नतीजे से पहले ही विवादास्पद हुआ यूपी का चुनाव

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे चाहे जो भी हों पर चुनावी परिदृश्य में सत्ताधारी दल के लिए कुछ भी सहज नहीं दिख रहा था। लेकिन टीवीपुरम के ‘एक्जिट पोल’ 7 मार्च से ही भारतीय जनता पार्टी की जीत का डंका पीट रहे हैं। 10 मार्च तक इन सर्वेक्षणों की चर्चा चलती रहेगी। अलग-अलग कंपनियों द्वारा कराए सर्वेक्षण काफी कुछ एक जैसे हैं। सबमें भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाते हुए दिखाया गया है। नतीजे क्या होंगे, इस बारे में इस मौके पर भविष्यवाणी करने का कोई तुक नहीं है। लेकिन यूपी के प्रमुख विपक्षी दल के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 8 मार्च को बड़ा बयान दिया।

ईवीएम की सुरक्षा, एक्जिट पोल की कथित राजनीति और उसमें सत्ताधारी भाजपा की खास मंशा को लेकर उन्होंने जो आरोप लगाये, वे बेहद गंभीर हैं। वह यूपी के चुनाव को लोकतंत्र की आखिरी लड़ाई बता रहे हैं और लोगों का आह्वान कर रहे हैं कि वे चुनावों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में अपनी भूमिका निभाएं। यह भयानक स्थिति है। ऐसी स्थितियां क्यों बनी हैं कि विपक्ष का एक प्रमुख नेता नतीजे आने से पहले ही चुनावी धांधली की आशंका जाहिर कर रहा है?

ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल का अस्त्र बनना?

बीते कई सालों से ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल को सत्ताधारी खेमे का चुनावी-अस्त्र कहा जाता रहा है। सन् 2022 के विधानसभा चुनावों के आखिरी चरण के बाद 7 मार्च की देर शाम जब टीवीपुरम में एक्जिट पोल दिखाये जाने लगे तो सिर्फ विपक्षी नेताओं को ही नहीं, सत्ता से नाराज आम लोगों को भी अचरज हुआ।

अनेक लोगों ने खुलेआम कहा कि ऐसे एक्जिट पोल के जरिये एक खास ढंग का माहौल बनाया जा रहा है, जिसमें समाज के बड़े हिस्से में सत्ताधारी दल की ‘भारी जीत’ को सहज स्वीकार्य बनाया जा सके! विपक्षी मिजाज के लोगों ने कहना शुरू किया कि ऐसे एक्जिट पोल सत्ताधारी दल को मदद कर सकते हैं। निस्संदेह, मौजूदा चुनाव में एक्जिट पोल सत्ताधारी खेमे के पक्ष में माहौल बना रहा है। इससे ‘चुनावी धांधली’ से हासिल संख्या को वैध और प्रामाणिक बनाया जा सकता है। आश्चर्य कि निर्वाचन आयोग विपक्ष की किसी भी शिकायत को गंभीरतापूर्वक नहीं ले रहा है।     

हिन्दुत्व और मोदीत्व, दोनों का आकर्षण घटा

एक्जिट पोल के आंकड़े और चुनावी परिदृश्य का सूरतेहाल, दोनों बिल्कुल अलग-अलग दिखे हैं। इस चुनाव में संघ-भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं को भरोसा था कि शुरू के दो चरणों से ही उऩके मनमाफिक ‘सांप्रदायिक-विभाजन और ध्रुवीकरण’ की प्रक्रिया दिखने लगेगी और तीसरा-चौथा चरण आते-आते चुनावी माहौल पूरी तरह बदल जायेगा। यह संयोग नहीं था कि कर्नाटक के हिजाब-विवाद की शुरुआत मतदान के पहले-दूसरे चरण के समय हो चुकी थी। हिन्दी के मुख्यधारा मीडिया, खासतौर टीवी चैनलों के दिन-रात भरपूर कवरेज और हिन्दुत्ववादी संगठनों के प्रचारात्मक प्रयासों के बावजूद यूपी का चुनावी माहौल हिजाब-विवाद में नहीं बहा। तब सन् 2008 के अहमदाबाद सीरियल बम ब्लास्ट कांड के स्थानीय अदालत के फैसले, जिसे सितम्बर, 2021 से ही ‘रिजर्व’ रखा गया था, के बाद एक बार फिर माहौल को सांप्रदायिक रूप से उत्तेजक बनाने की कोशिश हुई। इसके लिए यूपी के आजमगढ़ जिले में समाजवादी पार्टी के राजनीतिक रूप से प्रभावी होने का कोण खोजा गया।

तीसरे चरण के मतदान से दो दिन पहले ही सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनकी पार्टी के चुनाव चिन्ह-‘सायकिल’ पर तोहमतें लगाई जाने लगीं। हद तब हुई, जब स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने तीसरे चरण के मतदान के दिन ही बगल के गैर-मतदान वाले एक इलाके की रैली में सपा नेताओं के साथ पार्टी के चुनाव चिन्ह-सायकिल को निशाने पर लिया! अहमदाबाद के बम विस्फोटकांड में अपराधियों ने कुछ विस्फोटक सामग्री सायकिलों पर रखी थीं। सांप्रदायिक उत्तेजना और ध्रुवीकरण पैदा करने के लक्ष्य से प्रेरित मुख्यमंत्री योगी और कुछ केंद्रीय मंत्रियों की बयानबाजियों का आम लोगों पर कितना असर पड़ा, इसका ठीक-ठीक पता तो नजीते के दिन चलेगा लेकिन मतदान के दौर में इसका कहीं भी उल्लेखनीय असर नहीं दिखा।

जिस दिन सत्ताधारी पार्टी ने प्रेस कांफ्रेंस कर ‘आतंकियों के तार सपा से जुड़े थे’ जैसा इल्जाम लगाया, उसी दिन लखनऊ में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की चुनाव रैली में युवाओं के बड़े समूह ने सेना और अन्य सुरक्षा एजेंसियों में रोजगार के बंद दरवाजे को खोलने की मांग को लेकर भारी हंगामा मचाया। लखनऊ को भाजपा का मजबूत आधारक्षेत्र समझा जाता है। सपा या सायकिल के कथित आतंकी-कनेक्शन जैसे आरोप को लेकर आम लोगों में किसी तरह की कोई उत्तेजना नहीं दिखी। इसके उलट आम लोग उन हल्के आरोपों पर हंसते नजर आए। इससे भी जाहिर हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों का पहले जैसा प्रभाव नहीं दिख रहा है। यही नहीं, प्रधानमंत्री की चुनाव-सभाओं में पहले जैसी भीड़ भी नहीं दिखी।

किसानों का गुस्सा

मतदान के पहले और दूसरे चरण से कुछ निराश दिखते सत्ताधारी नेता अनौपचारिक चर्चा में कहते रहे कि पार्टी की असल ‘दिग्विजय-यात्रा’ की शुरुआत 20 फरवरी को तीसरे चरण से होगी। लेकिन तीसरे चरण में भी वोटों को ‘ध्रुवीकृत’ करने के चिरपरिचित एजेंडे का असर पड़ते नहीं देखा गया। इस बार न तो उल्लेखनीय ‘ध्रुवीकरण’ हुआ और न ही गैर-यादव पिछड़ी जातियां बड़े पैमाने पर ‘भाजपामय’ हुईं! सपा-आरएलडी ने अपने गठबंधन में तीन क्षेत्रीय संगठनों-एसबीएसपी, महान दल और अपना दल(कमेरावादी) को भी साथ जोड़ा। पहले का असर पूर्वांचल के राजभर समुदाय में है। दूसरे का पश्चिम और मध्य के शाक्य, सैनी और कुशवाहा समुदाय में है तो तीसरे का कुर्मी किसानों में। ये सभी मूलतः शूद्र श्रेणी की किसान जातियां हैं।

एसबीएसपी के नेता ओपी राजभर एक समय योगी सरकार में मंत्री भी थे। अपना दल (कमेरावादी) की प्रमुख नेता पल्लवी पटेल इलाहाबाद के सिराथू क्षेत्र में राज्य के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य़ को कड़ी चुनौती दे रही हैं। वह केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल की बड़ी बहन हैं पर एनडीए की बजाय सपा गठबंधन में हैं। राजभर, पल्लवी, स्वामी प्रसाद मौर्य और के डी मौर्य जैसे नेताओं के प्रयासों से ओबीसी में विभाजन की ‘भाजपाई सोशल इंजीनियरिंग’ पहले की तरह कामयाब नहीं होती दिखी। ओबीसी जातियों के उल्लेखनीय मोहभंग का दूसरा बड़ा कारण दिखाः छुट्टा पशुओं द्वारा किसानों के खेतों में घुसकर फसलों को बर्बाद करना और इस समस्या पर योगी सरकार की कथित निष्क्रियता। छुट्टा पशुओं के चलते किसानों के लहलहाते खेत बर्बाद हो गये। छोटे-मझोले किसानों और बटाईदारों में सरकार के खिलाफ भारी विरोध दिखा। ये किसान व्यापक तौर पर शूद्र जातियों के हैं, जो ओबीसी श्रेणी में आती हैं।

उच्च हिन्दू जातियों और लाभार्थियों के बड़े हिस्से का सहारा

भाजपा को इस चुनाव में उच्च हिन्दू जातियों, वैश्य समुदाय और सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों, खासकर कुछ अत्यंत पिछड़ी जातियों के समर्थन का भरोसा रहा है तो क्षेत्रीय स्तर पर उसे बुंदेलखंड और अवध क्षेत्र से ज्यादा उम्मीद थी। अनाज, खाद्य तेल और आर्थिक सहायता के ‘लाभार्थियों’ के कुछ समूहों में भाजपा के प्रति नरम रूझान दिखा। लेकिन ऐसा सभी लाभार्थियों में नहीं। भाजपा के कई प्रत्याशियों को चुनाव रैलियों और जनसंपर्क के दौरान मतदाताओं से शिकायत दर्ज कराते सुना गया कि ‘सरकार ने आप लोगों को अनाज और आर्थिक सहायता दी है फिर भी आप विपक्ष का समर्थन क्यों कर रहे हैं?’ अनेक क्षेत्रों में लोगों ने भाजपा प्रत्याशियों को गांव से खदेड़ा तक।

जनाक्रोश बनाम संगठन और चुनावी प्रबंधन

यूपी के चुनावी परिदृश्य में सत्ता के विरूद्ध आम लोगों, खासकर छोटे-मझोले किसानों, दलित-पिछड़े वर्ग के शिक्षित युवाओं, मुस्लिम समुदाय और आम कर्मचारियों में भारी आक्रोश दिखा। संभवतः इसी के मद्देनजर सत्ताधारी दल ने चुनाव प्रचार और मतदान सम्बन्धी अपनी तैयारी खूब चौचक रखी। बूथ-मैनेजर हों या पन्ना-प्रमुख; ऐसे हर काम का मुख्य प्रभार किसी वरिष्ठ स्थानीय नेता या आरएसएस-वीएचपी के कार्यकर्ताओं को सौंपा गया। इसके मुकाबले विपक्षी दलों का सांगठनिक ढांचा बेहद कमजोर था। विपक्षी कार्यकर्ता अखिलेश यादव की रैलियों या रोड-शो में तो खूब दिखते रहे पर मतदान केंद्रों और जमीनी स्तर पर प्रचार करते कम दिखे। कइयों को कहते सुना गया-‘हमारी ओर से जनता ही चुनाव लड़ रही है।’ निर्वाचन आयोग के कतिपय फैसले भी चुनाव में सत्ताधारी दल को मदद पहुंचाते नजर आए।

इसमें एक फैसला रहा-पोस्टल बैलेट का दायरा बढ़ाना। चुनाव आयोग के इस फैसले को नौकरशाही अपने राजनीतिक आकाओं के पक्ष में इस्तेमाल करने के लिए ‘कृत-संकल्प’ नजर आई। बजुर्गों, दिव्यांगों और सेवा में अन्यत्र पदस्थापित कर्मियों को पोस्टल बैलेट से मतदान करने का अधिकार देना एक तरफ जरूरी लग सकता है पर यूपी जैसे प्रदेश में उसका मतदान के हर चरण में भारी दुरुपयोग होता नजर आया।

अनेक स्थानों पर इस तरीके से मतदान करने के लिए लोगों के आवेदन फार्म पहले से भर लिये गये और बैलेट-पेपर कइयों को अंत तक नहीं मिला। मतदान किये बगैर कइयों के नाम-वाले पोस्टल बैलेट पर किसी ‘अदृश्य शक्ति’ ने स्वयं मतदान दर्ज करा दिया। गाजियाबाद, मेरठ, कानपुर सहित कई इलाकों में ऐसे अनेक उदाहरण दिखे। अनेक निर्वाचन क्षेत्रों में हजारों मतदाताओं के नाम मतदान से ऐन पहले वोटर-लिस्ट से गायब पाये गये। अमरोहा, मुरादाबाद, अलीगढ़, गाजियाबाद सहित अनेक इलाकों में ऐसा बड़े पैमाने पर हुआ। देखना होगा कि इस बार के बेहद मानीखेज चुनाव में ऐसी चुनावी-विकृतियों की कहां-कितनी भूमिका होती है! जहां तक चुनावी माहौल का प्रश्न है-अवध और बुंदेलखंड के कुछ हलकों को छोड़कर पश्चिमी से पूर्वी यूपी तक हर जगह सत्ता-विरोधी रुझान प्रभावी दिखी। देखना दिलचस्प होगा कि इस चुनाव में कौन जीतता है? सत्ता से आम लोगों की नाराजगी जीतती है या सत्ताधारी खेमे का संगठित ‘चुनाव-प्रबंधन’?

(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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