Friday, April 19, 2024

उन्नाव गैंगरेप केस ने कर दिया पूरी व्यवस्था को नंगा

उन्नाव गैंगरेप पीड़िता के केस ने देश की पूरी व्यवस्था को नंगा कर दिया है। इसमें न केवल सर्वोच्च सत्ता प्रतिष्ठान शामिल है। बल्कि न्याय प्रणाली से लेकर पुलिस और खुफिया तंत्र के चोटी के पदों पर बैठे लोगों की भी कलई खुल गयी है। यह अपने किस्म का क्लासिक केस है जो बताता है कि इस व्यवस्था के भीतर अगर कोई शख्स रसूखदार व्यक्ति के खिलाफ खड़े होने की हिमाकत करेगा तो उसका क्या हस्र होगा। आरोपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के साथ पूरी सत्ता मजबूती के साथ खड़ी थी। इसमें कुछ प्रत्यक्ष तो बहुत सारे परोक्ष रूप से शामिल थे। बलात्कार और हत्या की जघन्य घटना को अंजाम देने वाले इस शख्स को बीजेपी ने अपनी पार्टी से दफा करने का न्यूनतम कर्तव्य भी नहीं निभाया। बजाय इसके वह हर मौके पर उसका साथ देती दिखी। बीजेपी के सांसद साक्षी महाराज जब सेंगर से जेल में मिल रहे थे तो वह आखिर क्या संदेश दे रहे थे? लोकसभा चुनाव के दौरान विधायक की पत्नी को अपने मंच पर बैठाकर आखिर वह क्या कहना चाहते थे? ऊपर से झूठ बोलने के आदी बीजेपी नेता कह रहे हैं कि उसे पहले ही निलंबित कर दिया गया था।

मामला सिर्फ संपर्कों और संदेशों तक ही सीमित नहीं था। नये एफआईआर में सूबे के कृषि मंत्री देवेंद्र सिंह धुन्नी के दामाद अरुण सिंह का जिस तरह से साजिश में नाम आया है यह बताता है कि चोटी से लेकर जमीन तक के बीजेपी नेताओं के विधायक के साथ नाभि-नाल के रिश्ते हैं। यह घटना बता रही है कि किस तरह से पूरा सत्ता प्रतिष्ठान न केवल सेंगर को बचाने में लगा हुआ था बल्कि उसकी हर आपराधिक साजिश में बराबर का साझीदार था। अनायास नहीं इतनी बड़ी घटना हो जाने के बाद न तो मुख्यमंत्री की जबान फूटी और न ही उन्होंने बगल में स्थित केजीएमसी में जाकर पीड़िता का हाल लेना उचित समझा। यह बात साबित करती है कि अभी भी सूबे की सरकार पीड़िता के जिंदा रहने के बजाय उसकी मौत में ही अपनी भलाई देख रही है।

अगर सरकार सचमुच में उसको लेकर गंभीर होती तो उसकी कार्यवाहियों में वह बात दिखती। जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि जो काम विधायक नहीं कर सका अब उसे सरकार पूरा करना चाहती है। अगर सरकार सचमुच में ईमानदार और तनिक भी संवेदनशील होती तो पीड़िता के इलाज के लिए अच्छी से अच्छी चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था करती और जरूरत पड़ने पर उसे एयर एंबुलेंस से दिल्ली या फिर किसी भी दूसरी जरूरी जगह पर ले जाने की कोशिश करती। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

इस मामले में केंद्र भी बराबर का जिम्मेदार है। घटना को इतने दिन बीत गए हैं लेकिन हर छोटे-बड़े मसले पर ट्वीट करने वाले पीएम मोदी ने एक ट्वीट भी करना जरूरी नहीं समझा। लोकसभा के भीतर गृहमंत्री अमित शाह ने बयान देने की विपक्ष की मांग को ठुकरा दिया। कोई कह सकता है कि लॉ एंड आर्डर सूबे का मामला है लेकिन जब मामले की जांच सीबीआई कर रही है तब सीधी जिम्मेदारी केंद्र की बन जाती है। लेकिन उस सीबीआई को क्या कहिए जिसकी हालत घर से ज्यादा आवारा कुत्ते जैसी हो गयी है। उसे रखा ही इसीलिए गया है कि कैसे “अपने लोगों” को बरी करवाया जाए। जो बात कभी सूबे की सीआईडी के लिए की जाती थी उसी काम को अब सीबीआई करती है। वरना एक मामले को जब सीबीआई देख रही है तो भला किसी विधायक या फिर दूसरे शख्स की उसमें आगे कुछ करने की हिम्मत कैसे पड़ सकती थी। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि विधायक को पता था कि सीबीआई उसके घर की है। और वह उसके इशारों पर नाचेगी।

अगर पुरानी सीबीआई होती तो क्या पीड़िता की सुरक्षा के लिए तैनात पुलिसकर्मी उसकी विधायक के लिए खुफियागिरी कर रहे होते। जैसा कि एफआईआर में दर्ज किया गया है। बताया जा रहा है कि दुर्घटना के दिन सुरक्षाकर्मी पीड़िता के साथ तो नहीं गए लेकिन उसकी लोकेशन विधायक के साथ जरूर शेयर करते रहे। अगर सुरक्षा में लगायी गयी पुलिस यह काम कर रही है। तो फिर भला किसी दुश्मन की क्या जरूरत है? जो पीड़िता के सुरक्षाकर्मी से ज्यादा वहां विधायक के एजेंट के तौर पर काम कर रहे थे।

उन्नाव के इस कांड में न्यायपालिका भी अपने दामन को बरी नहीं कर सकती है। धमकियों का बढ़ता सिलसिला और विधायक के दबाव ने उसे एक बार फिर संस्थाओं के दरवाजे खटखटाने के लिए मजबूर कर दिया था। लिहाजा उसने न केवल सूबे के डीजीपी बल्कि इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस तक को पत्र लिखा। लेकिन विडंबना देखिए इनमें से किसी ने उसका संज्ञान लेना जरूरी नहीं समझा। अगर इनमें से एक भी ने संज्ञान ले लिया होता तो उन्नाव का हासदा टल सकता था। लेकिन चिट्ठियां पाकर ये सभी चुप रहे।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने उस पत्र का संज्ञान लिया है और उनका कहना है कि पत्र उनके पास तक नहीं पहुंचा। लिहाजा रजिस्ट्रार से लेकर कोर्ट के दूसरे जिम्मेदार लोगों को उन्होंने तलब किया है। और अब जब सब कुछ समाप्त होने के कगार पर है तब उन्होंने मामले को देखने का भरोसा दिलाया है। लेकिन एकबारगी अगर उन्होंने देख लिया और कुछ आदेश भी दे दिए तो उससे क्या होने वाला है। कल उनकी जगह कोई दूसरा आएगा और अगर सत्तारूढ़ दल ने अपने विधायक को बचाने का मन बना ही लिया है तो फिर न्यायालय भी क्या कर सकेगा? क्या हमने कई दूसरे मामलों में न्यायपालिका की लाख कोशिशों के बाद भी अपराधियों को बचते हुए नहीं देखा है? लिहाजा गरीब के लिए अगर अब तक न्याय एक उम्मीद थी तो अब वह ख्वाब बन कर रह जाएगा।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)   

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

वामपंथी हिंसा बनाम राजकीय हिंसा

सुरक्षाबलों ने बस्तर में 29 माओवादियों को मुठभेड़ में मारे जाने का दावा किया है। चुनाव से पहले हुई इस घटना में एक जवान घायल हुआ। इस क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय माओवादी वोटिंग का बहिष्कार कर रहे हैं और हमले करते रहे हैं। सरकार आदिवासी समूहों पर माओवादी का लेबल लगा उन पर अत्याचार कर रही है।

शिवसेना और एनसीपी को तोड़ने के बावजूद महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ने वाली हैं

महाराष्ट्र की राजनीति में हालिया उथल-पुथल ने सामाजिक और राजनीतिक संकट को जन्म दिया है। भाजपा ने अपने रणनीतिक आक्रामकता से सहयोगी दलों को सीमित किया और 2014 से महाराष्ट्र में प्रभुत्व स्थापित किया। लोकसभा व राज्य चुनावों में सफलता के बावजूद, रणनीतिक चातुर्य के चलते राज्य में राजनीतिक विभाजन बढ़ा है, जिससे पार्टियों की आंतरिक उलझनें और सामाजिक अस्थिरता अधिक गहरी हो गई है।

Related Articles

वामपंथी हिंसा बनाम राजकीय हिंसा

सुरक्षाबलों ने बस्तर में 29 माओवादियों को मुठभेड़ में मारे जाने का दावा किया है। चुनाव से पहले हुई इस घटना में एक जवान घायल हुआ। इस क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय माओवादी वोटिंग का बहिष्कार कर रहे हैं और हमले करते रहे हैं। सरकार आदिवासी समूहों पर माओवादी का लेबल लगा उन पर अत्याचार कर रही है।

शिवसेना और एनसीपी को तोड़ने के बावजूद महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ने वाली हैं

महाराष्ट्र की राजनीति में हालिया उथल-पुथल ने सामाजिक और राजनीतिक संकट को जन्म दिया है। भाजपा ने अपने रणनीतिक आक्रामकता से सहयोगी दलों को सीमित किया और 2014 से महाराष्ट्र में प्रभुत्व स्थापित किया। लोकसभा व राज्य चुनावों में सफलता के बावजूद, रणनीतिक चातुर्य के चलते राज्य में राजनीतिक विभाजन बढ़ा है, जिससे पार्टियों की आंतरिक उलझनें और सामाजिक अस्थिरता अधिक गहरी हो गई है।