2014 में उन्हें अप्रैल में एक माओवादी घटना में आरोपी बनाकर गिरफ्तार कर लिया गया। वे दो साल से अधिक जेल में रहे और इस बीच उनके कंप्यूटर कोर्स की पढ़ाई छूट गयी।

53 वर्षीय शिकारी मांझी जमवाबेड़ा गाँव, चुटे पंचायत, गोमिया के 2015-16 में जेल गए थे और 1.5 साल के बाद बेल पर निकले, उनका पूरा परिवार मज़दूरी पर निर्भर है। थोड़ी कृषि योग्य ज़मीन है जिससे 3-4 महीने का धान हो जाता है, शिकारी व इनके बेटे अक्सर काम के लिए पलायन करते हैं। शिकारी जेल से वापस आने के बाद मज़दूरी नहीं कर पाते हैं। उनके केस में परिवार का बहुत खर्च हुआ।

हीरालाल टुडू

कई परिवारों को अपने घर के गाय-बैल को बेचना पड़ा और कुछ को ज़मीन बंधक में देना पड़ा। कई परिवारों ने अन्य ग्रामीणों व रिश्तेदारों से ऋण लिया था। केस का प्रभाव सीधा बच्चों की पढ़ाई पर पड़ा। कई परिवार में केस से हुई आर्थिक तंगी के कारण बच्चों की पढ़ाई छूट गयी।

इन मामलों के आकलन से यह स्पष्ट है कि जब भी कोई हिंसा की घटना/माओवादी घटना होती है, तब स्थानीय पुलिस क्षेत्र के कई निर्दोष आदिवासी-वंचितों का नाम केवल संदेह के आधार पर प्राथमिकी में डाल देते हैं। अगर किसी का नाम इस प्रकार के एक भी मामले में जुड़ जाता है, इसके बाद उस क्षेत्र में कोई भी घटना होने से वह व्यक्ति हमेशा संदेह के दायरे में रहता है। इन 31 पीड़ितों के उदाहरण से यह स्पष्ट है कि अगर एक बार भी कोई आदिवासी – वंचित गलत रूप से आरोपित हो गया, तो इसका दीर्घकालीन प्रभाव उसके व उसके परिवार पर पड़ेगा।

लालगढ़ के 50 वर्षीय आदिवासी संजय मांझी, जो अशिक्षित हैं एवं पेशे से राज मिस्त्री हैं, को 27 दिसम्बर 2021 को जोगेश्वर विहार थाना प्रभारी द्वारा थाना बुलाकर कहा गया कि उनके विरुद्ध कुर्की जब्ती का नोटिस निर्गत हुआ है। उन्हें कहा गया कि 2014 की एक माओवादी घटना में रेल पटरी उड़ाने में वे आरोपित हैं और फ़रार रहने के कारण कुर्की जब्ती की कार्रवाई की जाएगी। जबकि न वे फ़रार थे और न ही उनका माओवादी पार्टी या 2014 की घटना से कोई सम्बन्ध है। इस दौरान वे लगातार कोयला चोरी के अन्य मामले (काण्ड से 26/13 गोमिया थाना), जिसमें वे आरोपित हैं, में नियमित रूप से बेरमो अनुमंडल न्यायालय, तेनुघाट में सुनवाई में भाग लेते रहे हैं और हाजिरी लगाते रहे हैं।

प्रेस कांफ्रेंस कर रिपोर्ट पेश करती सर्वे टीम।

टूटी झरना की 20 वर्षीय सूरजमुनी कुमारी को सितम्बर 2014 में अप्रैल की एक माओवादी घटना के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। वे तब 16-17 साल की थीं। वे अपनी मां के साथ गोमिया के पास के रेलवे स्टेशन से रिश्तेदार के घर जाने वाली थीं, जब उन दोनों को पुलिस उठा के पास के CRPF कैंप ले गयी। माँ को बाहर रोक दिया गया। सूरजमुनी के साथ पूछ-ताछ के दौरान मारपीट की गयी। उस पर माओवादियों के साथ घूमने और उनके बंदूक रखने का आरोप लगाया जा रहा था। अगले 2-3 दिन उसे कैंप और थाने में रखा गया और पूछ ताछ के साथ-साथ मारा भी गया। इस दौरान वो बोलती रही कि वो 16 साल की ही है। फिर उसे तेनुघाट जेल भेजा गया, जेल जाने के बाद उसकी पढ़ाई भी छूट गई।

चोरपनिया गाँव के अत्यंत गरीब बिरसा मांझी को दिसम्बर 2021 में स्थानीय थाना में बुलाकर कहा गया कि वे एक-एक लाख रुपये के इनामी नक्सल हैं और उन्हें सरेंडर करने के लिए कहा गया। लेकिन न बिरसा मांझी का माओवादी पार्टी से जुड़ाव है और न ही उनका किसी घटना से संबंध है। वे गाँव के एक गरीब मज़दूर हैं जो रोज़गार के लिए अक्सर अपने बेटे के साथ ईंट भट्टा में रोज़गार के लिए पलायन करते रहे हैं।

गोसा गाँव के 50-वर्षीय महेंद्र मांझी को पुलिस ने 2017 में उनके घर से गिरफ्तार किया। दो दिन स्थानीय थाने में रखने के बाद उन्हें तेनुघाट में एक झाड़ी के पास ले जाया गया। पुलिस अपने गोदाम से एक पुरानी राइफल निकाल कर ले गयी थी, जिसे देकर महेंद्र का राइफल के साथ फोटो खींचा गया। इसके बाद पुलिस द्वारा यह कहानी बनायी गयी कि महेंद्र को तुलबुल जंगल से अभियान के दौरान गिरफ्तार किया गया है एवं उनके पास से बंदूक बरामद हुई है। पुलिस द्वारा मीडिया के समक्ष महेंद्र को नक्सली के रूप में पेश किया गया और ये झूठी कहानी बताई गयी। उन्हें 2016 में रेल पटरी उड़ाने की घटना के लिए आरोपी बनाया गया।

पीड़ितों के विरुद्ध इस्तेमाल की गयी धाराएं व कानून

सभी सर्वेक्षित पीड़ितों के विरुद्ध माओवादी होने / माओवादियों को सहयोग करने/ माओवादी घटना में शामिल होने का आरोप था। अधिकांश मामलों में UAPA कानून की विभिन्न धाराएं एवं 17 CLA समेत IPC की विभिन्न धाराओं का इस्तेमाल किया गया है। कई मामलों में एक्सप्लोसिव्स एक्ट भी लगाया गया है।

पीड़ितों / उनके परिवार के सदस्यों को उनके ऊपर लगे अधिकांश धाराओं की जानकारी नहीं है। केवल 17CL की रट लगाते हैं। सभी जानते हैं कि 17CL मतलब माओवाद का आरोप। UAPA का तो अनेकों ने नाम तक नहीं सुना है।

न्यायिक संघर्ष

किसी पीड़ित के पास केस व कोर्ट में चल रहे मामले से सम्बंधित दस्तावेज़ नहीं है। सभी दस्तावेज़ वकीलों के पास जमा है। इसलिए बहुतों को यह जानकारी भी नहीं है कि कितने मामले में वे आरोपित हैं। सबका स्थानीय कोर्ट में बेल आवेदन रिजेक्ट होने के बाद उच्च न्यायालय से बेल मिला। कुछ मामलों में उच्च न्यायालय ने भी कई बार आवेदन को रिजेक्ट किया। UAPA के तहत मामला दर्ज होने के कारण भी बेल मिलना एवं आरोप मुक्त होने में अनेक साल लग जाते हैं। अक्सर वकील मामले की वर्तमान स्थिति की जानकारी पीड़ितों को नहीं देते हैं।

बिरहोर डेरा के लालजी मांझी को एक फ़र्ज़ी माओवादी मामले में आरोपित करने के 6 साल बाद न्यायालय ने उन्हें निर्दोष और आरोप मुक्त करार दिया। इस दौरान पुलिस ने न कोई साक्ष्य और न ठोस सबूत प्रस्तुत किया। पीड़ितों के परिवारों का न्यायिक लड़ाई में बहुत खर्च हो गया। 28 पीड़ितों के अनुमानित खर्च के आंकड़ों के अनुसार प्रत्येक पीड़ित का औसतन 90,000 रु खर्च हुआ है। जिनके कई मामले थे और कई सालों से केस चल रहा है, उनका तो 3,00,000 रुपये तक खर्च हुआ है।

सालों से विचाराधीन रहने के बाद एक-एक करके पीड़ित आरोप मुक्त हो रहे हैं। 29 पीड़ितों (जिनके मामलों की जानकारी मिल पाई) में 9 पूर्ण रूप से आरोपमुक्त होकर बरी हो गए हैं और 20 पीड़ित कम से कम एक मामले में अब भी विचाराधीन हैं। इनमें 18 पीड़ित बेल पर बाहर हैं। 16 पीड़ितों के मामलों में सात के 2014 के पहले के हैं, 2014-19 में 9 पर मामले दर्ज हुए और उसके बाद 3 पर दर्ज हुए। 22 पीड़ितों के आंकड़ों के अनुसार पीड़ितों ने लगभग 2 साल औसतन जेल में गुज़ारा कई पीड़ित तो 5 साल से भी ज्यादा जेल में रहे हैं।

सर्वे में यह बात सामने आई कि आदिवासी व वंचित महज़ संदेह के आधार पर माओवादी घटनाओं में आरोपी बनाए जाते हैं। कई पीड़ितों की गलती इतनी ही रहती है कि डर से वे माओवादियों को खाना खिलाये होंगे या गाँव में उनकी मीटिंग में भाग लिए होंगे, लेकिन इससे अधिक किसी भी सर्वेक्षित पीड़ित का माओवादियों के साथ लेना-देना नहीं था और न ही हिंसा की घटनाओं में कोई भूमिका।

दूसरी तरफ स्थानीय न्यायालय में न पुलिस द्वारा समय पर चार्जशीट दायर की जाती है और न न्यायालय द्वारा मामले की त्वरित सुनवाई होती है। पीड़ितों को भी न मामले की जटिल प्रक्रियाओं की जानकारी होती है और न ही सही क़ानूनी मदद मिलती है। इन कारणों से पीड़ित सालों तक विचाराधीन कैदी या आरोपमुक्त होने के लिए संघर्ष करते हैं। आखिरकार अधिकांश पीड़ितों का आरोप सिद्ध नहीं होता है। इस दौरान, पीड़ित व उनके परिवार की ज़िन्दगी हमेशा के लिए बदल जाती है, पढ़ाई छूट जाती है, गरीबी बढ़ जाती है, परिवार पर आर्थिक दबाव बढ़ जाता है आदि।

निर्दोष लोगों को माओवादी घटनाओं में फ़र्ज़ी रूप से आरोपी बनाना पुलिस की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े करती है। साथ ही, स्थानीय कोर्ट द्वारा बेल हमेशा रिजेक्ट कर देना न्यायिक व्यवस्था पर भी सवाल खड़े करता है। एक निर्दोष व्यक्ति को कई साल लग जाते हैं आरोपमुक्त होने में। इस उत्पीड़न में UAPA का भी बड़ी भूमिका है।

इन 31 पीड़ितों की परिस्थिति फ़र्ज़ी आरोपों, UAPA आदि में फंसे राज्य के हजारों आदिवासी, दलित, पिछड़े, वंचितों की परिस्थिति का एक उदाहरण मात्र है।

इस सर्वे के बाद झारखंड जनाधिकर महासभा ने झारखंड सरकार से निम्न मांगें की है: 

   – सर्वेक्षित सभी पीड़ितों के विरुद्ध दर्ज मामले को अविलम्ब वापस लिया जाए, सालों से पुलिस व न्यायिक कार्यवाही से हुए उत्पीड़न के लिए पर्याप्त मुआवज़ा दिया जाए एवं परिवार के सदस्यों को नौकरी दी जाए। आदिवासी-वंचितों पर फ़र्ज़ी मामले दर्ज करने के दोषी पुलिस पदाधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की जाए।

   – ऐसे अनेक मामले गोमिया व राज्य के अन्य क्षेत्रों में हैं। इस परिस्थिति की निष्पक्ष जांच के लिए न्यायिक जांच का गठन किया जाए।

   – स्थानीय प्रशासन और सुरक्षा बलों को स्पष्ट निर्देश दें कि वे किसी भी तरह से लोगों, विशेष रूप से आदिवासियों का शोषण न करें। नक्सल विरोधी अभियानों की आड़ में सुरक्षा बलों द्वारा लोगों को परेशान न किया जाए।

   – राज्य में UAPA व राजद्रोह धारा के इस्तेमाल पर पूर्ण रोक लगे। केंद्र सरकार UAPA रद्द करे। पुलिस प्रणाली में सुधार की जाए। केवल संदेह के आधार पर अथवा केवल माओवादियों को महज़ खाना खिलाने के लिए निर्दोष आदिवासी – वंचितों को माओवादी घटनाओं में न जोड़ा जाए।

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

विशद कुमार
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