Saturday, April 20, 2024

उत्तराखंड में भाजपा की नैया कैसे लगेगी पार? कोई पार्टी तो कोई मैदान छोड़ रहा

उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया शुरू होते ही सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने अपने स्टार प्रचारक हरक सिंह रावत को पार्टी से निकाल दिया जबकि जिस नेता के लम्बे शासन काल के काम पर पार्टी ने वोट मांगने थे वह चुनाव मैदान में उतरने से पहले ही मैदान छोड़ गया। इससे पहले एक अन्य कैबिनेट मंत्री कांग्रेस में शामिल हो गया। इस चुनावी महासमर में भाजपा के युद्धपोत से पंछियों का भाग जाना सत्ता में वापसी के लिये जीतोड़ प्रयास कर रही भाजपा की मुश्किलें बढ़ा सकती हैं।

युद्ध छिड़ने सहले ही भाजपा का महारथी मैदान से खिसका

उत्तराखण्ड की 70 में से 30 विधानसभा सीटों पर असर रखने का दावा करने वाले कैबिनेट मंत्री रहे हरकसिंह रावत को भारतीय जनता पार्टी ने पाला बदलने से पहले ही पार्टी से निकाल दिया। अब जिस पूर्व मुख्यमंत्री के शासनकाल के नाम पर पार्टी को वोट मांगने थे उसने ठीक टिकट वितरण से पहले चुनाव लड़ने से मना कर दिया। जबकि पार्टी को इस समय दमदार जिताऊ प्रत्याशियों की जरूरत है। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को अब तक के भाजपाई मुख्यमंत्रियों में सबसे अधिक समय तक शासन करने का श्रेय जाता है। चूंकि वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को केवल 6 महीने ही शासन करने का अवसर मिला है इसलिये पिछले साढ़े चार साल का हिसाब उनसे नहीं लिया जा सकता। जबकि प्रदेश की जनता ने भाजपा को 2017 में पांच साल शासन करने के लिये प्रचण्ड बहुमत दिया था। इसलिये इन पांच सालों में सबसे अधिक लगभग चार साल तक शासन करने वाले त्रिवेन्द्र सिंह रावत को ही प्रदेश की जनता को अपने शासन काल का हिसाब देना पड़ेगा और भाजपा को उन्हीं के शासन या कुशासन के नाम पर वोट मांगने हैं। अगर सबसे लम्बे समय तक सत्ता की मलाई चाटने वाला शासक ही चुनावी जहाज के बाहर कूद जाय तो फिर इसे जहाज के संकट का संकेत माना जा सकता है।

जिसके नाम पर वोट मांगेंगे वही भाग रहा

भाजपा के कुल 57 विधायकों में से प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के सबसे पसन्दीदा विधायक त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने 18 मार्च 2017 से लेकर 10 मार्च 2021 तक मुख्यमंत्री के तौर पर प्रदेश में शासन किया। उनके बाद तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री बने तो उन्हें मात्र 116 दिन ही शासन करने का अवसर मिला। इसलिये उनसे न तो प्रदेश की जनता की और ना ही भाजपा की ज्यादा अपेक्षा थी। तीरथ के बाद 4 जुलाई 2021 को पुष्कर सिंह धामी ने प्रदेश की कमान संभाली। उन्होंने अपने 6 माह के कार्यकाल में 6 सौ से अधिक घोषणाएं करने तथा निर्णय लेने का दावा किया है। वे ज्यादातर निर्णय या तो अव्यवहारिक हैं या फिर पाइप लाइन में हैं। सामान्यतः इस तरह अंतिम समय में जाती हुयी सरकार के निर्णयों पर नौकरशाही काम नहीं करती और वे निर्णय धरातल पर नहीं उतर पाते। इसलिये सारा दारोमदार सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाले त्रिवेन्द्र सिंह रावत के कार्यों पर ही टिक जाता है। वैसे भी प्रदेश की जनता ने 6 महीने या साल भर के लिये नहीं बल्कि पूरे पांच साल तक जनहित के कार्य करने का जनादेश भाजपा को दिया था। इसलिये उसे पूरे पांच साल का हिसाब जनता को देना है। लेकिन जब हिसाब देने वाला ही मैदान छोड़ कर भाग जाये तो उनके बदले जो जवाब देगा उस पर कौन विश्वास करेगा?

पार्टी और अपनी हार का डर और ऊपर से हरक सिंह का भी डर

त्रिवेन्द्र सिंह रावत को मौजूदा विधानसभा के कार्यकाल में ही नहीं बल्कि पिछले 21 सालों में भाजपा के 11 साल 111 दिनों के शासनकाल में बने 8 मुख्यमंत्रियों में सबसे अधिक 1452 दिन यानि कि 3.98 साल शासन करने का अवसर मिला है। इसलिये इस चुनावी समर में भाजपा को सबसे अधिक त्रिवेन्द्र रावत की ही आवश्यकता है जो कि स्वयं ही मैदान छोड़ रहे हैं। त्रिवेन्द्र के मैदान छोड़ने के पीछे कई कारण गिनाये जा रहे हैं। लेकिन सबसे प्रमुख कारण चुनाव हारने का डर माना जा सकता है। त्रिवेन्द्र ने पार्टी अध्यक्ष जे. पी. नड्डा से चुनाव न लड़ने की मंशा तब प्रकट की जबकि उनके चुनाव क्षेत्र डोइवाला से हरक सिंह रावत के चुनाव लड़ने की चर्चायें शुरू हुयीं। हरक सिंह से उनकी कभी नहीं निभी। हरक सिंह रावत सबसे अधिक त्रिवेन्द्र के मंत्रिमण्डल में ही हतोत्साहित और अपमानित हुये। इसलिये हरक इस चुनाव में त्रिवेन्द्र से हिसाब चुकता करने के लिये व्याकुल थे। त्रिवेन्द्र के मैदान छोड़ने के पीछे एक कारण यह भी रहा कि अगर किसी तरह भाजपा चुनाव जीत भी गयी तो भी उनके मुख्यमंत्री बनने की कहीं दूर-दूर तक संभावना नहीं थी। अगर वह किसी भी तरह चुनाव जीत भी जाते तो पक्ष या विपक्ष में उन्हें महज एक साधारण विधायक की तरह विधानसभा में बैठना पड़ता, जो कि उनको गंवारा नहीं था। और अगर हार जाते तो उनके राजनीतिक कैरियर पर एक और बट्टा लग जाता, जिसकी पूरी संभावना थी।

टिकट कटने का भी डर

अब त्रिवेन्द्र का कहना है कि उन्हें पार्टी चुनाव लड़ाने की बड़ी जिम्मेदारी देने जा रही है। लेकिन चर्चा यह भी है कि पार्टी जिन विधायकों के टिकट काटने जा रही है उनमें त्रिवेन्द्र का नाम भी शामिल है। पार्टी द्वारा कराये गये सर्वे के अनुसार जो विधायक जीतने की स्थिति में नहीं हैं उनमें अधिकांश के टिकट काटे जा रहे हैं। इसलिये यह भी चर्चा है कि टिकट कटने की तोहमत से बचने के लिये भी उन्होंने पहले ही टिकट लेने से इंकार कर दिया। भाजपा को अपनी सत्ता बचाने के लिये केवल जिताऊ प्रत्याशी मैदान में उतारने हैं। अगर त्रिवेन्द्र सचमुच जिताऊ होते तो पार्टी उनको मैदान छोड़ने की अनुमति भी नहीं देती।

बहरहाल इस चुनावी समर में त्रिवेन्द्र की किनाराकशी भी भाजपा के लिये शुभ संकेत नहीं है। कांग्रेस विधायक एवं पूर्व पत्रकार मनोज रावत का कहना है कि भाजपा से दमदार नेता पार्टी छोड़ रहे हैं और जो नेता पार्टी नहीं छोड़ रहे वे चुनाव मैदान से भाग रहे हैं। ये परिस्थतियां भाजपा की संभावनाओं पर प्रश्नचिन्ह ही लगाती हैं।

(देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत की रिपोर्ट।)

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